हे राम! हे राम!! हे राम!!!

April 1950

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री बालकृष्ण शर्मा, नवीन)

आज हम कहाँ हैं? से मेरा तात्पर्य है हमारा देश, हमारी राजनीति, हमारी सामाजिक मनोदशा, हमारा वैयक्तिक व्यवहार। यदि हम अपने भीतर और अपने बाहर दृष्टि डालें तो क्या हमें यह देखकर चिन्ता न होगी कि हमें जहाँ होना चाहिये, वहाँ हम नहीं हैं? स्वतन्त्रता के पश्चात् जैसे हमारे तुरंग की लगाम ढीली हो गई है, जैसे वह, ऊंचे, गगनचुम्बी शिखर की ओर, चढ़ते सहसा मुड़कर पतन की खाई की ओर दौड़ लगाने लगा है। और, लगाम कौन थामे बाट! तनोन्मुख राष्ट्रजीवन तुरंगम को उत्थानोन्मुख कौन करे गुरु बिन कौन बाट गुरु तो चला गया। आज भी चले जाइये देखिये उसकी समाधि पर हे राम अंकित है। उसके अन्तिम शब्द । यह उसका सन्देश है। इस भारत राष्ट्र की आत्मा की ..की यह संचित पुकार - हे राम। दशरथ ने शबरी ने विरहनि-दीक्षिता माता सती सीता ने, भारत की आत्मा ने, प्रयासोन्मुख गाँधी ने पुकारा- हे राम! क्या हमने यह पुकार सुनी? और यदि सुनी तो हम क्या समझे?

घोड़ा पतन की खाई की ओर दौड़ा जा रहा है। गाँधी सन्देश दे गया हे राम! हम क्या समझे कदाचित कुछ न समझे। पर समझना है। गाँधी की पुकार को समझना है। और स्मरण रहे देश के प्रत्येक जन को, समाज के प्रत्येक अंग को, पूँजीपति को, श्रमजीवी को, कृषक को, उन्मूलितप्राय जमींदार को, समाज सेवक राजनीतिज्ञ को, सबको गाँधी का यह सन्देश हृदयंगम करना है। ‘राम’ कौन राम? क्या दशरथी राम? हाँ दशरथ-नन्दन, दैत्य- निकन्दन राम भी और साथ ही वह राम जिसे शताब्दियों के भारतीय चिन्तन मन्थन ने सत्य शिव एवं अद्वैत के नवनीत प्रतीक के रूप विश्व को प्रदान किया है। दशरथी महामानव राम को हमें अपने जीवन में अवतीर्ण करना है हमारे जीवन व्यवहार का आदर्श वह निस्पृह। दशरथ-सुवन क्यों न बने, जिसने कर्तव्य सम्मुख राज का परित्याग कर दिया? और हमारे जीवन का तत्वज्ञान उस राम के रस अभिषिक्त क्यों न हो, जिसके स्मरण मात्र पदार्थवाद के मिथ्याज्ञान आडम्बर का सिरोधारण हो जाता है? समझ लीजिये मुख्य रूप में ये ही समस्याएं हमारे सम्मुख हैं।

(1) वैयक्तिक आचार का ह्रास एवं

(2) चारों ओर से भयंकर पदार्थवादी मिथ्य तत्वज्ञान का आक्रमण।

हम जनसेवक आज अंतर्दर्शन क्यों न करे । यदि हमारी वृत्तियाँ आज अन्तर्मुखी न हुई यदि आज हम अपने आप को समझने में समर्थ न हुए तो समझ लीजिये हम उस महान् संगठन के अधः पतन का कारण बन जायेंगे जिसकी नींव में गाँधी का यज्ञमय प्रस्वेद है और जिसका द्वार देहली पर गाँधी का पुनीत रक्त इसलिये वहाँ कि कोई संगठन मन्दिर की पवित्रता नष्ट न करे। गाँधी जाते-जाते सन्देश दे गया कि भारतीयों सर्व भविन एक बार पुकार उठो- हे राम! मर्यादा पुरुषोत्तम के उपासक, क्या आज लौकिक मर्यादा का पालन कर रहे हैं? जीवन में समय का अभाव है, महत्वाकाँक्षा, इन्द्र पद को भी निगल जाने के लिए मुख फैलाए हुए हृदय स्थली में धमाचौकड़ी मचा रही है। द्वेष, हिंसा, मिथ्याचार, जीवन के सहकारी हैं। क्या इन्हीं गुणों से हम इस हत-भाग्य देश को उन्नत करेंगे? कैसा उन्नत देश जब कि उसके हम निवासी अपने हृदय की नारकीयता के मलमय कुण्ड में घृणित एवं घृण्य कीटाणुओं के साथ किलबिलाते रहे? मैं- पंक्तियों को लिपिबद्ध करने वाला, मैं भी उतना ही अपराधी हूँ जितने अन्य जन। अतः कोई भी संगी यह न समझे कि मैं उच्चता के निर्मल सिंहासन पर आसीन होकर यह बात कह रहा हूँ। हम सब अपराधी हैं। हम सब पतनोन्मुख हैं। हम सबको आज राम का, गाँधी का आह्वान करना है। हमें बुलाना है उस राम को जिसके विषय में आदि कवि की अमर वाणी मुखरित होकर कृत-कृत्य हुई थी कि- समुद्र एव गाँभीर्यें स्थैयेच हिमवानिव, वह राम गम्भीरता में समुद्र के समान हैं और स्थिरता में, धीरता में हिमाचल के सदृश हैं ! इस प्रकार आदि कवि ने अनुष्टु छन्द के अर्ध श्लोक में समग्र भारत वर्ष की एकता को, दक्षिण के हिन्द महासागर की गम्भीरता के साथ उत्तरस्थ अटल हिमाचल की शाश्वत स्थिरता, को बाँध दिया है। यह है गाँधी का सन्देश । यह है दाशरथी राम स्वरूप। भारत एक है । उत्तर-दक्षिण एक है, अन्योन्याश्रित हैं। और वह इकाई किस भित्ति पर आधारित है? उसका आधार क्या है छल, बल, लोभ, द्वेष, ईर्ष्या प्रमाद, महत्वाकाँक्षी वैयक्तिक आवारहीनता, नहीं। उस एक देशीयता का आधार है राम की सी यह गम्भीरता जिसके चरण- प्रक्षालन के लिए महासागर व्याकुल है और राम की सी वह स्थिरता, वह धीरता, जिसके पुण्य दर्शन के लिए हिमालय भी, गौरीशंकर शिखर के रूप में, उन्नीत-ग्रीव होकर, और ऊंचे को अपलक निहार रहा है। क्या हम में इस सन्देश को सुनने की क्षमता नहीं रही?

मैं ऐसा नहीं मानता । हम में इसके सुनने की क्षमता है। राम को जीवन में उतारने की प्रेरणा का जो अभाव आज अगोचर हो रहा है, उसका कारण केवल मात्र एक क्षणिक मलावरण है। जिन प्यारों ने गत अठारह, बीस, पच्चीस, अट्ठाइस वर्ष त्याग कष्ट-सदन एवं सेवा-परायणता में बिताए, वे आज भी उसी प्रकार धूनी रमाने को तत्पर हो सकते हैं। निःसन्देह मान व तितिक्षा की, मानव सहनशीलता की, विपदाओं एवं विपन्न अवस्था से जूझते रहने की एक सीमा है। पर दाशरथी राम निःसीम थे। कामचन्द सुत मोहनदास निःसीम थे। हमें भी आज निःसीमता की ओर चरण निक्षेप करना ही पड़ेगा। गत्याँतर नहीं।

हारी, थकी अस्थियाँ लेकर करते जाओ कूच, सखे।

पथ जैसा है, वैसा ही है, निरखो नीच न ऊंच, सखे॥

हाँ बहुत दिन हो गए। जब चले थे, तब से अब तक इतने वर्ष बीत गए। त्याग ही त्याग में तो जीवन बीता। अब क्यों थोड़ा भोग का स्वाद चखा जाये? पर, भाई, यह कैसे सम्भव है?

जब चले थे तब सम्मुख क्या ध्येय था? केवल स्वराज्य-प्राप्ति ही क्या ध्येय था? नहीं क्या हमने सहस्रों बार नहीं कहा कि स्वराज्य तो एक साधन मात्र है? क्या हम यह नहीं कहते रहे कि इस साधन को प्राप्त करके हम इस देश में एक नयी समाज, एक नई आर्थिक व्यवस्था रचेंगे? क्या हम यह स्वप्न नहीं देखते रहे कि हम अपनी इस पुण्यभूमि में ऐसे मंगलमय विचार बीजों का रोपण करेंगे जिनसे अभिनव मानवता पुष्पित एवं फलित होगी? आज, यही काम, हमारे सम्मुख है। तय? हमारा क्या कर्तव्य है? क्या यह कि हम भोग-भावना की ओर, लाभ लोभ की ओर, लालच भरी दृष्टि डालें? क्या यह कि हम नैतिक भावना को तिलाँजलि देकर कुत्सा, निन्दा और ईर्ष्या का वरण करें? क्या यह कि हम अपने ही संगियों को, अपनी महत्वाकाँक्षा की पूर्ति के लिए धक्का, दे दें? क्या यह कि हम अपने संगठन का नाम लेकर उल्टी सीधी प्रत्येक रीति से अपना हित साधन करने लग जायें? काँग्रेस जन एक दूसरे को आज फूटी आँखों नहीं सुहाते। क्यों? क्या इसलिए कि उनके बीच कोई सैद्धान्तिक विचार भेद हैं? नहीं तो। इस द्वेष का कारण केवल व्यक्तिगत दलबन्दी एवं विरुद्ध पक्षपात का भाव है अमुक ऐसा है ही अतः उसे हम खोदकर बड़ा देंगे- यह भावना काम कर रही है। और यों सोचने वाले भले मानुस यह भूल जाते हैं कि यदि वे इस प्रकार की विद्वेष-प्रेरणा को प्रश्रय देते रहे तो वह दिन दूर नहीं है, जब वे स्वयं खोदकर बड़ा दिये जायेंगे। किसके द्वारा? उस एक भयंकर एवं प्रचंड शक्ति के द्वारा जो आज भारतवर्ष को चतुर्दिक् से -पूर्व से, उत्तर से , दक्षिण-पूर्व से, उत्तर-पश्चिम से -घेर कर उस पर राजनैतिक, साँस्कृतिक एवं सैद्धाँतिक आक्रमण करने का निश्चय कर चुकी है। और एक हम अन्धे है जो इस प्रत्यक्ष बात को भी देखने में असमर्थ हो रहे हैं।

मैं कहता हूँ, भाई, यदि नैतिक आचरण सद्व्यवहार को, दया, दाक्षिण्य, पारस्परिक स्नेह एवं सौहार्द को, आप आध्यात्मिक अर्थ मानव को ऊंचा उठाने वाला, गुण नहीं मान तो भी, राम के नाम पर, इतना तो मानिये कि आज की परिस्थिति में जब तक आप हम नैतिक का आश्रय नहीं लेंगे तब तक हम अपने नैतिक अस्तित्व की भी रक्षा नहीं कर सकेंगे? काँग्रेसजन समझ लें कि जहाँ हमारी एक संगठनात्मक दृढ़ता स्थापित करने का समाधान हमारे वैयक्तिक आचरण ही में निहित है, वहीं हमारी बड़ी समस्या मिथ्या पदार्थवादी सिद्धान्त के आक्रमण समस्या का समाधान भी भारतीय सांस्कृतिक अध्यात्मवाद की प्राण प्रतिष्ठा में निहित है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: