बालकों के विकास सम्बन्धी समस्याएँ

January 1951

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बाल-मानस की पृष्ठ भूमि :-

यों तो एक वर्ष के बच्चों में बुद्धि का विकास मनोवेगों के प्रदर्शन द्वारा स्पष्ट होने लगता है पर दो-ढाई वर्ष का होने पर बालक में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। परिवार के मुखिया को चाहिए कि बच्चे की परिपक्व होती हुई मानसिक शक्तियों के विकास में सहायता प्रदान करे। तीन वर्ष तक गुप्त मन अपनी विशेष सेवाएं अर्पित करता है। अतः प्रारम्भिक काल में बच्चों को डांटने-डपटने, मारने-पीटने, अत्याचार करने या कठोर नियंत्रण में रखने से गुप्त मन में जटिल मानसिक ग्रन्थियाँ उत्पन्न होती जाती हैं। इस काल में प्यार, सहानुभूति तथा दुलार से ही उसमें उत्साह भरना चाहिएं तनिक सी वृद्धि या अच्छाई उत्पन्न होते ही प्रशंसा दिल खोलकर करना, बच्चों को छोटे-छोटे उपहार, चटकीले खिलौने, कुत्ते बिल्ली के बच्चे का अन्य सामान देना उत्तम है।

3 से 6 वर्ष में बालक का विकास -

बालक की 3 से 6 वर्ष की अवस्था में मन अपना कार्य प्रारंभ कर देता है। प्रारंभ में उसे जो मानसिक संवेदनाएं, विचार या अनुभव प्राप्त हुए हैं, वे अब स्पष्ट होने लगते हैं। बालक पर परिस्थिति की छाप तो नहीं लगती, वह परिस्थिति को समझने लगता है। उसका व्यक्तित्व स्थापित होने लगता है और वह स्वयं स्फुटित होने लगता है। उस काल में बालक हाथ पाँव से भिन्न-भिन्न प्रवृत्ति करना चाहता है और इसी के द्वारा ज्ञान ग्रहण करता है। पालने वालों की गरीबी, विषय शिक्षक का अभाव, अनुकूल व्यवस्था की कमी होने पर बच्चे का मानसिक विकास रुक जाता है।

मेडम पौटेसरी नामक विशेषज्ञा का कथन कि 3 से 6 वर्ष की आयु में बालक शिक्षा ग्रहण करने के लिए तैयार हो जाता है किन्तु शिक्षण व संस्कार बालक की स्वयं प्रवृत्ति पर ही सध सकते हैं अर्थात् उसके स्व-प्रयत्न पर निर्भर होता है कि उत्साह द्वारा उसे स्वयं प्रयत्न करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। साधन द्वारा वह संस्कार ग्रहण करने में समर्थ होता है। इसके अतिरिक्त बच्चा चरित्र के विकास के लिए भी योग्य बन जाता है, पर इस आयु में बालक अपने द्वारा ही विकास की बातों को ग्रहण कर सकता है। तत्व उस पर लादे नहीं जा सकते। चरित्र विकास के लिए परिवार के प्रत्येक सदस्य को बालक के सामने आदर्श रखना चाहिए। वह आदर्शों का अनुकरण करके सब सीखेगा। आज्ञा द्वारा भी नीति की कई बातें सीख सकता है। इस आयु में बालक अधिक से अधिक शब्द माँगता है। इन शब्दों के उच्चारण में उसे एक अजीब रस प्रतीत होता है। उसे नये-नये फलों, तरकारियों, व्यक्तियों के नाम भी देने चाहिए। घर की वस्तुओं, पोशाक, मोहल्ले, गाय, भैंस, बकरी इत्यादि में उसे विवेक प्रारंभ हो जाता है। 3 से 6 वर्ष आयु में प्रत्यक्ष वस्तुओं द्वारा नाम सिखायें जायें तो बालक उन्हें कठिन और लम्बे होने पर भी ग्रहण कर लेता है।

इस समय बालक की कल्पना शक्ति भी विकसित हो उठती है। अतः वे परियों, साँपों, जादू की कहानियों, अद्भुत वस्तुओं की बातचीत में विशेष रस लेते हैं। ज्यों-ज्यों आयु बढ़ती है, इसी कल्पना द्वारा बालक अपने ज्ञान की वृद्धि करता है। परिस्थिति से अनुभव लेकर उन पर कल्पना करता है। नवीन बातों की जानकारी के लिए उसकी जिज्ञासा जागृत होती है। वह माता-पिता तथा परिवार वालों से नाना प्रकार के प्रश्न करेगा। सावधान! ये प्रश्न दबा न दिये जायें वरन् कुछ न कुछ उत्तर अवश्य दिए जायें। उत्तर देने वालों को बालक की ग्रहण शक्ति का समुचित ध्यान रखना चाहिए। उत्तर देते समय तीन तत्वों की ओर विशेष ध्यान रखिये-

1. बाल समाज का ज्ञान ।

2. परिस्थिति की जानकारी।

3. विषय को सरल बनाकर समझाने की कला।

बालक में किसी प्रकार की शंकाएं न रह जायें, विरोध खड़ा न हो। बातें उलझी अध समझी हुई न रहें, प्रत्युत वह सन्तुष्ट हो जाये।

6 से 10 वर्ष तक का विकास-

बच्चे का विकास और होता है जब वह 6 से 10 वर्ष तक का हो जाता है। उस काल में वह पढ़ने लिखने में खूब दिलचस्पी लेता है। हमें चाहिए कि निम्न रीतियों से उसके विकास में सहायता प्रदान करें-

1. उत्तम पुस्तकें, जिनमें साहसिक कहानियाँ हों। ये पूर्ण पवित्र चरित्र का निर्माण करने वाली हों, 2-बच्चों द्वारा छोटे-छोटे एकाँकी नाटकों के अभिनय कराये जायें। पौराणिक या ऐतिहासिक घटनाओं को लेकर बच्चों के लिए अच्छे नाटक तैयार कराये जा सकते हैं। 3-वैराइटी शोः यह मंद बुद्धि के बच्चों के लिए बड़ी उत्तम शिक्षा का साधन है। इसके अस्त-कस्त गाने, अभिनव और हाव भावों का प्रदर्शन होता है, 4-संयम से खिलाए गए खेल इनके द्वारा बच्चे खेल खेल में आशा पालन, नियंत्रण इत्यादि सीखते हैं, 5-वाद्य यन्त्रों पर संगीत, भजन और कीर्तन इत्यादि। 6- बच्चों को बाहर सैर के लिए ले जाया जाये और उन्हें भाँति-भाँति के जीव, पक्षी, चिड़िए, कीड़े मकोड़े दिखाये जायें, 7-भिन्न-भिन्न देश के बालकों के वर्णन, 8-चित्रकारी के लिए अभिरुचि उत्पन्न की जाय। अच्छे अच्छे चित्र, खुदाई के काम, खिलौनों का बनाना, बालक की छिपी हुई वृत्तियों का विकास करेगा। बच्चों के शौकों का विकास करना चाहिए।

बच्चों के कुछ शौक इस प्रकार हैं - 1-टिकट एकत्रित करना, 2- बड़े आदमियों के हस्ताक्षर, चित्र, दियासलाई के लेविल, फोटोग्राफ, पत्तियाँ-पुष्प एकत्रित करना, 3-सुँदर मासिक पत्रों तथा पुस्तकों का संग्रह, 4-भाँति-भाँति के खेलों के साधन जुटाना, 5-तितलियाँ, कीड़े मकोड़े, बिल्ली कुत्ते के बच्चे, पंछी पालना, 6-देश-विदेश के बालकों से पत्र व्यवहार। यह सब ज्ञानवर्द्धन का बड़ा अच्छा साधन है। 7-स्थानीय पास-पड़ौस, अपने प्रदेश की सैर। सैर का महत्व है क्योंकि इससे भूगोल का ज्ञान बढ़ता है। स्वदेश की सैर करने से प्रान्तीयता की संकुचित भावना नष्ट होती है, राष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित होता है। ऐसे पर्यटन बालक के मन में विभिन्न प्राँतों के मध्य एकदेशीय साँस्कृतिक एकता के भाव दृढ़ करते हैं।

प्रौढ़ अवस्था में विकास-

बड़े होने पर बच्चों को एक मित्र की हैसियत से रखना चाहिए। चौदह वर्ष की आयु में बच्चे में एक बहुत बड़ा महत्वपूर्ण परिवर्तन होता है। कौमार्य समाप्त होकर यौवन का प्रवेश होता है और विपरीत लिंग के व्यक्तियों में भारी आकर्षण प्रतीत होने लगता है। माता-पिता को बड़ी सावधानी से इस आयु में बच्चे के मानसिक और शारीरिक परिवर्तन आने में सहायता करनी चाहिए। ब्रह्मचर्य की पुस्तकें, कामोत्तेजक स्थानों, दृश्यों, गंदी पुस्तकों से बचाना चाहिए। प्रेममय पथप्रदर्शन से बहुत काम निकल सकता है। तीव्र आलोचना या सीधा हस्तक्षेप शोचनीय होगा। यदि समलिंगी अथवा भिन्न लिंगी मित्रता अत्यधिक स्वत्व जताने वाली है तो ऐसा सम्बन्ध दुर्भाग्यपूर्ण है और परिवार के मुखिया को इसकी निगरानी करनी चाहिए। यदि ऐसे गर्हित सम्बन्ध की अविवेकशीलता समझा दी जाये, तो काम निकल सकता है। कामशिक्षा की आवश्यकता से कौन इंकार कर सकता है। पवित्र ढंग से किसी विश्वासपात्र व्यक्ति के द्वारा जवान बालक को शिक्षा मिलनी चाहिए।

परिवार वास्तविक रूप से घर होना चाहिए न कि होटल। जहाँ माता-पिता और युवा पुत्र-पुत्रियों में परस्पर मित्रता और सहानुभूति का सम्बन्ध हो वही प्रेममय स्थान घर कहा जाता है। ऐसे प्रेम और सरस वातावरण में बालक का संतुलित विकास होता है। माता-पिता अपने बच्चे के दोस्तों को भोजन, खेल और बातचीत के लिए घर बुलाये, तो श्रेष्ठ है। इससे बच्चे का घर में विश्वास बढ़ता है।

जहाँ तक हो सके बालकों को अपने इष्ट-मित्रों के चुनाव का अवसर प्रदान करना चाहिए उसमें थोड़े से पथ निर्देश से काम चल सकता है। स्मरण रखिये, यदि आप बालक के मित्रों की अवहेलना करेंगे, तो उसे अपना विरोधी ही बना लेंगे। उनके मित्र के साथ शिष्टता एवं कोमलता का व्यवहार हो। इसे आपका पुत्र-पुत्री पसंद करेंगे।

माता-पिता को सदा समय के अनुसार चलना चाहिए। आपका मुख्य ध्येय अनुशासन नहीं, डाट-फटकार जुर्माना नहीं, प्रत्युत प्रेम और सहानुभूतिपूर्ण मित्रता का सम्बन्ध होना चाहिए। आपका पुत्र भी मित्र सदृश्य ही है। एक सहानुभूति पूर्ण माता-पिता के समान कौन अच्छा मित्र हो सकता है।

सीधे हस्तक्षेप न कर, टेढ़े तरीकों से, अर्थात् ऐसे उपायों से उनकी गलतियाँ बतलानी चाहिए कि वे बुरा न मान बैठें। उनके ‘अहं’ की रक्षा, गर्व की रक्षा का ध्यान रखें। यदि वे बालक की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अपहरण न करें, तो माता-पिता तथा बालक के मध्य किसी प्रकार का संघर्ष उत्पन्न नहीं होगा।

मनोवैज्ञानिकों ने स्पष्टतः निर्देश किया है कि घर तथा परिवार के सदस्य ही बालक के जीवन के विकास के साधन हैं। अनुकरण परिस्थितियाँ आपके भले बुरे निर्देश, सामाजिक स्थिति, सभी इसके चरित्र पर अपना-अपना प्रभाव डालने वाले हैं। बात यह है कि व्यक्ति की शक्तियों, योग्यताओं, भावनाओं और प्रकृतियों का विकास एक प्रकार का संपूर्ण वातावरण स्थायित्व सुरक्षा तथा शक्ति माँगता है। यह सब आपके परिवार में जितनी सच्चाई और पूर्णता से मिल जाता है उतना अन्यत्र दुर्लभ है। बालक के विकास के लिए हमें सुखद, प्रेममय, प्रमोद कारी वातावरण प्रस्तुत करना चाहिए।


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