पारिवारिक जीवन

January 1951

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थोड़े से ऐसे जीवों के जो एक साथ खाते-पीते, सोते और उठते-बैठते हैं, एक ही घर में रहने से परिवार नहीं बन जाता। इस प्रकार तो हम घर की ईंटों को ही परिवार कह सकते हैं। किसी परिवार के आधे लोग चाहे पृथ्वी के भिन्न-भिन्न भागों में रहते हों पर हम उसे सुख सम्पदा पूर्ण परिवार कह सकते हैं। पारिवारिक जीवन के सच्चे अंग तो प्रेमपूर्वक, स्मरण, परस्पर का सद्भाव, सबकी मंगलकामना, सबके प्रति सच्ची सहानुभूति, माता-पिता का निश्छल आशीर्वाद, पुत्र की आज्ञाकारिता कर्त्तव्य पालन, सत्यनिष्ठा, भगनी का अभिमान, प्रेम तथा सौजन्य, पत्नी का त्याग, बलिदान, और सर्वतोमुखी प्रेम, वृद्धों की सेवा, प्रतिष्ठा, अतिथियों का सम्मान और आदर इत्यादि हैं।

परिवार परमात्मा की ओर से स्थापित एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा हम अपना आत्म विकास सहज ही में कर सकते हैं और आत्मा में सतोगुण को परिपुष्ट कर सुखी, समृद्ध जीवन प्राप्त कर सकते हैं। मानव जीवन की सर्वांगीण सुव्यवस्था के लिए पारिवारिक जीवन प्रथम सोपान है। मनुष्य केवल सेवा, कर्म और साधना में ही पूर्ण शान्ति प्राप्त कर सकता है।

प्रत्येक परिवार में पूर्वजों की जैसी धारणाएं, विचार, धर्म या रूढ़ियों चली आती हैं, उन्हीं के अनुसार गुप्त रूप से प्रत्येक बच्चे के मानसिक संस्थान पर प्रभाव पड़ा करता है। जो बच्चा चार घण्टे स्कूल में जाकर बीस घंटे घर में अपने पारिवारिक सदस्यों में व्यतीत करता है, उस पर घर का गुप्त प्रभाव निरंतर पड़ता रहता है। आधुनिक बालकों की मान बोधित भावनाओं एवं पुरुषोचित शक्तियों की प्राप्ति में विफलताओं की सर्वाधिक जिम्मेदारी उनके अभिभाविकों की है।

हमारी रूढ़ियां और अन्धविश्वास :-

बुरे परम्परागत संस्कार या सामाजिक रूढ़ियां बच्चों के लिए बड़े शत्रु हैं। मैं ब्राह्मण हूँ, वह चमार है। मैं क्षत्रिय हूँ, वह शुद्र है। मैं अमीर हूँ, वह अस्पृश्य है। उसे मेरी समानता का अधिकार नहीं-इस प्रकार की अनेक रूढ़ियां छात्रों के दिमागों में पाई जाती हैं। सब बच्चों का मानस स्फटिक की तरह स्वच्छ न होकर, रूढ़ियों पुराने धार्मिक संस्कारों, घर के रीति रिवाजों, भोजन सम्बन्धी विचारों तथा साँस्कृतिक विकास से आच्छादित होता है। जब आप बच्चे को उठाना चाहते हैं, तो पहले आपको परिवार का वातावरण परिवर्तित करना पड़ता है। ज्यों-ज्यों परिवार का वातावरण बदलता हैं, त्यों-त्यों बच्चे में भी अंतर होना प्रारम्भ होता है। बालक परिवार के संस्कारों का प्रतीक है।

बच्चे में वीर-पूजा (हीरो वरशिप) की जन्म जात भावना बड़ी तीव्र होती है। वह आदर्श के समीप आना चाहता है। उसका सबसे पहला आदर्श माता है। माता के गुण, दोष, आदतें, स्वभाव, दूध के साथ संपर्क, और आदेशों के साथ मानसिक जगत में प्रवेश करते हैं। माँ के पश्चात पिता वीर-पूजा का पात्र बन जाता है। परिवार में पिता का महत्व सर्वाधिक है। वह समस्त परिवार के लिए आदर्श है। उसी के पथ-निर्देश पर सब चलते हैं, उसी की आदतों और योग्यता, शिक्षा, सभ्यता का अनुकरण प्रति पल किया जाता है। समस्त परिवार पिता की प्रतिछाया ही है। उसके मानस की अप्रत्यक्ष किरणें जिस वातावरण का निर्माण कर देती हैं, उसी में प्रत्येक बच्चे का मानसिक और नैतिक संस्थान विनिर्मित होता है। आपका परिवार वैसा ही होगा, जैसे आप स्वयं है, जैसे आपके विचार, आदर्श, रूढ़िगत संस्कार, भावनाएं और अन्धविश्वास हैं।

जैसा पिता, वैसा परिवार :-

पिता का महत्व मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से बहुत अधिक है। प्रत्येक परिवार अनुकरण का दास है। वह बड़ों का अनुकरण करता है। अतः पिता के रहन-सहन, विचारों और आदतों द्वारा घर के बच्चों की आदतों का निर्माण होता है। अतः पिता हर प्रकार से आदर्श रहे। अपने जीवन का कोई भी दोषपूर्ण पहलू परिवार के सामने न लायें। आदर्श पिता का परिवार ही सुखी, समृद्ध और उन्नतिशील हो सकता है।

घर का वातावरण बनाने वाले अन्य भी तत्व हैं। पहले घर में दीवारों पर लगी हुई तस्वीरों को ही लीजिए। यदि यह चित्र अश्लील, कामोत्तेजक, सस्ते श्रृंगार पूर्ण जीवन या सिनेमा की अभिनेत्रियों से सम्बन्धित होंगे, तो अप्रत्यक्ष रूप से घर का वातावरण अशुद्ध होता रहेगा। इसका प्रभाव बड़ा होने पर बच्चों के चरित्र में प्रकट हो जाएगा। इसी प्रकार जिन परिवारों में गन्दी गालियाँ देने, बच्चों या नौकरों को मारने-पीटने, दुखी करने का क्रम है, उनके बच्चे दुष्ट और निर्मम प्रकृति के होते जायेंगे। पोशाक का दिखावा, अधिक बनवा, पाउडर, सैन्ट, इत्र, खुशबूदार तेल लगाकर सज-धज कर निकलने वाले परिवारों के बच्चे ऊंचे और कामुक प्रकृति के निकलेंगे। जैसा घर का वातावरण, वैसे ही बच्चे के संस्कार !

पिता को अपना महान् दायित्व समझना चाहिए और स्वाध्याय, चिंतन, मनन एवं सेवाभाव के बीज पारिवारिक सदस्यों में बोने चाहिए। पिता ही प्रथम शिक्षक और पथ प्रदर्शक है। ऊँचा उत्साही, मिलनसार, भावुक, परोपकारी, अधिक परिश्रमी, अटल विश्वासी, व्यवहार कुशल, सच समालोचक, विनोदपूर्ण होना चाहिए। जिस संलग्नता से वह पवित्र जीवन व्यतीत करेगा। उसी परोपकारिकता, पितृभक्ति और मृदुता से उसका परिवार उसके पद चिन्हों पर चलेगा।

सम्मिलित रहें या पृथक हो जायें ?

सहयोग की भावना मनुष्य जाति की ऊर्जा का मूल कारण है। हमारी एकता शक्ति, सामाजिकता, मैत्री भावना, सहयोग, परायणता, हमारी आधुनिक सभ्यता का मूल मंत्र है। सभ्यता के प्रारंभ में मनुष्यों ने आपस में एक दूसरे को सहयोग दिया, अपनी स्थूल और सूक्ष्म शक्तियों को परस्पर मिलाया। इस संगठन में उन्हें ऐसी चेतनाएँ एवं सुविधाएं प्राप्त हुई। जिनके कारण अनेक हिंसक पशुओं के ऊपर मनुष्य का आधिपत्य स्थापित हो गया। दूसरे प्राणी जो साधारणतः शारीरिक दृष्टि से मनुष्य की अपेक्षा कहीं अधिक सक्षम थे, इस मैत्री भावना, सम्मिलित योग्यता के अभाव में जहाँ के तहाँ अविकसित पड़े रहे। उनकी शक्तियाँ विशखलित, विघटित, असंगठित रहीं। संघशक्ति का प्रादुर्भाव उनमें न हो सका।

यही बात परिवारों के सम्बन्ध में है। वे ही परिवार उन्नति कर सके हैं जिसमें पारस्परिक सहयोग, संगठन, एकता, पारस्परिक सद्भाव रहे हैं। बड़े सेठ, साहूकारों, संस्थाओं, फर्मों का निरीक्षण करके मालूम करें तो उनका संगठन ही उन्नति का मूल मिलेगा। विद्युत, अग्नि, गैस, वाष्प की तरह जनशक्ति भी एक होकर अनेक गुनी अभिवृद्धि को प्राप्त होती है।

व्यक्तिवाद के स्थान पर समूहवाद की प्रतिष्ठापना संसार अब पहचानता जा रहा है। मजदूर, किसान, कारीगर अपने संघ विनिर्मित कर रहे हैं। जहाँ तक कि बुरे व्यक्ति भी बुरे कर्मों के लिए घनिष्ठ संघ बनाकर अवाँछनीय साहसिक कार्य प्रतिष्ठित कर रहे हैं।

सम्मिलित कुटुम्ब के असंख्य लाभ

पृथक-पृथक रूप से छोटे-छोटे प्रयत्न करने में शक्ति का अपव्यय अधिक और कार्य न्यून होता है। अकेला मनुष्य थोड़ी देर बाद रुक जाता है। परंतु सामूहिक और संगठित सहयोग से ऐसी अनेक चेतनाओं और सुविधाओं की उत्पत्ति होती है, जिसके द्वारा बड़े-बड़े कठिन कार्य सहज हो जाते हैं। सम्मिलित खेत, सम्मिलित रसोई, सम्मिलित व्यापार, सम्मिलित संस्था, सम्मिलित परिवार का क्षेत्र विस्तृत होता है। सम्मिलित परिवार की प्रवृत्ति से मानव प्राणी की सुख, शाँति एवं सफलताओं में आश्चर्यजनक रीति से अभिवृद्धि होती है।

आर्थिक दृष्टि से विचार कीजिए तो धन का मितव्यय होता है तथा सम्पन्नता में अभिवृद्धि होती है। पृथक-पृथक रहने पर पृथक ही चूल्हे जलते हैं, दीपक जलते हैं, भोजन, निवास तथा शिक्षा इत्यादि के निमित्त प्रत्येक छोटे परिवार को प्रथक ही व्यय करना पड़ता है। आजकल मकान की समस्या बड़ी विषम है। चार भाई यदि पारस्परिक स्नेह का विकास कर सम्मिलित रहें, तो चार मकानों के स्थान पर एक से ही कार्य चल जायेगा। चार मकान, चार फर्नीचर, फर्श, सजावट का सामान की आवश्यकता प्रतीत न होगी। अतिथियों के लिए अतिरिक्त पलंग, बिस्तर फिर सबको प्रथक रखने की क्या जरूरत। घर के साधारण नौकर, जैसे-कहार, रसोइया, मेहतर, चौकी-दार, दूध दुहने वाले का व्यय भी एक ही स्थान से किया जा सकेगा और चारों भाइयों को आराम भी प्राप्त होगा। चार भाइयों के एक साथ सम्मिलित रहने में यदि दो सौ रुपये का व्यय है तो, पृथक रहने में चार सौ का व्यय अवश्य हो जाएगा। एक भाई दूसरे अच्छे भाई के व्यवहार, प्रोग्राम, दिनचर्या देखकर उसका अनुकरण करेगा, गंदगी से बचेगा, व्यर्थ की आदतों-जैसे सिनेमा, मद्य, सिगरेट, सैर-सपाटा इत्यादि अनेक प्रकार के अपव्यय से बचा रहेगा।” जो मैं चाहता हूँ, वह सबको भी होना चाहिए। सबके लिए वही व्यवस्था करने में बहुत व्यय पड़ेगा। केवल मेरे ही लिए यह वस्तु होने से सबको बुरा प्रतीत होगा- “ऐसा सोचकर गृह के अन्य सदस्य भी अपनी आवश्यकताओं पर संयम और मन पर नियंत्रण रखेंगे। जब यह नियंत्रण हट जाता है, तो हर एक व्यक्ति खुले हाथ से व्यय करता है। घर की जुड़ी हुई सम्पत्ति नष्ट हो जाती है। झूठे दिखावे में आदमी बरबाद हो जाता है।”

आर्थिक लाभ-

इस प्रकार जहाँ व्यय में किफायत होती है, वहाँ सम्पन्नता में वृद्धि होती है। मितव्यय वाला धन क्रमशः एकत्रित होता है। सम्मिलित श्रम से लाभ भी अधिक होता है। घर के विश्वस्त आदमी मिलकर कारोबार में जितना लाभ कमा सकते हैं, उतना नौकरों द्वारा नहीं हो सकता। सबकी आय एक ही स्थान पर एकत्रित होने से, संचित पूँजी में वृद्धि होती है। अर्थशास्त्र का अकाट्य नियम है। “अधिक पूँजी, अधिक लाभ”। जैसे किसी व्यापार में एक हजार की पूँजी लगाई जाती है, तो दस प्रतिशत लाभ होता है। पर उसी में दस हजार की पूँजी लगाई जावे, तो पन्द्रह प्रतिशत लाभ होने लगेगा। सबकी कमाई एक स्थान पर होने से, पारिवारिक उद्योग धंधे, छोटे-छोटे व्यापार और छोटी कंपनियाँ चालू की जा सकती हैं। ये ही छोटी कंपनियाँ मिलकर बड़ी कंपनियाँ बन जाती हैं।

प्रत्येक परिवार की एक साख होती है। अच्छी साख वाले परिवार के प्रत्येक सदस्य को जीवन में अग्रसर होने में यह पूर्व संचित प्रतिष्ठा-सम्पदा बहुत लाभ पहुँचाती है।

मानसिक दृष्टि से लाभ :-

मानसिक दृष्टि से विचार कीजिए तो अनेक लाभ है। साथ-साथ रहने से सामाजिकता की वृद्धि होती है। मनोरंजन रहता है और तबियत लगी रहती है। चित्त ऊबता नहीं। बच्चों की मीठी तोतली बोली, माता का सुखद वात्सल्य, भाई-बहिनों का सौंदर्य, पत्नी का प्रेम, सबका सहयोग, कष्ट के समय उत्साह-जैसे विविध भावों का रुचिकर थाल सामने रहता है जिसे खाकर मानसिक क्षुधा तृप्त हो जाती है। पत्नी को लेकर पृथक हो जाने वाले लोग इन षटरस मानसिक व्यंजनों से वंचित रह जाते हैं। छोटे बच्चों का खेलना, बड़े बच्चों का पढ़ना, लड़कियों का काढ़ना-बुनना, अध्ययन, संगीत, स्त्रियों की अनुभव पूर्ण बातें, गृहकार्य करना, गृहपति का आगन्तुकों से वार्तालाप, वृद्धाओं की धर्मचर्चा एवं नानी की कहानियाँ-किसी में प्रेम किसी में चख चख, खटमिट्ठा स्वाद मिलकर कुटुम्ब एक अच्छा मनोरंजन स्थल बन जाता है। यह अपने आप में एक सोसायटी है।

आपत्ति की सुरक्षा के लिए सम्मिलित कुटुम्ब की प्रथा एक बहुत बड़ी गारंटी है। स्त्रियों के शाँत सदाचार की रक्षा के लिए यह एक ढाल के समान है। बीमार पड़ जाने पर इतने व्यक्ति सेवा शुश्रूषा के लिए प्रस्तुत रहते हैं और रोग मुक्ति का उपाय करते हैं। सबके साथ वृद्धावस्था आराम से कट जाने का संतोष रहता है। अपाहिज या अशक्त हो जाने पर भी आश्रय का विश्वास रहता है। मृत्यु हो जाने पर स्त्री बच्चों का पालन-पोषण हो जाने की निश्चिन्तता रहती है। पाश्चात्य देशों में जहाँ पृथक परिवार हैं। विधवाओं का जीवन बड़ा अश्लील रहता है। उन्हें स्वयं गृह के बाहर का काम-काज करना पड़ता है, या अन्यों का मोहताज रहना पड़ता है। हमारे बड़े परिवार में इनके पालन-पोषण तथा सम्पूर्ण जीवन सुख से व्यतीत करने की अच्छी सुव्यवस्था है। बच्चे, बूढ़े, अपंग, पागल, विधवा, सभी को आश्रय प्राप्त हो जाता है।

बाल्य मनोविज्ञान के अनुसार बच्चे अनुकरण प्रिय होते हैं। एक अच्छा परिवार एक स्कूल की भाँति है, इसमें हर एक बच्चा प्रारंभ से ही घरेलू शिक्षा प्राप्त करता है। वे साथ-साथ खेलते-कूदते खाते-पीते हैं, उनका शारीरिक और बौद्धिक स्वास्थ्य दिन प्रतिदिन और वृद्धि को प्राप्त होता है। परिवार का प्रत्येक बालक बड़ों का अनुकरण कर कुछ न कुछ उत्तम शिक्षा, आदत, स्वभाव की विशेषता ग्रहण करता है। यही कारण है कि बड़े प्रतिष्ठित खानदानों की लड़कियाँ प्रायः चतुर, सुसंस्कृत, अच्छी आदतों वाली, सभ्य और व्यवहार कुशल होती हैं। माँ-बाप की अकेली संतान विशेषकर कन्या बड़े परिवार से पृथक प्रायः अकेली माँ-बाप के साथ रहती है, तो वह गृह संचालन के कार्य में बहुत कम सफल हो पाती है। उसके पारिवारिक संस्कार विकसित नहीं हो पाते। बुजुर्गों और अनुभवी व्यक्तियों के गुप्त संस्कार प्रतिपल बच्चों का आत्मिक विकास किया करते हैं। अतः पृथक रहकर बालक उतना विकसित नहीं हो पाता, जितना एक सुसंस्कृत, सुशिक्षित और सात्विक प्रकृति के सुसंचालित परिवार में पनपता है।

सामाजिक दृष्टिकोण से लाभ-

सामाजिक दृष्टि से सम्मिलित परिवार अधिक प्रतिष्ठित माना जाता है। चार अनुभवी व्यक्तियों के परिवार को सम्मिलित जनशक्ति देखकर प्रतिद्वन्द्वी अनायास मुकाबला नहीं करते, मित्र आकर्षित होते हैं। सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ती है। सम्मिलित शक्ति के स्वामित्व का बल घर के प्रत्येक सदस्य को रहता है। हर सदस्य समझता है कि किसी ने मेरा अपमान किया तो समस्त परिवार की जनशक्ति उससे प्रतिशोध लेगी। बीस व्यक्तियों के कुटुम्ब की सबकी शक्ति का अनुमान मान लीजिए एक मण है, तो वैसे पृथक-पृथक हर एक का बल दो सेर हुआ। पर, समाज में हर एक का बल एक-एक मण समझा जाता है। इस प्रकार हर एक को बीस गुनी शक्ति का लाभ तो अनायास ही प्राप्त हो जाता है।

पृथक रहने पर तो मनुष्य की जो वास्तविक शक्ति होती है, उससे भी न्यून प्रतीत होती है। दूसरे व्यक्ति समझते हैं कि “अपनी निजी आवश्यकताओं से इसके पास समय, बल और धन कम ही बचता होगा। इसके द्वारा यह किसी को हानि-लाभ न पहुँचा सकेगा।” इस मान्यता के आधार पर यह व्यक्ति वास्तविक स्थिति से भी छोटा प्रतीत होने लगता है। ऐसी स्थिति में देश या समाज की सेवा के निमित्त कोई महान त्याग करने के लिए वह व्यक्ति तत्पर नहीं हो पाता। यदि हो भी जाता है, तो उसे अतीव चिन्ता रहती है तथा उसके आश्रितों की कठिनाई का ठिकाना नहीं रहता।

धार्मिक दृष्टि से लाभ -

धार्मिक दृष्टि से सम्मिलित परिवार कर्त्तव्य, संयम, त्याग, निस्वार्थता, सेवा भावना की शिक्षा का पुण्य स्थान है। माता-पिता, बड़े भाई, साँस, ननद, जिठानी आदि के प्रति जो कर्त्तव्य है, वह सम्मिलित कुटुम्ब में रहकर ही निभाया जा सकता है। बड़े का सत्कार, सेवा, आदर तभी संभव है जब तक उनके साथ रहें। बड़े भी अपने अनुभव का लाभ छोटों को उसी दशा में दे सकते हैं। जिन बड़ों ने एक बालक को गोदी में खिलाया है और एक युग तक बड़ी-बड़ी आशाएं रखी हैं, वह समर्थ होते ही, पृथक हो जाता है, तो उन्हें भयंकर मानसिक आघात लगता है। यह धार्मिक दृष्टि से एक कृतघ्नता है। ऐसी कृतघ्नता को अपनाने से मनुष्य अपने सहज धर्मलाभ से, कर्त्तव्य पालन से वंचित रह जाता है।

जो परिवार को अपना धर्म क्षेत्र मानकर, नाना प्रकार के पुण्य कर्त्तव्यों का पालन करते हुए उसके द्वारा प्रभु पूजा करते हैं, वे सच्चा आत्म लाभ करते हैं। आपका परिवार परमेश्वर के द्वारा आपको सौंपा हुआ एक उद्यान है। उसमें नाना प्रकार के छोटे बड़े पौधे लगे हुए हैं। एक कर्त्तव्यशील माली की तरह आपको प्रत्येक छोटे बड़े पौधे को सींचना है। जो इस प्रकार अपने कर्त्तव्य का पालन करते हैं, वे एक प्रकार की योग साधना करते हैं और योग के फल को प्राप्त करते हैं। अपने निजी सीमित स्वार्थ की दृष्टि को विस्तृत करके जब मनुष्य उसे स्त्री, पुत्र, पौत्र, परिजन आदि को फैलाता है, तब वह अहंभाव का विस्तार द्रुतगति से होने लगता है। फिर ग्राम, देश, विश्व से बढ़कर वसुधैव कुटुम्बकम की उसकी दृष्टि हो जाती है और सब कुछ अपना आत्मा का परमात्मा का दीखने लगता है, यही जीवन मुक्ति है।

इस प्रकार सम्मिलित परिवार एक सुदृढ़ गढ़ है, जिसमें कोई भी बाहर का व्यक्ति प्रवेश नहीं कर सकता, कोई हानि नहीं पहुँचा सकता, सर्वतोमुखी उन्नति हो सकती है। पर खेद के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि आज हमारे अधिकाँश सम्मिलित परिवार कलह और मनोमालिन्य के शिकार हैं। इसका कारण मुखिया (अधिष्ठाता घर का प्रधान) की कमजोरियाँ हैं। यदि प्रधान मनुष्य के मनोविज्ञान का अच्छा जानकार है, बच्चों, बूढ़ों, युवकों और स्त्री-स्वभाव को अच्छी तरह समझता है, तो वह कुटुम्ब के कलह का अवसर ही न आने देगा। उसे बड़ा अनुभवी, दूरदर्शी, न्यायसंगत, निःस्वार्थ, निष्पक्ष, शाँत स्वभाव का होना चाहिए। उसका विवेक जागृत रहे। वह शान्ति से सबके पक्ष सुने, विचारे और तत्पश्चात् निर्णय प्रदान करे। वह परिवार का कन्ट्रोलर या पथप्रदर्शक है, उसे आने वाली कठिनाइयाँ, घर की आर्थिक सुव्यवस्था, विवाह सम्बन्धों की चिन्ता, युवकों की नौकरियाँ, स्त्रियों के स्वास्थ्य और शिशुपालन का ज्ञान होना अपेक्षित है। अनेक बार उसे युक्ति से काम लेना पड़ेगा, प्रशंसा और प्रेरणा देनी होगी, क्रोध और डाट-फटकार का प्रयोग कर पथ भ्रष्टों की सन्मार्ग पर लाना होगा, और आर्थिक कार्यों के आगे चलना होगा। अपनी धार्मिक, उज्ज्वलता से उसे सब पारिवारिक सदस्यों का आदर भी और प्रतिष्ठा का पात्र भी बनना होगा।


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