माता से बड़ा और कोई देवता नहीं

September 1951

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

माता ही संसार में अधिक पूज्या है। ‘न मातुः परदैवतम्’। इस भौतिक शरीर को जन्म देने वाली प्राकृत शरीर धारिणी माता, उन्हीं परम माता का एक स्वरूप है। माता और पिता लौकिक दृष्टि में एक दूसरे से भिन्न होते हैं, परन्तु अलौकिक दृष्टि सम्पन्न आप्त यह बतलाते हैं कि परम माता और परम पिता एक ही हैं। एक ही में ये एक साथ दो रूप हैं, इसलिए एक से दूसरे का ध्यान भी हो जाता है, शिशु को गोद में उठा लेने की जो उत्सुकता है, संक्षेप में जो वात्सल्यता वह पितृ रूप में एक विलक्षण गम्भीरता के भीतर छिपा हुआ है, उसे व्यक्त करने वाली माता ही है। पिता और पुत्र के बीच में माता हैं। ‘मातृदेवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव।’

इत्यादि मन्त्रों में माता को ही सबसे पहला स्थान दिया गया है। इसका भी यही कारण है कि माता ही आदि गुरु है और उसी की दया अनुग्रह के ऊपर बच्चों का ऐहिक, परलौकिक और परमार्थिक कल्याण निर्भर रहता है।

मात्रा भवतु संमनाः (अर्थव वेद 3।30।2)

इस लेख का शीर्षक समस्त पद है, जिसका अर्थ है ‘उदर में गर्भ व शरीर को धारण करने वाली पूजनीय माता की महत्ता’ जैसा कि इसके निर्वचन से सिद्ध है। माता शब्द अत्यन्त प्रिय और बहु व्यापक है एवं जननी, जनित्री, जनयित्री, प्रसू-ये माता के पर्याय हैं। माता की महिमा के विषय में श्रुति, स्मृति, पुराण और इतिहास में एवं नीति ग्रन्थों में बहुत कुछ लिखा मिलता है। भगवती श्रुति उपदेश देती है—मातृ देवो भव। (तैत्तिरीय 1।11) अर्थात्—हे मनुष्य! इष्टदेव समझ कर माता की सेवा कर। स्मृति का वचन है —

उपाध्यायनदशाचार्य आचार्याणाँ शतं पिता।

सहस्त्रं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते॥

अर्थात्- एक आचार्य गौरव में दस उपाध्यायों से बढ़ कर है। एक पिता सौ आचार्यों से उत्तम है एवं एक माता सहस्र पिताओं से श्रेष्ठ है, पालन पोषण करने के कारण माता की पदवी सब से ऊँची है।

गर्भ धारणपोषाद्धि ततो माता गरीयसी।

माता के विरुद्ध आचरण सन्तान को किसी भी दशा में नहीं करना चाहिए। पुत्रों के लिए माता परम पूजनीय है। माता के होते हुए उनको किसी दूसरे देवता की पूजा की आवश्यकता नहीं है। जैसा कि शास्त्र का अनुशासन है—

मातृतोऽन्यो न देवोऽस्ति तस्मात्पूज्या सदा सतैः।

इस वचन से इन्द्रादि देवताओं की सत्ता का खण्डन अभिप्रेत नहीं है। माता में देववत् पूज्य बुद्धि रखना ही पुत्र का कर्त्तव्य है और इसी को शास्त्र सिखाता है। धर्मशास्त्रियों का कथन है—

मातुश्च यद्धितं किंचित्कुरुते भक्तितः पुमान्।

तर्द्धमंहि विजनीयाँदेवं धर्म विदो बिदुः॥

अर्थात्- माता की प्रसन्नता के लिये मनुष्य भक्ति पूर्वक जो कार्य करता है, वही उसके लिए धर्म है। गृहस्थ व्यक्ति की बड़ी तपस्या इसी में है कि वह माता की सेवा उसको जगन्माता आद्यशक्ति समझ कर और पिता की सुश्रूषा परात्पर ब्रह्म मान कर करें, क्योंकि माता पिता की प्रसन्नता ही सब धर्मों का मूल है—

त्वमाद्ये जगता माता पिता ब्रह्म परात्परम्।

युवायोः प्रीणनं यस्मात्तस्मात्किं गृहिणाँ तपः॥

नीतिकारों का मत है—

मातृष्वसा मातुज्ञ्लानी पितृव्यस्त्री पितृष्वसा।

श्वश्रूः पूर्वज पत्नी च मातृतुल्याः प्रकीर्तिताः॥

अर्थात्- मौसी, मामी, चाची, ताई, बुआ, सास और मामी ये सब माता के समान हैं। महर्षि मनु का उपदेश है—

पितुर्भगिन्याँ मातुश्च ज्यायस्याँ च स्वदपि।

मातृवद्वृत्तिमातिष्ठेन्माता ताभ्यो गरीयसी।॥

अर्थात्- पुरुष को चाहिए कि वह बुआ, मौसी और बड़ी बहिन के साथ माता का सा व्यवहार करें और अपनी सगी माता तो इनसे भी बड़ी है ही। ब्रह्म वैवर्त पुराण में अन्य पन्द्रह महिलाओं को माता की पंक्ति में बैठाया है। वेदशास्त्र विहित उन सोलह प्रकार की माताओं का उल्लेख इस प्रकार है—

स्तन्यदात्री गर्भधात्री भक्ष्यदात्री गुरु प्रिया।

अभीष्ट देव पत्नी च पितुः पत्नी च कन्यका॥

सगर्भजा च या भगिनी स्वामिपत्नी प्रियाप्रसुः।

मातुर्माता पितुर्माता सोदसस्य प्रिया तथा ॥

मातुः पितुश्च भगिनी मातुलानि तथैव च।

जनानाँ वेदबिहिताँ मातरः षोडश स्मृताः॥

अर्थात्- दूध पिलाने वाली (धाय) गर्भ धारण करने वाली, भोजन देने वाली, गुरु पत्नी, इष्टदेव की पत्नी, सौतेली माँ, सौतेली माँ की पुत्री, सगी बड़ी बहिन, स्वामी की पत्नी, सास, नानी, दादी, सगे बड़े भाई की पत्नी, मौसी, बुआ और मामी ये सब मिला कर सोलह माताएं हैं।

लोक में यह बात प्रसिद्ध है कि जब मनुष्य पर कोई संकट पड़ता है तब वह “अरी मेरी मैया” कह कर माता का ही स्मरण करता है। ‘आपदि मातैव शरणाम्।’ माता के समान शरीर का और कोई पोषक नहीं है—

माता समं नास्ति शरीर पोषणाम्।

इसका कारण यही है कि अहैतुक स्नेह करने वाली माता ही एक ऐसी है, जिसका प्रेम सन्तान पर जन्म से लेकर शैशव, बाल्य, यौवन एवं प्रौढ़ावस्था तक एक सा बना रहता है। माता का यह प्रेम केवल मनुष्य योनि तक ही सीमित नहीं है। वह तो पशु, पक्षी, जलचर, स्थल चर आदि अन्य योनियों में भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। चिड़िया और कुक्कुटी अड्डे रख कर कुछ दिन उनको सेती हैं और बच्चे निकल आने पर दाना चुगा चुगा कर तब तक उनका पालन-पोषण करती हैं, जब तक पर निकल आने से उनमें स्वयं उड़ने और दाना चुगने की शक्ति नहीं आ जाती। कच्छपी दूर रह कर भी अपने अड्डों को भगवत्प्रदत्त अपनी अनुस्मरण शक्ति से ही बच्चे निकलने तक सेती है। एवं गाय, भैंस, बकरी, कुतिया, बिल्ली आदि भी बच्चे जन कर बाहरी आपत्तियों से तब तक उनकी रक्षा करती हैं, जब तक वे माता का दूध छोड़ कर घास-फूस आदि खाद्य पदार्थ खाकर आत्म निर्भर नहीं हो जाते। वानरी तो स्नेह-पाश में इतनी बद्ध रहती है कि मृत शावक को भी कई दिनों तक छाती से लगाये फिरती है। स्नेह की प्रबलता में असमर्थ होने पर भी अपनी सन्तान को विपत्ति से बचाने के लिए जान जोखिम में डाल कर आक्रमणकारी पर प्रत्याक्रमण करने का शक्ति भर प्रयास करती है चाहे इसमें वह सफल हो या विफल। सृष्टि के प्रारम्भ से आज तक मातृ मण्डल की महत्ता लोक और वेद में जागरुक है। स्नेहमय माता की सब से बड़ी अभिलाषा यही रहती है, मेरा पुत्र चिरायु हो और इसके साथ ही निरोग, विद्वान, बलवान, धनी, धार्मिक एवं सर्व गुण सम्पन्न बने।

माता कुन्ती ने पांडवों को धर्म पर दृढ़ रखते हुए क्षात्र धर्म और प्रजा पालन करने का उपदेश और आशीर्वाद दिया था। धर्म प्राणा गान्धारी ने अपने दुराग्रही पुत्र सुर्योधन को असन्मार्ग से हटा कर सन्मार्ग पर लाने के लिये समादान द्वारा राजनीति और धर्म नीति के उत्तमोत्तम उपदेश दिये थे। माता कौशल्या को मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् राम की जननी कहलाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। माता कैकेयी और सुमित्रा ने क्रमशः भरत और लक्ष्मण, शत्रुघ्न जैसे पुत्रों को जन्म दिया, जिन्होंने धीरता, वीरता, भ्रातृ-प्रेम और भगवद्भक्ति का जीता जागता आदर्श स्थापित कर संसार का महान् उपकार किया है। प्रातः स्मरणीय माता देवकी ने पोडश कलावतार उन भगवान् श्रीकृष्ण को जन्म दिया था, जिन्होंने भगवद्गीता के सदुपदेश एवं पावन चरित्रों से भक्त को भवसागर से पार उतारने का मार्ग दिखाया। इस प्रकार अन्यान्य अनेक स्नेहमयी योग्य माताओं के नाम दिये जा सकते हैं। धन्य हैं वे सज्जन, जो अहैतुक स्नेह करने वाली परम सुहृद् माता की सेवा कर महर्षि सुमन्तु के वचनानुसार इस लोक और परलोक में सुख के भागी होते हैं।

आयुः पुमान् यशः स्वर्ग कीर्ति पुण्यं बलं श्रियम्।

पशुँ सुखं धनं धान्यं प्राप्नुयान्मातृ वन्दनात्॥

अर्थात्- ‘माता की सेवा करने वाला सत्पुरुष दीर्घायु, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुण्य, बल, लक्ष्मी, पशु, सुख, धन, धान्य, सब कुछ प्राप्त कर सकता है। इसके विपरीत हत भाग्य हैं वे लोग, जो सर्व सुखसम्पादयित्रि हितैषिणी माता के विरुद्ध रहते हैं। ऐसों के लिए शास्त्र की यह भर्त्सना है—

धिगस्तुजन्म तेषाँ वै कृतघ्नानाँ च पापिनाम्।

ये सर्वसौख्यदा देबीं स्वोपास्याँ न भजन्ति वै॥

अर्थात्- धिक्कार है उन कृलष्ण, गुनमेटे, पापी दुर्जनों को, जो सर्वसौख्यादा माता की सेवा—शुधषा नहीं करते। जगती तल में उनका जन्म लेना वृथा है।

जियतु मातु सों दंगम दंगा।

मरीं मातु पहुँचावें गंगा॥

भारतवर्ष सदा से मातृ वर्ग का सेवक रहा है। जाति, व्यक्ति, समाज और देश का सौभाग्य, सच्ची हितैषिणी माता के ही ऊपर निर्भर है। उपर्युक्त पंक्तियों से यही निष्कर्ष निकलता है कि माता पद सब से ऊँचा है इसलिए सभी स्त्री पुरुषों का कर्तव्य है कि वे परम धर्म समझ कर माता की सेवा-सुश्रूषा अवश्य करें, करावें जिससे इस लोक में यश और परलोक में सुख प्राप्त हो। माता का स्थान वस्तुतः स्वर्ग से भी ऊँचा है।

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।

माँ के उपदेशों पर ध्यान दो। उनके सारे उपदेश तुम्हारी भलाई के लिए ही हैं। माँ की सेवा करो, श्रद्धा शक्ति बढ़ाओ। झूठे तर्क न करो, तर्कों से कभी भगवान् की प्राप्ति नहीं हो सकती। माता पिता के लिए तर्क करना उनका अपमान करना है, अतएव तर्क छोड़ कर माँ के भक्तों की वाणी पर विश्वास करो और श्रद्धा पूर्वक माँ की सेवा में लगे रहो, क्योंकि जीव मात्र को माता सबसे अधिक प्रिय और श्रद्धेय होती है। माता जैसा कोमल, दयालु हृदय किसी का भी लोक में दृष्टिगोचर नहीं होता। सन्तान कैसी भी दुष्ट से दुष्ट, स्वेच्छाचारी, मातृ सेवा से विमुख क्यों न हो, फिर भी माँ अपनी ऐसी सन्तान की भी सैदव हितैषिणी रहती है और स्वयं सन्तान की सेवा करके प्रसन्न होती है। अपनी संतान का वह कभी त्याग नहीं करती है। माँ शब्द में कितना प्रेमामृत भरा हुआ है, इसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। पुत्र जब अपनी माँ को माँ, माँ, कहकर पुकारता है तब माता का हृदय प्रेम से भर आता है।

माता ही एक ऐसी वस्तु है जिसे कोई बदल नहीं सकता। माता चाहे जैसी हो वह माता ही रहेगी। चाहे सन्तान उससे घृणा करे या उस पर गर्व, माता को बदल देना उसकी शक्ति के परे है। विलासी आदमी पत्नियों को बदल सकते हैं, भाई-भाई से चिड़ कर उसे त्याग सकता है, पर माता तो माता ही रहेगी। चाहे वह गौरव शालिनी हो अथवा अपमानित हो, विश्व माता को माँ के भीतर देखा जा सकता है। प्रार्थना करने पर माँ कृपा करती है, रोने से माँ सुनती है। याद रखिये, बिना रोये माँ दूध नहीं देती है।

—कल्याण से


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118