पारिवारिक कलह और मनमुटाव कारण तथा निवारण

January 1951

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सास बहू के झगड़े -

बहुसंख्यक परिवारों में सास बहू के झगड़े चल रहे हैं। इसके अनेक कारण है। सास बहू को अपने नियंत्रण में रखकर अनुशासन करना चाहती है। अपनी आशानुसार उससे कार्य कराना चाहती है। कभी-कभी वह अपने पुत्र को बहका कर बहू की मरम्मत कराती है। प्रायः देखा गया है कि जहाँ कोई पुरुष स्त्री को कष्ट देता है, तो उसके मध्य में अवश्य किसी स्त्री-सास, ननद या जिठानी रहती है। स्त्रियों में ईर्ष्या भाव अत्यधिक होता है। बहू का व्यक्तित्व प्रायः लुप्त हो जाता है तथा उसे रौरव नर्क की यन्त्रणाएं सहन करनी पड़ती हैं।कहीं पर पति बहू के इंगित पर नृत्य करता है और उसके भड़कायें से वृद्धा सास पर अत्याचार करता है। वृद्धा से कठिन कार्य कराया जाता है वह धुएं में परिवार के निमित्त भोजन व्यवस्था करती है जबकि बहू सिनेमा देखने या टहलने के लिए जाती है।

ये दोनों ही सीमाएं नियं हैं। सास बहू के सम्बन्ध पवित्र हैं। सास स्वयं बहू को देखने के लिए लालायित रहती है। उसके लिए वह दिन बड़े गौरव का होता है जब घर बहू रानी के पदार्पण से पवित्र होता है। उसे उदार, स्नेही, बड़प्पन से परिपूर्ण होना चाहिए। बहू की सहायता तथा पथ प्रदर्शन के लिए कार्य करना चाहिए। छोटी-मोटी भूलों को सहृदयता से माफ कर देना चाहिए इसी प्रकार बहू को सास में अपनी माता के दर्शन करने चाहिए और उसकी वही प्रतिष्ठा करनी चाहिए जो वह अपनी माता की करती रही है। यदि पुरुष माता को माता के स्थान पर पूज्य माने, और पत्नी को पत्नी के स्थान पर जीवन सहचरी, मिष्ठभाषणी प्रियतमा माने तो ऐसे संकुचित झगड़े बहुत कम उत्पन्न होंगे।

ऐसे झगड़ों में पुत्र का कर्त्तव्य बड़ा कठिन है। उसे माता की मान-प्रतिष्ठा का ध्यान रखना और पत्नी के गर्व तथा प्रेम की रक्षा करनी है। अतः उसे पूर्ण शान्ति और सुहृदयता से कर्त्तव्य भावना को ऊपर रखकर ऐसे झगड़ों को शाँत करना उचित है। किसी को भी अनुचित रीति से दबा कर मानहानि न करनी चाहिए। यदि पति कठोर, उग्र, लड़ने वाले स्वभाव का है, तो पारिवारिक शाँति और समृद्धि भंग हो जायेगी। प्रेम और सहानुभूति से दूसरों के दृष्टिकोण को समझकर बुद्धिमत्ता से अग्रसर होना चाहिए।

ननद भौजाई के झगड़े-

प्रायः देखा जाता है कि जहाँ ननदें अधिक होती हैं, या विधवा होने के कारण मायके यहाँ रहती हैं, वहाँ बहू पर बहुत अत्याचार होते हैं। ननद भाभी के विरुद्ध अपनी माता के कान भरती है और भाई को भड़काती हैं। इसका कारण यह है कि बहिन भाई पर अपना पूर्ण अधिकार समझती है और अपने गर्व, अहं, और व्यक्तव्य को अन्यों से ऊपर रखना चाहती है। भाई, यदि अदूरदर्शी होता है, तो बहिन की बातों में आ जाता है, और बहू अत्याचार का शिकार बनती है।

इन झगड़ों में पति को चाहिए कि पृथक-पृथक अपनी बहिन और पत्नी को समझा दे और दोनों के स्वत्व तथा अहं की पूर्ण रक्षा करे। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से दोनों का अध्ययन कर परस्पर मेल करा देना ही उचित है। मेल कराने के अवसरों की ताक में रहना चाहिए। दोनों को परस्पर मिलने, बैठने साथ-साथ टहलने जाने, एक सी दिलचस्पी विकसित करने का अवसर प्रदान करना उचित है। यह नहीं होना चाहिए कि पत्नी ही दोनों समय भोजन बनाती, झूठे बर्तन साफ करती, जिठानी के बच्चों को बहलाती-धुलाती, आटा पीसती, कपड़े धोती, दूध पिलाती या झाड़ू-बुहारी का काम करती रहे। चतुर पति को चाहिए कि काम का बटवारा करदे। पत्नी को कम काम मिलना चाहिए क्योंकि उसके पास बच्चे भी पालने के लिए हैं। यदि कोई बीमार पड़ेगा तो उसे उसका कार्य भी करना होगा।

वृद्धों का चिड़चिड़ापन और परिवार के अन्य व्यक्ति

प्रायः देखा गया है कि आयुवृद्धि के साथ-साथ वृद्ध चिड़चिड़े, नाराज होने वाले, सनकी क्रोधी और सठिया जाते हैं। वे तनिक सी असावधानी से नाराज हो जाते हैं और कभी-कभी अपशब्दों का भी उच्चारण कर बैठते हैं। ऐसे वृद्ध क्रोध के नहीं, हमारी दया और सहानुभूति के पात्र हैं। वे अज्ञान में हैं और हमें उनके साथ वही आचरण करना उचित है, जैसा बच्चों के साथ। उनकी विवेकशील योजनाओं तथा अनुभव से लाभ उठाना चाहिए और उनकी मूर्खताओं को उदारतापूर्वक क्षमा करना चाहिए।

वृद्धों को परिवार के अन्य व्यक्तियों के प्रेम और सहयोग की आवश्यकता है। हमें उनसे प्रीति करना, जितना हो सके आज्ञा पालन, प्रतिष्ठा उनके स्वास्थ्य का संरक्षण ही उचित है, खाने के लिए, कपड़ों के लिए तथा थोड़े से आराम के लिए वह परिवार के अन्य व्यक्तियों की सहानुभूति की आकाँक्षा करता है। उसने अपने यौवन काल में परिवार के लिए जो श्रम और बलिदान किए हैं, अब उसी त्याग का बदला हमें अधिक से अधिक देना उचित है।

परिवार के संचालन की कुँजी उत्तम संगठन है। प्रत्येक व्यक्ति यदि सामूहिक उन्नति में सहयोग प्रदान करे, अपने श्रम से अर्थ संग्राम करे, दूसरों की उन्नति में सहयोग प्रदान करे। सब के लिए अपने व्यक्तिगत स्वार्थों का बलिदान करता रहे, तो बहुत कार्य हो सकता है।

स्वस्थ दृष्टिकोण-

दूसरों के लिए कार्य करना, अपने स्वार्थों को तिलाँजलि देकर दूसरों को आराम पहुँचाना सृष्टि का यही नियम है। कृषक हमारे निमित्त अनाज उत्पन्न करता है, जुलाहा वस्त्र बुनता है। दर्जी कपड़े सींता है, राजा हमारी रक्षा करता है। हम सब अकेले काम नहीं कर सकते। मानव जाति में पुरातन काल से पारस्परिक लेन देन चला आ रहा है। परिवार में प्रत्येक सदस्य को इस त्याग, प्रेम सहानुभूति की नितान्त आवश्यकता है। जितने सदस्य हैं सबको आप प्रेम-सूत्र में आबद्ध कर लीजिए। प्रत्येक का सहयोग प्राप्त कीजिए प्यार से उनका संगठन कीजिए।

इस दृष्टिकोण को अपनाने से छोटे बड़े सभी झगड़े नष्ट होते हैं। अक्सर छोटे बच्चों की लड़ाई बढ़ते-बढ़ते बड़ों को दो हिस्सों में परिवर्तन कर देती है। पड़ौसियों में बच्चों की लड़ाइयों के कारण युद्ध ठन उठता है। स्कूल में बच्चों की लड़ाई घरों में घुसती है। कलह बढ़कर मार-पीट और मुकदमेबाजी की नौबत आती है। उन सबके मूल में संकुचित वृत्ति, स्वार्थ की कालिमा, व्यर्थ वितंड़ावाद, दुरभिसन्धि इत्यादि दुर्गुण सम्मिलित हैं।

हम मन में मैल लिए फिरते हैं और इस मानसिक विष को प्रकट करने के लिए अवसरों की प्रतीक्षा में रहते हैं। झगड़ालू व्यक्ति ज़रा-जरासी बातों में झगड़ों के लिए अवसर ढूंढ़ा करते हैं। परिवार में कोई न कोई ऐसा झगड़ालू व्यक्ति, जिद्दी बच्चा होना साधारण सी बात है। इन सबको भी विस्तृत और सहानुभूति दृष्टिकोण से ही निरखना चाहिए।

तुम्हें एक दूसरे के भावों, दिलचस्पी, रुचि, दृष्टिकोण, स्वभाव, आयु का ध्यान रखना अपेक्षित है। किसी को वृथा सताना या अधिक कार्य लेना बुरा है। उद्धत स्वभाव का परित्याग कर प्रेम और सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिए। कुटिल व्यवहार के दोषों से जैसा अपना आदमी पराया हो जाता है, अविश्वासी और कठोर बन जाता है, वैसे ही मृदुल व्यवहार में कट्टर शत्रु भी मित्र हो जाता है।

विश्व में साम्यवाद की अवधारणा के लिए परिवार ही से श्रीगणेश करना उचित है। न्याय से मुखिया को समान व्यवहार करना चाहिए।

परिवार के युवक तथा उनकी समस्याएँ-

प्रायः युवक स्वच्छन्द प्रकृति के होते हैं और परिवार के नियंत्रण में नहीं रहना चाहते। वे उच्छृंखल प्रकृति, पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित, हलके रोमाँस से वशीभूत पारिवारिक संगठन से दूर भागना चाहते हैं। यह बड़े परिताप का विषय है।

युवकों के झगड़ों के कारण ये हैं- 1-अशिक्षा 2-कमाई का अभाव, 3-प्रेम सम्बन्धी अड़चनें घर के सदस्यों का पुरानापन और युवकों की उन्मुक्त प्रकृति, 4-कुसंग, 5-पत्नी का स्वच्छन्द प्रिय होना तथा पृथक घर में रहने की आकाँक्षा, 6- विचार सम्बन्धी पृथकता-पिता का पुरानी धारा के अनुकूल चलाना पुत्र का अपने अधिकारों पर जमे रहना, 7-जायदाद सम्बन्धी बटवारे के झगड़े । इन पर पृथक-पृथक विचार करना चाहिए।

यदि युवक समझदार और कर्त्तव्यशील हैं, तो झगड़ों का प्रसंग ही उपस्थित न होगा। अशिक्षित अपरिपक्व युवक ही आवेश में आकर बहक जाते हैं और झगड़े कर बैठते हैं। एक पूर्ण शिक्षित युवक कभी पारिवारिक विद्वेष या कलह में भाग न लेगा। उसका विकसित मस्तिष्क इन सबसे ऊँचा उठ जाता है। वह जहाँ अपना अपमान देखता है, वहाँ स्वयं ही हाथ नहीं डालता।

कमाई का अभाव झगड़ों का एक बड़ा कारण है। निखट्टू पुत्र परिवार में सबकी आलोचना का शिकार होता है। परिवार के सभी सदस्य उससे यह आशा करते हैं कि वह परिवार की आर्थिक व्यवस्था में हाथ बंटाएगा। जो युवक किसी पेशे या व्यवसाय के लिए प्रारम्भिक तैयारी नहीं करते, वे समाज में फिर नहीं हो पाते। हमें चाहिए कि प्रारंभ से ही घर के युवकों के लिए काम तलाश कर लें जिससे बाद में जीवन-प्रवेश करते समय कोई कठिनाई उपस्थित न हो। संसार कर्मक्षेत्र है। यहाँ हम में से प्रत्येक को अपना कार्य समझना तथा उसे पूर्ण करना है। हममें जो प्रतिया बुद्धि, अज्ञात शक्तियाँ हैं, उन्हें विकसित कर समाज के लिए उपयोगी बनाना चाहिए।

जरमी टेलर कहते हैं -”जीवन एक बाजी के समान है। हार-जीत तो हमारे हाथ में नहीं है, पर बाजी का ठीक तरह से खेलना हमारे हाथ में है। यह बाजी हमें बड़ी समझदारी से, छोटी-छोटी भूलों से बचाते हुए निरन्तर आत्म विकास और मनोवेगों का परिष्कार करते हुए करनी चाहिए।”

डॉक्टर आर्नल्ड ने लिखा है - “इस जगत में सबसे बड़ी तारीफ की बात यह है कि जिन लोगों में स्वभाविक शक्ति की न्यूनता रहती है, यदि वे उसके लिए सच्चा साधन और अभ्यास करें, तो परमेश्वर उन पर अनुग्रह करता है।” बक्सटन ने भी निर्देश किया है - “युवा पुरुष बहुत से अंशों में जो होना चाहें, हो सकते हैं।” एटी शेकर ने कहा है- “जीवन में शारीरिक और मानसिक परिश्रम के बिना कोई फल नहीं मिलता। दृढ़ चित्त और महान् उद्देश्य वाला मनुष्य जो चाहे कर सकता है।”

प्रतिभा की वृद्धि कीजिए। आपको नौकरी, रुपया, पैसा, प्रतिष्ठा और आत्म सम्मान प्राप्त होगा। उसके अभाव में आप निखट्टू बने रहेंगे। प्रतिभा आपके दीर्घकालीन अभ्यास, सतत परिश्रम, अव्यवसाय, उत्तम स्वास्थ्य पर निर्भर है। प्रतिभा हम अभ्यास और साधन से प्राप्त करते हैं। मनुष्य की प्रतिभा स्वयं उसी के संचित कर्मों का फल है। अवसर को हाथ से न जाने दें, प्रत्येक अवसर का सुँदर उपयोग करें और दृढ़ता, आशा और धीरता के साथ उन्नति के पथ पर अग्रसर होते जायें। स्व संस्कार का कार्य इसी तरह सम्पन्न होगा।

पिता के प्रति पुत्र के तीन कर्त्तव्य हैं - 1-स्नेह, 2-सम्मान तथा आज्ञा पालन। जिस युवक ने पिता का, प्रत्येक बुजुर्ग का आदर करना सीखा है, वही आत्मिक शान्ति का अनुभव कर सकता है।

स्मरण रखिये, आप जो कुछ गुप्त रखते हैं, दूसरों के समक्ष कहते हुए शर्माते है, वह निंदय है। जब कोई युवक पिता के कानों में बात डालते हुए हिचके, तो उसे तुरन्त सम्भल जाना चाहिए क्योंकि बुरे मार्ग पर चलने का उपक्रम कर रहा है। उचित अनुचित जानने का उपाय यह है कि आप उसे परिवार के सामने प्रकट कर सकें।

जब किसी पदार्थ का रासायनिक विश्लेषण हो जाता है, तब सभी उसके शुभ अशुभ अंशों को जान जाते हैं। परिवार में यह विश्लेषण तब होता है, तब युवक का कार्य परिवार के सदस्यों के सम्मुख आता है।

परिवार से युवक का मन तोड़ने में विशेष हाथ पत्नी का होता है। उसे अपने स्व का बलिदान कर संपूर्ण परिवार की उन्नति का ध्यान रखना चाहिए। समझदार गृहणी समस्त परिवार को सम्भाल लेती है।

आज के युवक प्रेम-विवाह से प्रभावित हैं। जिसे प्रेम-विवाह कहा जाता है, वह क्षणिक वासना का ताँडव, थोथी समझ की मूर्खता, अदूरदर्शिता है। जिसे ये लोग प्रेम समझते हैं, वह वासना के अलावा और कुछ नहीं होता। उसका उफान शान्त होते ही प्रेम-विवाह टूक टूक हो जाता है। चुनावों में भारी भूलें मालूम होती है। समाज में प्रतिष्ठा का नाश हो जाता है। ऐसा व्यक्ति सन्देह की दृष्टि से देखा जाता है।

अनेक पुत्र विचारों में विभिन्नता होने के कारण झगड़ों का कारण बनते हैं। संभव है युवक पिता से अधिक शिक्षक हो। किन्तु पिता का अनुभव अपेक्षाकृत अधिक होता है। पुत्र को उदारतापूर्वक अपने विचार अपने पास रखने चाहिए और व्यर्थ के संपर्क से बचना चाहिए।

कुसंग का भयानक अभाव-

कुसंग में रह कर युवक परिवार से छूट जाता है। ये कुसंग बढ़े आकर्षण रूप में उसके सम्मुख आते हैं-मित्रों, सिनेमा, थियेटर, वैश्या, गन्दा साहित्य, गर्हित चित्र, मद्यपान, सिगरेट तथा अन्य उत्तेजित पदार्थ। वे सभी प्रत्यक्ष विष के समान है, जिनके स्पर्श मात्र से मनुष्य पाप कर्म में प्रवृत्त हो जाता है। उनकी कल्पना सर्वथा विनाशकारी है। बड़े सावधान रहें।

इस सम्बन्ध में हम पं. रामचन्द्र शुक्ल की बहुमूल्य वाणी उद्धृत करना चाहते हैं। इसमें गहरी सत्यता है :-

कोई भी युवा पुरुष ऐसे अनेक युवा पुरुषों को पा सकता है जो उसके साथ थियेटर देखने जायेंगे, नाच रंग में जायेंगे, सैर-सपाटे में जायेंगे, भोजन का निमंत्रण स्वीकार करेंगे। ऐसे लोगों से हानि होगी तो बड़ी होगी।

सोचो तो, तुम्हारा जीवन कितना नष्ट होगा, यदि ये जान पहिचान के लोग उन मनचले युवकों में से निकले जिनकी संख्या दुर्भाग्यवश आजकल बहुत बढ़ रही है, यदि उन शोहदों में से निकले जो अमीरों की बुराइयों और मूर्खताओं का अनुकरण किया करते हैं, दिन रात बनाव श्रृंगार में रहा करते हैं, कुलटा स्त्रियों के फोटो मोल लिया करते हैं, महफिलों में अहाँ -हा, वाह किया करते हैं, गलियों में ठट्ठा मारते और सिगरेट का धुआँ उड़ाते चलते हैं। ऐसे नवयुवकों से बढ़कर शून्य, निःसार और शोचनीय जीवन और किसका है ?

वे अच्छी बातों से कोसों दूर हैं। उनके लिए न तो संसार में सुन्दर और पवित्र उक्ति वाले कवि हुए, और न उत्तम चरित्र वाले महात्मा हुए हैं।

जिनकी आत्मा अपनी इन्द्रियों के विषयों-खान-पान, चटकीले वस्त्र, दिखावा, विलासप्रियता, श्रृंगार, झूठी शान, बचपन की रंग रेलियाँ, सिनेमा की अभिनेत्रियों के जीवन या सामाजिक विकारों में ही लगा रहता है और स्वार्थ, क्रोध, ईर्ष्या, मोह, दगाबाजी-बेईमानी के कलुषित विचारों में रमा हुआ है, ऐसी नशोन्मुख आत्माओं का अवलोकन कर कौन पश्चाताप न करेगा ?

ऐसी विनाशकारी वृत्ति का एक उदाहरण पं. रामचंद्र शुक्ल ने दिया है। आपने मकदूनिया के बादशाह डेमेट्रियस के विषय में लिखते हुए निर्देश किया है कि वह कभी-कभी राज्य का सब कार्य त्याग कर अपने ही मेल के दस-पाँच साथियों को लेकर विषय वासना में लिप्त रहा करता था। एक बार बीमारी का बहाना करके, वह इसी प्रकार अपने दिन काट रहा था। इसी बीच उसका पिता उससे मिलने के लिए गया। उसने एक हंसमुख जवान को कोठरी से बाहर निकलते हुए देखा। जब पिता कोठरी के बाहर निकला, तब डेमेट्रियस ने कहा - “ज्वर ने मुझे अभी छोड़ा है।” पिता ने उत्तर दिया, “हाँ! ठीक है, वह दरवाजे पर मुझे मिला था।”

कुसंग का ज्वर ऐसा ही भयानक होता है। एक बार युवक इसके पंजे में फंस कर मुक्त नहीं हो पाता। अतः प्रत्येक युवक को अपने मित्रों, स्थानों, दिलचस्पियों, पुस्तकों इत्यादि का चुनाव बड़ी सतर्कता से करना चाहिए।

इसके विपरीत सत्संग एक ऐसा आध्यात्मिक साधन है जिससे मनुष्य की सर्वतोमुखी उन्नति हो सकती है। संसार में एक से एक पवित्र आत्माएं पुस्तकों के रूप में आपके साथ रह सकती हैं। उनके विचारों की विद्युत आपके चारों ओर रह कर सब प्रकार की गंदगी को, अशुभ विचारों को दूर भगाती है। उत्तम पुस्तकों को घर में रखने, उनका अध्ययन, मनन तथा सहवास करने से मनुष्य सबसे बुद्धिमान आत्माओं के सहवास में हो सकता है।

इसके अतिरिक्त विद्वान, साहित्य सेवियों, दर्शन शास्त्रियों, सम्पादकों, सन्तों के संपर्क में रह कर भी आध्यात्मिक जीवन व्यतीत किया जा सकता है।


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