श्री स्वामी दयानंद सरस्वती के उपदेश।

April 1950

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(संकलनकर्ता-पं॰ श्री मदनमोहन जी विद्याधर)

(1) जब जीव सच्चे मन से अपनी आत्मा, प्राण एवं सब सामर्थ्य में परमेश्वर को भजता है तो वह करुणामय उसे अपने आनन्द में स्थिर कर देता है। जैसे कोई छोटा बालक यदि घर के ऊपर से अपने माता-पिता के पास नीचे आना चाहता है, अथवा नीचे से उनके पास ऊपर जाना चाहता है तो माता-पिता हजारों आवश्यक कार्यों को छोड़कर और दौड़कर अपने बच्चे को गोद में उठा लेते हैं, वैसे ही जब कोई सच्चे आन्तरिक भाव से कृपानिधि परमेश्वर की ओर चलता है तो वे अनन्त शक्ति रूप अपने हाथों से उस जीव को उठाकर सदा के लिये अपनी गोद में रख लेते हैं, फिर उसे किसी प्रकार का दुःख नहीं देते और वह सदा आनन्द मग्न रहता है।

(2) जो परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता, वह कृतघ्न और महामूर्ख है, क्योंकि जिसने जीव के सुख के लिये इस जगत् के सारे पदार्थ दे रक्खे हैं, उस ईश्वर के गुण भूल जाना-उसी को न मानना-कृतघ्नता और मूर्खता ही है।

(3) सब मनुष्यों को सब प्रकार से सब काल में सत्य से ही प्रीत करनी चाहिये, असत्य से कभी नहीं। हे मनुष्यों ! तुम अमृत अर्थात् झूठ या अन्याय के करने में कभी प्रीत मत करो।

(4) सत्य से ही मनुष्यों को व्यवहार और मुक्ति का उत्तम सुख मिलता है।

(5) सत्याचरण का ठीक-ठीक फल है कि जब मनुष्य निश्चित रूप से केवल सत्य ही मानता, बोलता और करता है तो वह जो-जो काम करता और कराना चाहता है, वे सब सफल हो जाते हैं।

(6) धर्म का स्वरूप न्यायाचरण है। न्यायाचरण इसे कहते है कि पक्षपात छोड़कर सब प्रकार सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग किया जाये।

(7) जो मनुष्य महामूर्ख है, वे ऐसा समझते है कि सत्य से व्यवहार का नाश और असत्य से उसकी सिद्धि होती है। परन्तु यदि कोई भी पुरुष किसी को व्यवहार में झूठा समझ ले तो उसकी सारी प्रतिष्ठा और विश्वास नष्ट होकर उसके व्यवहार का भी नाश हो जाता है। और जो सब प्रकार के व्यवहारों में झूठ छोड़कर सत्य ही बोलते हैं, उनको तो लाभ ही लाभ होता है, हानि कभी नहीं होती, सत्य व्यवहार का नाम ही धर्म और इससे विपरीत का अधर्म है। क्या धर्म को फल सुख और अधर्म का फल दुःख ही नहीं है? इसलिये जिस सत्य के आचरण से धर्मप्राण ऋषिगण सत्य के भंडार परमात्मा को पाकर आनन्दित हुए थे और जिससे जब भी वैसा ही आनन्द प्राप्त होता है, उसका सेवन मनुष्य क्यों न करें। यह निश्चित है कि सत्य से परे कोई धर्म और असत्य से परे कोई अधर्म नहीं है। अतः वे ही पुरुष धन्य हैं, जो झूठ का आश्रय तनिक भी नहीं लेते।

(8) जो वेद-शास्त्रोक्त हो और जिसकी प्रत्यक्षादि प्रमाणों से परीक्षा कर ली गई हो, वह पक्षपातशून्य सत्य ही न्याय रूप धर्म है। उसके आचरण में सर्वदा प्रीति रक्खो तथा अपने आत्मा प्राण और मन को सत पुरुषार्थ एवं स्वभाव से युक्त करके सदा सत्य में ही प्रवृत्त करो।

(9) धर्मात्मा का ही लोक में विश्वास होता है, धर्म से ही लोग पापों से छूटते हैं, जितने उत्तम कर्म हैं, वे सब धर्म के ही अंतर्गत हैं, इसलिये धर्म को ही सबसे श्रेष्ठ समझना चाहिये।

(10) जिस मनुष्य ने किसी के सामने एक बार भी चोरी, जारी या मिथ्या भाषणादि कोई कुकर्म कर लिया, उसकी प्रतिष्ठा उसके सामने मृत्युपर्यन्त नहीं होती। जैसी हानि मिथ्या प्रतिज्ञा करने वाले की होती है, वैसी और किसी की नहीं होती, इसलिये जिसके साथ जैसी प्रतिज्ञा की जाये, उसके साथ उसे उसी प्रकार पूरा करना चाहिये।

(11) जो मनुष्य विद्या कम भी जानता हो परन्तु दुष्ट आचरण छोड़कर धार्मिक आचरण करता हो तथा खाना-पीना, बोलना-सुनना, उठना-बैठना, लेना-देना आदि सब व्यवहार यथायोग्य सत्यानुकूल करता हो, वह कभी दुःख को प्राप्त नहीं होता। और जो सारी विद्या पढ़कर पूर्वोक्त सद्व्यवहारों को छोड़कर दुष्ट कर्म करता है, वह कभी कहीं भी सुख प्राप्त नहीं कर सकता ।

(12) विद्याभ्यास सुविचार, ईश्वरोपासना, धर्मानुष्ठान, सत्संग ब्रह्मचर्य एवं जितेन्द्रियता आदि जितने उत्तम कर्म हैं, वे सब तीर्थ कहलाते हैं, क्योंकि इनके द्वारा जीव दुःख सागर से तर जा सकते हैं।

(13) परमेश्वर की सम्यक् उपासना करके इस प्रकार उन्हें समर्पण करें कि ‘हे दयानिधे! आपकी कृपा से हम जो जो शुभ कर्म करते हैं, वे सब आपके अर्पण हैं, जिससे कि हम लोग आपको प्राप्त होकर सत्य एवं न्यायानुकूल आचरण रूप धर्म, धर्मानुकूल पदार्थों की प्राप्ति कर अर्थ, धर्म, और अर्थ के द्वारा इष्ट भागों का सेवन कर काम तथा समस्त दुःखों से छूटकर सर्वदा आनन्दमग्न रहना रूप मोक्ष प्राप्त कर सकें।


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