साधनाकाल और सिद्धावस्था।

April 1950

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(श्री दौलतराम कटरहा वी. ए. दमोह)

मनुष्य की असंतुलित, स्वार्थमय संकीर्ण विचारधारा का कारण उसका अहंभाव है। उसका ‘अहं एवं उसकी जीवित रहने की इच्छा उस की विचारधारा को प्रभावित करती है तथा उसे अपना अस्तित्व बनाए रखने की प्रेरणा होती है और इसीलिये मनुष्य बहुधा अपने के लिए ही वह धन-संग्रह करता है और व्यवहार करते समय दूसरों के प्राणों की अपेक्षा अपने प्राणों को अधिक महत्व देता । वह एक छोटे से शरीर में सीमित अपने क्षुद्र ‘अहं’ के पीछे कभी कभी विशाल जनसमूह के हितों को भी ठुकराने से नहीं हिचकता और इस तरह वह अत्यंत स्वार्थी बन बैठता है। यदि वह कभी अपने प्रियजनों का पक्ष लेता है तो इसीलिये कि वे अपने हैं। कहने का प्रयोजन यह कि उसके समस्त शुभ अथवा अशुभ कार्यकलापों का मूल उसका महत्व ही है।

इसके अतिरिक्त कुछ पुरुष ऐसे होते हैं जो सदा इस अहं का विरोध कर इसे मिटा देने का प्रयत्न करते हैं। अहं को मिटाने के लिए वे अपने सुखों की अपेक्षा दूसरों का अधिक ध्यान रखते हैं। वे दूसरों के सुख के लिए जहाँ अपने सुखों को तिलाँजलि दे देंगे वहाँ कभी कभी अपने प्राणों को भी होम डालेंगे। स्वार्थी मनुष्य पहले अपना, फिर अपने प्रियजनों का और अंत में दूसरों का ख्याल रखता है किन्तु ये लोग अपनी अहं भावना को मिटाने के लिए इस क्रम को उलट देते हैं। इनका अनुभव दूसरी ओर ही हो जाता है। किंतु इस दूसरी श्रेणी के अतिरिक्त इने गिने वे महापुरुष भी होते हैं जो कि व्यवहार करते समय न तो एक ओर ही झुक जाते है और न दूसरी ओर ही। इनकी विचार-धारा में सम्यक् संतुलन एवं निर्भीकता होती है। व्यवहार करते समय न्याय और लोकसंग्रह को दृष्टि में रखते हुए यदि उन्हें किसी व्यक्ति के विरुद्ध कार्य करना पड़ेगा तो वे उसके विरुद्ध कार्य अवश्य करेंगे और यदि स्वतः अपने हितों को त्यागना पड़ेगा तो उन्हें भी त्याग देंगे। वे अपने शरीर को इस तरह संचालित करते हैं, उसका इस तरह व्यवहार करते हैं कि उनके द्वारा समाज का अधिक से अधिक कल्याण साधन हो। ऐसे व्यक्तियों के सामने यदि कभी ऐसा प्रश्न आवे कि या तो अन्य व्यक्ति प्राण दे अथवा स्वयं ये ही अपने प्राण दें तो यदि ये देखते हैं कि इनके जीवन-धारण से अधिक कल्याण व्यक्ति अपने प्राण त्यागे और ये अपने प्राणों की रक्षा करें। यह अनिवार्य नहीं कि प्रत्येक कार्य द्वारा ये अपने अहं को मिटाने का ही अभ्यास करें। वस्तुतः जहाँ दूसरी श्रेणी के लोग अपने अहं के त्याग-रूपी जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधना में पूर्णतया निरत रहते हैं वहाँ इस तीसरी श्रेणी के लोगों को साधना की परिपक्वावस्था में अहंभाव रह ही नहीं जाता इन्हें साध्य की उपलब्धि हो जाती है और ये सिद्ध पुरुष हो जाते हैं। आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से दूसरी श्रेणी के लोग जहाँ साधन-काल में हैं वहाँ इस तीसरी श्रेणी के महापुरुष सिद्धाँत काल में हैं।

जो व्यक्ति साधन काल में रहता है वह हठ पूर्वक अनेकों वस्तुओं का परित्याग करता है। यदि वह पूर्ण वैरागी होना चाहता है तो वह कहेगा कि मैं केवल जमीन पर ही सोऊंगा, झोपड़ी में ही रहूँगा, जमीन पर ही बैठूँगा, दाल-रोटी खाऊंगा और जूते तथा छाते का उपयोग नहीं करूंगा। वह कहेगा कि मैं पलंग का उपयोग नहीं कर सकता, बड़े महलों में नहीं ठहर सकता, कुसफल पर नहीं बैठ सकता और मेवा मिष्ठान नहीं खा सकता। शायद उसे यह भय रहता है कि कहीं ऐसा करने से वह उन विषयों की मोहकता द्वारा आकर्षित होकर और विषय-सुखों में फंस कर पतित न हो जावे। इस तरह राग को त्याग करने की इच्छा से वह द्वेष का वरण कर बैठता है और शायद उसे वैराग्याभिमान भी हो जाता है। उसे यह भी भय होता है कि कहीं उन विषयों में एक आध बार भी भूल से रत होने पर उसके हृदय में उनके प्रति राग और आकर्षण गुप्त रूप से न बढ़े और इस तरह इन्द्रिय विजय का प्रश्न एक कदम और पीछे न हो जावे। इसलिए साधन काल में बहुधा साधक हठ पूर्वक प्रयत्न करता है, प्राणबद्ध होकर कार्य करता है और यदि वह त्याग का अभ्यास करता है तो बहुधा उसे त्यागाभिमान हो जाता है, यदि वह सेवा करता है तो वह अहिंसाभिमानी हो जाता है। किंतु जो व्यक्ति इन्द्रियों और मन पर विजय प्राप्त कर लेता है अथवा सिद्धाँत काल में पहुँच जाता है उसे इस तरह का कोई भय नहीं होता। यदि उसे युद्ध जैसे अकुशल कर्म में भी प्रवृत्ति होना पड़े तो भी वह इन सब लोकों को मारने में कदापि न हिचकेगा और न अहंभाव के अभाव में उसे पाप ही लगेगा। वह यह कभी न कहेगा कि मुझ अप्रतीकार करने वाले को भले ही मेरे शत्रु मार डाले पर मैं उनके विरुद्ध कभी भी हथियार न उठाऊंगा भले ही वे कौरवों और रावण जैसे ही आततायी और पाप-परायण ही क्यों न हों। वह महान त्यागी भी होता है किंतु यदि कभी उसे मिष्ठान अर्पित किया जाता है, सुकोमल-शय्या दी जाती है अथवा सुगंधित पुष्प-हार विनय एवं श्रद्धापूर्वक दिया जाता है तो वह उनका हठ-पूर्वक त्याग नहीं करता। यदि उसे कभी महल में सोना हो तो वह आध्यात्मिक पतन के भय से हठ-पूर्वक वहाँ रहना अस्वीकार न करेगा। यदि उसे बैठने के लिए कभी कुसफल दी जायेगी तो वह कुसफल पर भी बैठ जायगा, यदि आवश्यकता पड़ेगी तो वह जूते और छाते का भी उपयोग करेगा और मौका आने पर वह पैसे के छूने में भी कोई ऐतराज न मानेगा और उसका दुरुपयोग करेगा। इन वस्तुओं का उपयोग उसमें तनिक भी राग अथवा आशक्ति उत्पन्न नहीं करता क्योंकि वह इन सुन्दर पदार्थों को सुखकर तथा साग-पात, कन्द-मूल आदि जैसे साधारण पदार्थों को तथा कठोर भूमि-शय्या को दुखकर नहीं मानता। उसकी गति अवधूतों जैसी हो जाती है और वह सोना-मिट्टी, सुन्दर-असुन्दर, मृदु-कठोर, मीठी-कड़वी आदि वस्तुओं के प्रति समदर्शी भाव रखता है। सुन्दर की अप्राप्ति में वह दुखी और असुन्दर की अप्राप्ति में वह सुखी नहीं होता और न सुन्दर की प्राप्ति में सुखी और असुन्दर की प्राप्ति में दुखी ही होता है। इन द्वन्द्व समुदायों में से न तो वह किसी को दूसरे की अपेक्षा विशेष हितकर और न पहले की अपेक्षा अधिक अहितकर ही समझा है। वह जानता है कि जहाँ तक इन द्वन्द्वों का इन्द्रियों से सम्बन्ध है वहाँ तक वे सुन्दर-असुन्दर और सुखद-दुखद हैं किंतु इन्द्रियों, मन और बुद्धि से परे आत्मा के सामने भले बुरे के ये भेद अत्यन्त तुच्छ हैं। अतएव वह आत्मा में ही रमण करने वाला, अंतर्मुखी, अन्तः सुखी, अन्तराराम और अंतर्ज्योति हो जाता है और इसलिए प्रकृति की इन द्वैत-मयी वस्तुओं में वैषम्य न देखते हुए वह उन्हें समत्वभाव से ही देखता है। उसकी विचार-पद्धति भय रहित होती है वह समत्व बुद्धि-युक्त होता है अतएव उसकी विचारधारा संतुलित होती है।

साधन काल में मनुष्य विषय पाश में फंसने से डरता रहता हैं अतएव वह उन विषयों से सम्बन्धित विषयों पर कभी कभी निर्भयतापूर्वक न तो सोच ही सकता है और न आचरण ही कर सकता है। भय-पूर्ण विचार धारा के कारण वह कई बार अपने कर्तव्य का निर्णय ठीक ठीक नहीं कर सकता अतएव कर्तव्य-च्युत हो जाता है। उसकी बुद्धि अर्जुन के समान ही लड़खड़ाने लगती है और ऐसे समय में उसे सिद्धान्त-काल में पहुँचे हुए कृष्ण जैसे महात्मा की सिद्धान्त-काल में पहुँचे हुए महापुरुष की विचारपद्धति पूर्ण तथा संतुलित और निर्भीक होती है। उदाहरण के लिए महात्मा भीष्म को ही लीजिए जब महात्मा भीष्म ने अम्बा और अम्बालिका से विवाह करना अस्वीकार किया और उन्होंने भगवान परशुराम की सहायता माँगी तब परशुराम जी ने भीष्म को समझाकर देखो पत्नी के रहते हुए भी भगवान शंकर कामासक्त नहीं हैं और न पत्नी ही उनके लिए बंधन का कारण हैं। इसलिए भगवान शंकर का अनुकरण कर तुम भी विवाह करलो। तुम्हें दोष न लगेगा। इस पर महात्मा भीष्म ने कहा कि भगवान शिव कामजयी हैं किन्तु मैं तो काम से डरने वाला हूँ। भले ही भगवान परशुराम को निरुत्तर करने के लिए महात्मा भीष्म ने ऐसा उत्तर दिया हो किन्तु इसमें संदेह नहीं कि साधनावस्था में मनुष्य भीष्म के समान ही डरता रहता है और उसे विशेष सतर्क रहना पड़ता है किन्तु सिद्धान्त- काल में अभ्यास में प्रतिष्ठित हो जाने पर वह इस तरह के प्रासक्ति सम्बन्धी भय और संशयों से पूर्णतया विमुक्त हो जाता है, उसकी विचारधारा संतुलित होती है।


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