हमारे उत्सव तथा त्यौहार।

January 1951

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वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना का उदय

सुखद पारिवारिक जीवन के लिए उत्सव तथा त्यौहार बड़े उपयोगी हैं। इनके द्वारा अनेक लाभ हैं। (1) अच्छा मनोरंजन होता है। इसमें सम्मिलित रूप से समस्त परिवार के व्यक्ति सम्मिलित हो सकते हैं। अभिनय, गान, कीर्तन, पठन, पाठन, स्वाध्याय इत्यादि साथ-साथ करने में सबमें भ्रातृभाव का संचार होता है। (2) समता का प्रचार त्यौहारों में हो सकता है। प्रत्येक व्यक्ति सामूहिक रूप से उन्हें सफल बनाने का उद्योग करता है। (3) पुराने साँसारिक एवं आध्यात्मिक गौरव की स्मृति पुनः हरी हो जाती है। यदि हम गहराई से विचार करें, तो हमें प्रतीत होगा कि प्रत्येक त्यौहार का कुछ गुप्त आध्यात्यि अर्थ है। हिन्दू उत्सव एवं त्यौहारों में समता, सहानुभूति तथा पारस्परिक संगठन की पवित्र भावना निहित है। इन गुणों का विकास होता है। (4) आध्यात्मिक उन्नति का अवसर हमें इन्हीं त्यौहारों द्वारा प्राप्त होता है। हमारे प्रत्येक उपवास मौन व्रत, समारोह का अभिप्राय सच, परिवार में प्रेम, ईमानदारी, सत्यता, उदारता दया, श्रद्धा भक्ति और उत्साह के भाव उत्पन्न होते हैं। ये सब आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं। यही मनुष्य की स्थायी शक्तियाँ हैं।

ये उत्सव तथा त्यौहार केवल रस्म अदायगी बाह्य दर्शन या झूठा दिखावा मात्र न बने’ प्रत्युत पारिवारिक भावना, संगठन, एकता, समता और प्रेम की भावना के विकास में सहायक हो। पारिवारिक जीवन का विकास करने लिए हमें कटुता और विषमता की भावना त्यागना होगी, स्नेह सरिता प्रवाहित करनी होगी और सहानुभूति का सूर्य उदय करना होगा।

उत्सव तथा त्यौहारों में हम सबको एक ही स्थान पर एकत्रित होने का अवसर प्राप्त हो जाता है। हम मिलजुल कर परस्पर विचार विनिमय कर सकते हैं, एक ही विषय पर सोच विचार कर अपनी समस्याओं का हल सोच सकते हैं। परस्पर साथ रहने से हम एक दूसरे के गुण-दोषों की ओर भी संकेत कर सकते हैं। ये वे अवसर हैं जो पारिवारिक भेद भाव भुलाकर पुनः स्नेह सहानुभूति में आबद्ध करते हैं। बड़े उत्साह से हमें इन्हें मानना चाहिए।

मूर्खतापूर्ण आदतें

वे आदत कौन हैं जिनसे परिवार का सर्वनाश होता है? प्रथम तो स्वार्थमय दृष्टिकोण है जिसकी संकुलित परिधि में केवल मुखिया ही रहता है। जो मुखिया अपने आप अच्छी से अच्छी चीजें खाता, सुँदर वस्त्र पहनता। अपने आराम का ध्यान रखता है और परिवार के अन्य सदस्यों को दुखी रखता है, अस्थिर चित्त, मारने-पीटने वाला, वेश्यागामी व्यक्ति परिवार के लिए अभिशाप है।

अनेक परिवार अभक्ष्य पदार्थ के उपयोग के कारण नष्ट हुए है। शराब ने अनेक परिवारों को नष्ट किया है। इसी प्रकार सिगरेट, पान, तम्बाकू, बीड़ी, गाँजा, भाँग, चरस, चाय इत्यादि वस्तुओं में सबसे अधिक धन स्वाहा होता आया है। इन चीजों से सब खर्चा बढ़ता आया है तो उसकी पूर्ति जुआ, सट्टा, चोरी, रिश्वत, भ्रष्टाचार से की जाती है। जो व्यक्ति संयमी नहीं है, उससे उच्च आध्यात्मिक जीवन की कैसे आशा की जा सकती है। नशे में मनुष्य उपव्यय करता है और परिवार तथा समाज के उत्तरदायित्व को पूर्ण नहीं कर पाता। विवेकहीन होने के कारण वह दूसरों का अपमान कर डालता है, व्यर्थ सताता है? मुकदमेबाजी चलाता है। समय और धन नष्ट हो जाता है। शराबी लोगों के गृह नष्ट हो जाते हैं, प्रतिष्ठा की हानि होती है, बच्चों और पत्नी की दुर्दशा हो जाती है। जो लोग भाँग अफीम इत्यादि का नशा करते हैं वे भी एक प्रकार के मद्यपी ही परिगणित किये जायेंगे।

माँस भक्षण भी एक ऐसा ही दुष्कर्म है, जिससे प्राणी मात्र को हानि होती है। इससे हिंसा, प्राणीवध, भाँति-भाँति के जटिल रोग उत्पन्न होते हैं। पशु प्रकृति जागृत होती है। अधिक मिठाइयाँ या चाट-पकौड़ी खाना भी उचित नहीं है।

कर्जा लेने की आदत अनेक परिवारों को नष्ट करती है। विवाह, जन्मोत्सव, यात्रा, आमोद-प्रमोद से अधिक व्यय करने के आदि अविवेकी व्यक्ति अनाप-शनाप व्यय करते हैं। कर्जा लेते हैं और बाद में रोते हैं। एक बार का लिया हुआ कर्ज कभी नहीं उतरता। सामान और घर तक बिक जाते हैं। आभूषण बेचने तक की नौबत आती है। इसी श्रेणी में मुकदमेबाजी आती है। यथाशक्ति आपस में सुलह मेल-मिलाप कर लेना ही उचित है। मुकदमे के चक्र में समय और धन दोनों की बरबादी होती है।

व्यभिचार सम्बन्धी आदतें समाज में पाप और छल की वृद्धि करती है। विवाहित जीवन में जब पुरुष अन्य स्त्रियों के संपर्क में आते हैं, तो समाज में पाप फैलता है। कुटुम्ब का प्रेम, समस्वरता, संगठन नष्ट हो जाता है। गृह पत्नी से विश्वासघात होने से संपूर्ण घर का वातावरण दूषित और विषैला हो उठता है। शोक है कि इस पाप से हम सैकड़ों परिवारों को नष्ट होते देखते है, और फिर भी ऐसी मूर्खता पूर्ण आदतें डाल लेते हैं। आज के समाज में प्रेमी, सखी, आदि के रूप में खुला आदान-प्रदान चलता है। इसके बड़े भयंकर दुष्परिणाम होते हैं।


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