अपनी वासनाएं काबू में रखिए।

April 1950

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किसी समय एक चोर ने न्यायाधीश के समक्ष अपनी चोरी की सफाई देते हुए इस भाँति कहा हुजूर मैंने चोरी तो अवश्य की है, परन्तु सच्चा अपराधी मैं नहीं हूँ। मेरे पड़ोसी ने अपना सोने का चमकदार कंठा दिखाकर मेरे मन को मोहित कर लिया और मुझे उसको चुरा लेने के लिए लाचार किया। अतएव सच्चा अपराधी वही है और सजा उसी को होनी चाहिए। अपराधी की ये बाते सुनकर जज साहब को उसकी युक्ति पर हँसी आ गई उन्होंने अपराधी को एकान्त वास की सजा देकर कहा कि अब तुम्हारा मन लुभाने के लिए तुम्हारे सामने कोई मनुष्य न आवेगा।

यदि सच पूछा जाये तो नैतिक संसार में मनुष्य प्रतिदिन इसी प्रकार की युक्तियों का उपयोग करता रहता है। अमुक मनुष्य मेरे कार्य में बाधा डालता है, अमुख ने मुझसे ऐसी बात कहीं जिससे मुझे क्रोध आ गया, चार आदमियों में बैठते हैं तो लाचार होकर ऐसा काम करना ही पड़ता है-, इत्यादि बातें अपने दोषों को दूसरों के सिर मढ़ने के प्रयत्न नहीं तो क्या हैं?

कितना अच्छा हो यदि मनुष्य कोई अपराध करने के साथ ही उसे स्वीकार करने में आना-कानी न करे। नैतिक उन्नति की सबसे पहली सीढ़ी यही है कि मनुष्य अपने अपराधों को समझने लगें। हजारों मनुष्य तो बुरे कार्यों को करते रहते और उन बेचारों को रंच मात्र भी खबर नहीं कि ये कार्य वास्तव में बुरे हैं। जिस समय चोर चोरी को सचमुच बुरा समझने लगे उसी समय से जान लो कि अब वह रास्ते पर आ रहा है। परन्तु केवल दिखाऊ मन की इच्छा से अथवा किसी की हाँ में हाँ मिलाने के अभिप्राय से बुरे कार्य बुरा कह देने से कोई नहीं । इससे तो उलटी हानि है। कुकार्य से घृणा होने की बात तो दूर रही, ऐसा करने से तो उसने अपने आपको ही ठगा कहना चाहिए। प्रवंचना अथवा मायाजाल इसी का नाम है परन्तु देखा जाता है कि लोक में मनुष्यों ने इसे ही सभ्यता और शिष्टाचार मान रखा है। ऐसे लौकिक व्यवहार की अवहेलना करने से समाज भले ही असंतुष्ट हो जाए, परन्तु उन्नति की इच्छा रखने वाले मनुष्य को इसमें आगा-पीछा न करना चाहिए।

अपने किये हुए अपराधों को दूसरों के सिर मढ़ते फिरने की कुटेव के कारण मनुष्य अपने ऐबों को नहीं देख सकता। जो कार्य उसने किया है उसका बुरा फल होने पर वह तुरन्त किसी दूसरे व्यक्ति को पकड़ने की कोशिश करने लगता है। अपने आलस्य द्वारा समय पर किये गये कार्यों की आलोचना होने पर वह अपने सिर का दोष दूसरों पर मढ़ देता है। यदि ऐसा करने के बदले वह अपने अपराध को मुक्त कंठ से स्वीकार कर ले तो संदेह नहीं कि वह दुबारा वैसा कार्य न करे।

अपने अपराध को स्वीकार करना यह उन्नति पथ के ऊपर मानों कई कदम आगे बढ़ना है। साधनों को दोष देते फिरना मूर्खता है। वास्तव में कैद का दंड देने वाला मजिस्ट्रेट नहीं है, तुम्हारे कुकार्य ही हैं। इसमें संदेह नहीं कि संसार में पाप-समृद्ध रूपी राक्षस नाना प्रकार के मनोहर रूप धारण कर मनुष्यों के चित्त को विकृत करने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु उन्हें अपने हृदय में स्थान देना या न देना तुम्हारे काबू में है। जिस प्रकार भूतों का भय दृढ़चित्त मनुष्यों के हृदय में फटकने भी नहीं पाता उसी प्रकार सच्चरित्र मनुष्यों के पास आने में पाप-वासनाओं को भी बड़ा डर लगता है। लालच उसी के लिए है जो लालची है। निर्लोभी व्यक्ति को वह अपने फंदे में कभी नहीं फँसा सकता । अतएव इन कुवासनाओं को धिक्कारना और दोष देना निरर्थक है। मनुष्य की दृष्टि को भी हित करने वाले पाप-समूह की संसार में क्या आवश्यकता थी। भोले-भाले शुद्ध-हृदय मनुष्य को ठगना और उसे चक्कर में फंसाना निदान उसकी निन्दा करना और उसे दंड-पात्र ठहराना यह तो दुष्टों का माया-पूर्ण षड्यंत्र जंचता है। वास्तव में विचार करने से मालूम होता है कि पदार्थों की परीक्षा करने के लिए बहुधा भय-पूर्ण स्थलों का उपयोग किया जाता है। सोने की परीक्षा करने के लिए काली कसौटी चाहनी पड़ती है। इसी भाँति मनुष्य के हृदय की परीक्षा करने के हेतु ही पाप-वासनायें संसार में विद्यमान है। देखो, जब तक तुम्हारे सामने कोई 500 रुपयों की थैली चुपचाप लाकर न रख दे तब तक तुम लोभी हो अथवा निर्लोभी, इसकी परीक्षा कैसे हो सकती है? यदि पाप न होते तो संसार में महात्मा और दुष्टों की पहचान कैसे होती। अतएव छल, अभिमान, माया, मोह इत्यादि कुवासनाओं से घेरे जाने पर अपने लिए असमर्थ मान कर उन्हें दोष का स्थान मानना मानो उन्नति के मार्ग से हटना है।

प्रत्येक व्यक्ति का अनुभव है कि वासनाओं की तपस्या कितनी कठिन है। पाप क्रोध के बुरे परिणामों के विषय में चाहे ग्रंथ के ग्रंथ लिख देने योग्य ज्ञान रखते हों, घंटों उस विषय पर व्याख्यान देकर लोगों को उनके आवेश के शमन करने की शिक्षा दे सकते हों, परन्तु जब सच्चे क्रोध का अवसर आ- उपस्थित होता है उस समय उसे संभाल लेना टेढ़ा काम है। इसीलिये किसी महात्मा का कथन है कि केवल ज्ञान के द्वारा आत्मोन्नति असंभव है। जानना और काम को कर दिखाना ये दो बातें हैं। काम-वासना को ही लीजिए पुराणों की तिलोत्तमा द्वारा ब्रह्माजी के तपो-भ्रष्ट होने की बात सभी को विदित है। पाँच हजार वर्ष तक दिव्य तप करने वाला योगी भी जिस काम-वासना को विजय न कर सका उसकी जलन का क्या ठिकाना है।

वासनाओं के अवगुणों और बुरे फलों की आलोचना करने के लिए यदि प्रतिदिन मनुष्य कोई विशेष समय नियत कर लेता उसकी नैतिक उन्नति बहुत शीघ्र हो सकती है। प्रत्येक धर्म में अपने दिन भर के कार्यों पर विचार करने के लिए सोने के पेश्तर समय निश्चित करने का उपदेश दिया गया है। उसका अभिप्राय यही है कि मनुष्य अपने नैतिक चरित्र की संभाल उसी भाँति कर लिया करे जैसे कि वह अपने दैनिक आय-व्यय किया करता है।


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