आध्यात्मिक साधना के त्रिदोष।

April 1950

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(श्री॰ अगरचन्द नाहटा, बीकानेर)

प्रत्येक प्राणी उन्नति की ओर अग्रसर होना चाहता है, पर जहाँ तक बाधक कारणों का सम्यक् परिज्ञान न हो एवं उनको दूर न किया जाये, उन्नति असंभव है। आध्यात्मिक उन्नति के लिए भी उसके बाधक कारणों को जानना परमावश्यक होता है। लेख में वैसे तीन दोषों पर संक्षेप में प्रकाश डाला जा रहा है। 1.ममत्व, 2.कपट और 3.अवगुणग्राही दृष्टि। जहाँ तक ये दोष रहेंगे, वहाँ तक साधना अग्रसर एवं फलवती नहीं होगी।

1.ममत्व- जहाँ तक साँसारिक पदार्थों में आत्मा की आशक्ति रहेगी, आत्मा का लक्ष्य बहिर्मुखी रहने के कारण आत्मानुभव का मार्ग बन्द ही रहेगा। इसलिए सारे भौतिक पदार्थों भाषों से अपनी आत्मा को अलग, भिन्न, समस्त कर उनके आकर्षण को रोकना बहुत ही आवश्यक है पर पदार्थों की आसक्ति हटते ही आत्मा के स्वरूप का दर्शन एवं अनुभव होगा, आत्मोन्नति का प्रथम सोपान है। जिन-जिन वस्तुओं को आत्मा मेरी अपनी समझता है उनकी प्राप्ति अभिवृद्धि में हर्ष एवं विनाश-क्षीणता में होता है। जहाँ ममत्व भाव नहीं वहाँ हर्ष शोक का प्रादुर्भाव नहीं होता है होता है तो अत्यल्प एवं क्षणिक। आत्मा द्रव्य वास्तव में इन पाँच द्रव्यों से सर्वथा भिन्न है दृश्यमान सभी पदार्थ पौद्गलिक (भौतिक) है, क्योंकि पुद्गल के सिवाय सभी पदार्थ अरूपी हैं अरूपी पदार्थों पर आसक्ति नहीं होती । जिसे हम देखते हैं, सुनते हैं, खाते हैं, सूँघते हैं और स्पर्श करते हैं अर्थात् पाँचों इन्द्रियों द्वारा जिनके साथ हम अपना किसी प्रकार का सम्बन्ध करते हैं उन्हीं का मन विचार करता है अच्छे या बुरे मेरे या तेरे की कल्पना करता है उस कल्पना के द्वारा ही आत्मा अपने स्वरूप (विचार) से च्युत होकर उनके प्रति आकर्षित होती है। इसीलिए “मैं और मेरा” इसी को मोह का मूलमन्त्र माना गया है और मोह ही आत्मा का परम शत्रु सबसे प्रबल बाधक कारण माना गया है।

पर पदार्थों के संयोग से आत्मा विभाव दशा को प्राप्त होती है। इसीलिए सर्व संग परित्याग-अपरिग्रहता-निर्ग्रन्धता को जैन धर्म में प्रमुख स्थान दिया गया है। जैन तीर्थंकर स्वयं इनका आदर्श उपस्थित करते हैं अर्थात् साधना का आरम्भ सर्वसंग परिसंग परित्याग से ही करते हैं। आसक्ति का परिहार पदार्थों-द्रव्यों के स्वरूप को ज्ञान एवं परिणामों के द्वारा होता है। इनका मूलमन्त्र है “एगोहूँ नत्थि में कोह नाह मनस्स कस्सवि”-मैं किसी का नहीं-मेरी आत्मा अकेली है।” मनुष्य जरा सा विचार करे तो इस अकेलेपन का सहज अनुभव हो जाता है। जन्म-ग्रहण के समय आत्मा अकेली ही उत्पन्न होती है सत्य के समय भी सारे पदार्थों को छोड़कर वह अकेली ही परलोक जाती है। रोगादि दुख भी आत्मा को अकेले ही भोगने पड़ते है अतः आत्मा अकेली ही है बाह्य संयोग धन, दौलत, कुटुम्ब परिवार यावत् देह भी अपना नहीं हैं। तब उन पर समत्व रखना मूर्खता व अज्ञानता नहीं तो क्या है। योगी पुरुषों ने सबसे बड़ी भूल इसी को बतलाया है कि जो पदार्थ अपने नहीं उन्हें अपना मान लेना और अपने स्वरूप को भूल जाना

बहिर्मुखी वृति के कारण आत्मा की सारी शक्ति बाह्य पदार्थों की ओर लगी है और वह उनके लाभ हानि में ही सुख-दुख मान बैठा है, अन्यथा सुख व आनन्द कहीं बाहर से आने वाली चीज नहीं। सच्चे स्वरूप के अज्ञान के कारण ही वह इधर दौड़ धूप कर रहा है। यदि मैं अकेला हूँ, कोई भी चीज मेरी नहीं है तब उन पर आसक्ति कैसी? आनन्द यदि मेरे पास है तो उसकी प्राप्ति के लिए दौड़ धूप क्यों? इसी पर विचार करिये। पोद्गलिक-सभी पदार्थ रूप वाले विनाशी हैं, आत्मा अरूपी एवं अविनाशी है दृश्यमान सभी चीजें पुद्गल की बनी हुई हैं अतः ममत्व को हटाकर आत्मा का अन्तर्मुखी होना आध्यात्मिक साधना के लिए परमावश्यक कार्य है।

2. कपट- वस्तु के स्वरूप को अन्य प्रकार से दिखलाने का प्रयत्न कपट है मेरे हृदय में कुछ और ही। यह आत्मोन्नति का परम बाधक कारण है इस प्रपंच जाल से आत्मा बड़ी मलिन हो जाती है। भूमिका की शुद्धि के बिना सुभग चित्रों का आलेखन संभव नहीं। इसी प्रकार आत्मा का सरल-निष्कपट होना उसकी भूमिका शुद्धि है। जहाँ तक बकता है भ्रम फैलाने की वृति काम कर रही है, वहां तक सद्वृत्तियाँ पनप नहीं सकती। चित्त बहिर्मुखी बना रहता है। कैसे अपने दोषों को छिपाया जाये दूसरे को ठगा जाये, इसी में चित्त फंसा रहता है। वहाँ सुविचारों को अवकाश कहाँ? जो पापी है और अपने आपको छिपाने का प्रयत्न कर लोगों के समक्ष अपने को धर्मी दिखलाने की कोशिश करता है, उसका सुधार बहुत ही कठिन है।

3. अवगुणग्राही दृष्टि- यह भी एक बड़ा भारी अवगुण है इसके कारण मनुष्य अवगुणों की ओर अग्रसर होता है। ऐसी आत्मा हजार गुणों को नहीं देखती बल्कि छिद्रान्वेषी होकर अवगुण की ओर ही झुकती है। यह नहीं सोचती कि दोष हम सब में है किसी में कम और किसी में अधिक और पराये दोषों को देखने से लाभ ही क्या? एक सन्त ने इस सम्बन्ध में बहुत ही सुन्दर कहा है, “हे आत्मा दूर जलती हुई अग्नि को क्या देखता है। तेरे स्वयं पैरों में द्वेषों की अग्नि सुलग रही है उसे देखो, पराये मैल में कपड़े धोने से वे उज्ज्वल कैसे होंगे। थोड़े बहुत अवगुण सभी में होते हैं तुम्हारे में भी हैं तो अपने दोषों को क्यों नहीं देखते पराई निन्दा में क्यों लगे हो। निन्दा करने की यदि तुम्हारी आदत ही पड़ गई है तो अपने दोषों की निन्दा करो। अतः अपने दोषों की ओर दृष्टि डालों और दूसरे की निन्दा को छोड़ो।

“मनुष्य जैसे विचारों में रहता है वैसा ही बन जाता है” अवगुणों को ढूँढ़ने की दृष्टि रखने से स्वयं अवगुण का भाजन हो सकता है। इसीलिए इस दृष्टि दोष को निवारण कर हमें अपनी दृष्टि को गुण ग्राहक बनाना आवश्यक है। अवगुण देखने हो तो अपने देखो, जिससे उन्हें छोड़ने की भावना जगे तथा आत्मा दोष रहित बने। औरों के तो गुण ही देखो जिससे गुणी बने और गुणों के प्रति तुम्हारा आकर्षण बढ़े।

इन तीनों विवेचना का सार यही है कि इनके द्वारा आत्मा को बढ़ने का अवकाश भी नहीं होता। अतएव बहिर्मुखी वृत्तियों की ओर से हटकर अन्तर्मुखी होने का लक्ष्य रखा जाय। महत्व, कपट और अवगुण ग्राही दृष्टि से बचा जाय तभी आत्मोन्नति होगी।


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