दाम्पत्य जीवन को सुखी बनाने वाले स्वर्ण सूत्र

January 1951

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वैवाहिक जीवन में आर्थिक और सामाजिक कारण अवश्य होते हैं। किन्तु प्रधान कारण मनोवैज्ञानिक होते हैं। पति-पत्नी में अनेक अज्ञात भावनाएं प्रसुप्त इच्छाएं पुराने संस्कार, कल्पनाएं होती हैं। जो अप्रकट रूप से प्रकाशित हो जाती है। प्रायः दो प्रेमी प्रसन्नता से वैवाहिक सूत्र में आबद्ध होते हुए देखे गए हैं। किन्तु विवाह के कुछ काल पश्चात उनका पारस्परिक आकर्षण न्यून होता देखा जाता है। बाद में तो वे परस्पर घृणा तक करने लगते हैं। इस घृणा के कारण प्रायः आन्तरिक होते हैं। इसका प्रधान कारण मनुष्य की उभयलिंगता है। जिसका अभिप्राय यह है कि हर एक पुरुष में स्त्रीत्व का अंश विद्यमान है तथा हर स्त्री में पुरुषत्व का। बड़े होने पर किन तत्वों की प्रधानता हो जायेगी। इस मनोवैज्ञानिक आधार पर स्त्री-पुरुष का मेल निर्भर है।

यदि संयोगवश ऐसे दो प्राणी वैवाहिक सूत्र में आबद्ध हो गये हैं, जिनमें एक ही लिंग की प्रधानता है-जैसे स्त्री में पुरुषत्व और पुरुष में भी पुरुषत्व के गुण बढ़े हुए हैं अथवा स्त्री में तो स्त्रीत्व है ही, उसके पति में भी स्त्री-तत्व की प्रधानता है, तो वैवाहिक जोड़े में साम्य, सुख, समृद्धि और आन्तरिक संतुलन उचित न रहेगा।

वास्तव में दाम्पत्य जीवन का वास्तविक सुख तभी प्राप्त हो सकता है जब स्त्री में स्त्रीत्व के गुणों का, तथा पुरुषों में पुरुषोचित गुणों का स्वाभाविक और अबोध विकास हो। इसका अभिप्राय यह नहीं कि उनमें विपरीत गुण बिलकुल ही न हों। इसका आशय केवल इतना ही है कि पुरुष में पुरुषत्व की प्रधानता हो, और स्त्री में स्त्रीत्व की प्रधानता हो। पुरुष में स्त्रीत्व के गुण केवल गौण रूप से, और स्त्री में पुरुषत्व के गुण गौण रूप से रह सकते हैं।

पुरुषत्व के गुण-

पुरुष का प्रधान गुण है पौरुष (अर्थात् शक्ति, साहस, निर्भयता, सक्रियता) है। उनमें 1. शरीर बल 2. मानसिक बल 3. चरित्र बल 4-संकल्प बल की प्रधानता है। पुरुष का निर्माण सतत युद्ध करने वाला, कठोरता, दृढ़ता और पाशविक शक्ति से पूर्ण जीव की भाँति हुआ है। पुरुष अहंकारी, क्रोधी, तामसी, मदोन्मत्त, प्रेमोन्मत है। उसे शक्ति का अवतार कहना युक्ति संगत होगा। आदि प्रकृति का बर्बर जंगली पुरुष आज भी उसमें जाग रहा है। पुरुष स्वभाव से ही उपार्जनच्छ और रमणशील है। पुरुष कर्त्ता, अहंवादी, व्यक्तिवादी, स्वनिष्ट, आत्मप्राधान्य-स्थापक और स्वार्थ पर है। वह अपने अंदर एक शक्ति का अनुभव करता है और उसी से प्रेरित होकर शीघ्रता और आतुरता में काम करता है।

स्त्रीत्व के गुण -

स्त्री कोमलता, मृदुता, सौम्यता एवं सहानुभूति की खान है। उसमें भावनाओं की प्रचुरता है, दयालुता, स्नेह, सौकुमार्य, विवेक है। उसका भाव्यक्ष पुरुष की अपेक्षा विशेष उन्नत एवं परिपक्व है। वह गंभीरता से सोचती है, उसके दृष्टिकोण में विशालता है, उसकी अंतर्दृष्टि अत्यन्त व्यापक है। स्त्री स्वभाव और शरीर से कोमल है।

स्त्री और पुरुष को अपने अंदर ही सीमित रहने में सुख का अनुभव नहीं होता, वरन् वे विपरीत सेक्स वाले प्राणी के सहवास में रहकर पूर्णत्व की प्राप्ति के लिए इच्छुक होते हैं। एक दूसरे के प्रत्येक कार्य में सहायता करते हैं और अतृप्त कामनाओं को पूर्ण करते हैं। पुरुष जब पवित्र त्यागमयी भावनाओं से अपनी पत्नी को अपने समान सीमित कर उच्च आध्यात्मिक भूमि पर लाता है, तो उसे उसके पौरुष में विश्वास होता है। इसी प्रकार स्त्री सहायक, मित्र विपत्तियों में धैर्य प्रदान करने वाली, सहनशीलता बन कर पुरुष को समुन्नत करती है।

सुखी, सन्तुष्ट, पवित्र भावनाओं वाले, संयमशील और शिक्षित पति-पत्नी के बच्चे प्रारंभ से ही उच्च संस्कार लेकर जन्मते हैं और पूर्ण गृहस्थ फलता-फूलता है। पति-पत्नी की हिंसात्मक क्रियाओं का स्थान रचनात्मक प्रवृत्तियाँ ले लेती है। मनोविश्लेषण की दृष्टि से बाँझ स्त्री तथा वह पुरुष जिसके बच्चे न हों, भयानक विषैली भावना ग्रन्थियों से ग्रसित रहते हैं, हिंसात्मक घृणास्पद और बेरहमी के कार्य करते हैं। इस दृष्टि से स्त्री के जितनी बार बच्चे होंगे, वह उतनी बार अधिक विनम्र, सहिष्णु, संयमित, विनयशील बनती जायेगी। उसे बहुत मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त होगा। उसकी विवृत्तियों और वासनाओं का परिष्कार हो सकेगा। जब स्त्री पुरुष को अपनी उच्चता, पवित्र आध्यात्मिक गुप्त शक्तियों में विश्वास होने लगता है, तब उनकी दबी हुई प्रवृत्तियों का सम्मान रचनात्मक कार्यों की ओर अधिक हो जाता है। घृणा, क्रोध, ईर्ष्या, स्वार्थ नष्ट हो जाते हैं। विवाहित स्त्रियाँ कुँवारियों से अधिक जीती हैं।

गृहस्थ जीवन को सुखी बनाने के स्वर्ण सूत्र -

डेलकार्नेगी ने दाम्पत्य मनोविज्ञान का गूढ़ अध्ययन कर जो निष्कर्ष निकाले हैं, उन्होंने आज पाश्चात्य देशों में क्राँति उत्पन्न कर दी है। इसमें स्त्री-पुरुष के मन के अपेक्षा गुप्त भेदों का ज्ञान भरा पड़ा है। परिवारों के लाभार्थ हम उन्हें यहाँ उन्हीं की पुस्तक से उद्धृत करते हैं।

1. पतियों को तंग मत करो-

यह नियम स्त्रियों के लिए है, जो समय कुसमय अपने पति से उसकी आर्थिक स्थिति को ध्यान में न रख भाँति-भाँति की फरमाइश करती हैं। जीभ पर अधिकार न होना, प्रलोभन, सिनेमा देखना, आभूषण अच्छे वस्त्रों की जिद से पति परेशान हो उठता है। विचार तथा स्वभाव के मतभेद होते हैं, फिर बढ़कर पारिवारिक जीवन को नष्ट करते हैं।

2. समालोचन मत करो।

पति या पत्नी जब एक दूसरे की कमजोरियाँ, खराबियाँ, मूर्खताएं छाँटने लगती हैं, तो फिर प्रेम-डोर टूट जाती है। प्रेम की उच्च भूमिका में आपको एक दूसरे के दुर्गुणों, कमजोरियों को भी सहन करना है। यदि शीघ्र ही एक दूसरों की त्रुटियों पर एकाग्र रहे, तो एकाग्रता के नियमों के अनुसार उन्हीं की अभिवृद्धि होगी।

3. निष्कपट भाव से प्रशंसा करो।

अपने जीवन-साथी को उत्साहित करना, ऊंचा उठाना, शिक्षित सुसंस्कृत, सभ्य नागरिक बनाना आपका कर्त्तव्य होना चाहिए। प्रत्येक अच्छाई की प्रशंसा कीजिए और दिल खोलकर कीजिए। प्रशंसा से उनके और भी गुण अच्छा स्वभाव विकसित हो सकेगा। मित्रभाव, सहनशीलता, संगठन, सहयोग बढ़ेगा। अधिकाँश पत्नियाँ अच्छी ही होती हैं, पर पति के उत्साहित न करने से, उनका विकास रुक जाता है। झिड़कने, मारने-कूटने, अशिष्ट व्यवहार करने व निर्दयता का व्यवहार करने से पत्नी का हृदय टूक-टूक हो जाता है। गुप्त विश्वास टूटते है। तलाक की नौबत आती है। अतः पति को सदा सर्वदा पत्नी के उच्च गुणों के सजेशन ही देने चाहिए। निष्कपट भाव से उसके प्रत्येक कार्य घर की सजावट, रसोई, पहनाव, श्रृंगार, शिशुपालन आर्थिक सहयोग की प्रशंसा करो।

4. छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखो

गृहस्थी छोटी-छोटी बातों से टूटती भी बनती भी है। स्त्रियाँ पति को साफ-सुथरा देखना पसंद करती हैं, अपनी बाबत अच्छे विचार पर पुनः सुनना चाहती हैं, अपने कपड़ों, घरेलू व्यवस्था, भोजन की प्रशंसा सुनना चाहती हैं यदि आप उनके लिए हुए कार्य में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते, तो वह क्यों अच्छी बनेंगी।

कुछ व्यक्ति रुपया पैसा अपने हाथ में रखते हैं और पत्नी को दो-दो चार-चार आने मांगने पड़ते हैं। उसके ‘अहं’ और गर्व को धक्का सा लगता है। अपने अंदर वह हीनत्व की भावना का अनुभव करती है और पति को प्रेम ना करती। अतः पत्नी के पास यथेष्ट पैसा, छोड़ना चाहिए। उसकी उचित और नैतिक माँगों व पूर्ति में आलस्य करना घर में झगड़े का वृक्ष धोना है।

जो युवक-युवती एक दूसरे पर अंधाधुँध आसक्त होकर विवाह करते हैं वे एक दूसरे के सुख और आनन्द पाने की बड़ी आशाएं लेकर आते हैं। यदि दोनों एक दूसरे की छोटी-छोटी बातों का ध्यान न रखें तो शीघ्र ही दाम्पत्य जीवन कंटकाकीर्ण हो जाता है। एक दूसरे का मन रखने के लिए पर्याप्त समझ, अध्यत सम साहस और कड़े परिश्रम की आवश्यकता है।

पत्नी से कुछ भी मत छिपाइये अन्यथा वह शक-शुबा करेगी और गुप्त मानसिक व्यथा से दग्ध होती रहेगी। उसे यह बतला दीजिए कि आप क्या कमाते हैं? कैसे व्यय करते हैं? कितना बीमा करा रखा है? किसके नाम वसीयत है? आय-व्यय कैसे चलता है? भविष्य में आपकी क्या-क्या योजनाएं हैं ? कितना रुपया आपने एकत्रित किया है ? इत्यादि-इत्यादि।

पति को निरन्तर कोमलता और निरन्तर पत्नी की देख-रेख द्वारा उसके प्रति अपने प्रेम का प्रकाश करते रहना चाहिए। अन्यथा प्यार की भूखी स्त्री जहाँ भी उसे प्रेम मिलेगा, वहीं से ले लेगी। विवाह के पश्चात जब तक जीवित रहें, प्रेम-दान करते रहना चाहिए। शिष्टाचार की छोटी मोटी बातों को, इज्जत और नये-नये उपहार लाने की बात भूल नहीं जाना चाहिए। क्योंकि स्त्रियाँ इस बात को बहुत महत्व देती हैं। स्त्री प्रेम, प्रणय और प्यार के अभाव में साधारण सुख का जीवन भी व्यतीत नहीं कर सकती। प्रेम उसकी आत्मा का भोजन है।

5-सुशील बनो।

आप ऐसे चुम्बक बनने चाहिए जिससे आकर्षित होकर स्त्री अथवा पुरुष आपसे कुछ आध्यात्मिक प्रेरणा, उत्साह, शिक्षा पथप्रदर्शन प्राप्त कर सके। प्रसन्नता, सौम्यता और सुशीलता से आप घर भर में रस संचार कर सकते हैं। ऐसा पति किस अर्थ का जिसके घर में प्रवेश करते ही सब डर जायें, बच्चे दुबक जायें, खामोशी और मुर्दनी छा जाये ? सुशीलता से आप अपनी पत्नी की इच्छाएं समझ सकेंगे। उसकी अनुचित फरमाइशें को तर्क और बुद्धि द्वारा धीरे-धीरे दूर कर सकेंगे। क्रोध, मार-पीट, द्वेष या तलाक द्वारा आप कदापि कुछ न कर सकेंगे। समानता, निष्कपटता, शिष्टता का व्यवहार ही आगे बदलता है।

6-कामशास्त्र की वैज्ञानिक पुस्तक पढ़ो

मनुष्य के काम-जीवन का क्या तात्पर्य है? उसकी निगूढ़तम गुत्थियों का अध्ययन प्रत्येक स्त्री पुरुष के लिए अतीव उपयोगी है। सस्ती बाजार की अश्लील पुस्तकों से सावधान! यह मार्ग बड़े उत्तरदायित्व और आर्थिक परीक्षा का है। अतः इसकी पुस्तकों का चुनाव विवेकपूर्ण ढंग से होना चाहिए।

दाम्पत्य कलह का एक कारण दम्पत्ति का, विशेषकर पुरुष का काम विज्ञान से अनभिज्ञ होना है। पुरुष स्वभाव से ही ढीठ और स्त्री शीलवती है। इसके अतिरिक्त वह केवल पतित्व की वेदी पर ही अपने को निछावर करने में आनन्द मानती है, वह पतित्व के साथ ही दाम्पत्य प्रेम भी चाहती है। जो पुरुष प्रथम संभोग में ही स्त्री को अपनी कामना का शिकार बनाने की बर्बरता करता है, वह भयंकर भूल करके दाम्पत्य कलह का बीज बोता है। विषय मानसिक विकार एवं शरीर का मल पदार्थ है। किन्तु पवित्र दाम्पत्य प्रेम तो हृदय की उच्चतम अभिव्यक्ति है। हृदय के आदान प्रदान में पर्याप्त समय लगता है। हृदय ही स्त्री की सम्पत्ति है। वह सहज ही पुरुष को नहीं देती और एक बार देकर फिर वापिस नहीं लेना चाहती। अतः कामविज्ञान के शिक्षण से मनुष्य नारी हृदय की निगूढ़तम गहराइयों की शिक्षा पाकर बर्बरता, निष्ठुरता, बलात्कार से बच सकता है।

उपरोक्त नियमों के पालन से बहुत लाभ हो सकता है। स्मरण रखिए गृहस्थाश्रम पति और पत्नी की साधना का आश्रय है। वहाँ जीवन की धर्म, अर्थ और काम की साधना की जाती है। पति-पत्नी दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, सहायक हैं, मित्र हैं। दोनों का कार्य एक दूसरे के गुणों की अभिवृद्धि करना है, क्षुद्रताओं का उन्मूलन करना है और परस्पर एक अभिन्नता बनाये रखना है। इसके लिए प्रत्येक को संयम, सहनशीलता एवं स्वार्थ त्याग अपने अंदर विकसित करना चाहिए।

पति का नाम “भर्त्ता” अर्थात् भरण और पोषण करने वाला है। पत्नी में उसकी शारीरिक, मानसिक, साँस्कृतिक, सामाजिक जो विभूतियाँ या न्यूनताएं हैं, उनकी पूर्ति का उत्तरदायित्व भी उसी के ऊपर है। उसकी शक्तियों का विकास करें, पोषण करे, कुत्सित मार्ग से बचावे तथा सदा सर्वदा सन्तुष्ट रखें।

पत्नी साधिका है। जिस प्रकार एक साधक अपने प्रभु की साधना में अपना सर्वस्व समर्पण कर देता है, उसी प्रकार अपने मन में द्वेष की भावना न रखकर पति को अपना आराध्य मानकर अपना भला और बुरा सब कुछ सौंप दे। यदि पति कुमार्गगामी हो, तो प्रेम प्रशंसा और युक्ति द्वारा उसका परिष्कार करे। कुमर्गढायन एक मानसिक रोग है। अशिक्षा, अंधकार और मूढ़ता की निशानी है। इस रोग के उपचार के लिए समझाने, तर्क, बुद्धि तथा स्वास्थ्य की दृष्टि से कुमार्ग की हीनता प्रदर्शित करने की आवश्यकता है। निराश होने के स्थान पर समझाने से अधिक लाभ हो सकता है।

पितृ ऋण के उद्धार का एक मात्र साधन दाम्पत्य जीवन की शाँति है। संतान का उत्पादन और सुशिक्षण योग्य दम्पत्ति के बिना कदापि संभव नहीं है। योग्य माता-पिता, उचित वातावरण, घरेलू संस्कार पुस्तकों तथा सत्संग द्वारा योग्य संतान उत्पन्न होती है। योग्य संतान के इच्छुकों को सर्वप्रथम स्वयं अपना परिष्कार एवं सुधार करना चाहिए।

दाम्पत्य जीवन का उद्देश्य “भोग“ नहीं, उन्नति है। सब प्रकार की उन्नति के लिए दाम्पत्य जीवन आपको अवसर प्रदान करता है। यहाँ पहिले शरीर, फिर सामाजिक जीवन, व्यक्तिगत जीवन और आध्यात्मिक जीवन की उन्नति के साधनों को एकत्रित करना चाहिए। उन साधनों को अपनाना चाहिए जिससे परस्पर का द्वेष नष्ट हो और आत्मरति एवं आत्म प्राप्ति की ओर दोनों जीवन-साथी विकासमान हों। जब दोनों एक दूसरे की उन्नति में सहयोग प्रदान करेंगे तो निश्चय ही अभूतपूर्व गति उत्पन्न होगी।

भोग का शमन योग से नहीं होता, भोगने से वासनाएं द्विगुणित होती हैं और अपने चंगुल से मनुष्य की मुक्ति नहीं होने देतीं। एक के पश्चात दूसरा प्रलोभन मनुष्य को आकर्षित करता है। अतः जितने से शरीर, मन, आत्मा की उन्नति हो, उतने से ही संपर्क करना चाहिए। जीवन में फैशनपरस्ती, अभक्ष पदार्थों का उपयोग, नशीली वस्तुओं, रुपया उधार देना या लेना, व्यर्थ के दिखावे बढ़ाने से मनुष्य उनका गुलाम बन जाता है। इनमें व्यवधान उपस्थित होने से कलह बढ़ता है।

स्त्री-पुरुष का दाम्पत्य सम्बन्ध आत्म-पक्ष के लिए है। यज्ञ में ईश्वरीय शक्तियों का विकास, आत्म भाव का विस्तार, उच्च ग्रन्थों द्वारा मानव जीवन को परिपुष्ट करने के लिए दाम्पत्य जीवन का निर्माण किया है। इसलिए स्त्री-पुरुष को विषय वासना का गुलाम नहीं बनना चाहिए। भोग से जितनी दूर रहा जाये, उतना ही उत्तम है।


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