मैं तुम्हें कैसे रिझाऊं!
देव ! तमसाच्छन्न मन में मैं तुम्हें कैसे बिठाऊँ !
पंक मय जीवन बनाया काम की आराधना में,
बन गया विक्षिप्त सा मैं तुच्छ धन की साधना में,
हाय! मैंने ही बुना यह जाल अपने बंधनों का,
पीप मैं डूबे करो से अंजली कैसे चढ़ाऊँ।
मैं तुम्हें कैसे रिझाऊँ!
हाय ! पापी लोचनों ने कब तुम्हारी ओर देखा।
हा! मिटी मानस-पटल से कब कपट की कुटिल रेखा।
काँप उठता देख अपने आप का लेखा अखिल मैं,
देव! कलुषित कण्ठ, कैसे वन्दना के गीन गाऊँ।
मैं तुम्हें कैसे रिझाऊँ।
छोड़ फूलों को जगत में शूल ही बोता रहा मैं,
मोह के उन्मादकारी अंक में सोता रहा मैं,
भ्रान्तिमय, आकाश-कुसमों का चयन करता रहा नित,
हो कृपा की ओर दो कण तब चरण रज देव ! पाऊँ।
मैं तुम्हें कैसे रिझाऊँ!
(श्री. महावीर प्रसाद विद्यार्थी, बी.ए. साहित्य रत्न)