कर्तव्य और अधिकार

September 1948

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हर जगह अधिकार की पुकार है। प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि मुझे अमुक मिले, अमुक मिले और वह इस अमुक अमुक में ही लगा रहता है लेकिन जो व्यक्ति दूसरों से किसी चीज की अपेक्षा रखता है उसे भी दूसरों को कुछ देना है इसकी न उसे परवाह रहती है और न उसके प्रति निष्ठा। वह लेना ही लेना चाहता है, देने के लिए उसके हृदय में किसी प्रकार की गुँजाइश नहीं है। वह भूल जाता है कि लेने के साथ देने की चर्चा भी होती है। देना और पाना साथ साथ चलता है। इसलिए जहाँ अधिकार की माँग होती है वहाँ कर्तव्य की पुकार होना भी स्वाभाविक है।

अधिकार माँगने के पूर्व हमारा अपना जो कर्तव्य है उसे जिस समय स्मरण रखते हैं और निष्ठा पूर्वक उसका पालन करते हैं उसी समय हमें बिना संघर्ष अपने आप अधिकारों की प्राप्ति हो जाती है।

अधिकार तथा कर्तव्य की माँग के आधार पर ही व्यक्ति के साथ समाज का बन्धन है। समाज तो अलग है और थोड़ा बड़ा है लेकिन व्यक्ति के साथ उसके परिवार का जो बन्धन है उसमें भी कर्तव्य और अधिकार का समावेश है। जिस समय इन दोनों में से कोई एक नहीं रहता उस समय व्यवस्था बिगड़ जाती है और विद्रोह उठ खड़ा होता है। इसलिए इस बात का प्रयत्न किया जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्तव्य का स्मरण रखे और इस कर्तव्य की बात को बार बार स्मरण कराने के लिए धर्म की सृष्टि की गई है। असल में देखा जाय तो यह स्पष्ट हो जायगा कि धर्म और कर्तव्य में किसी प्रकार का कोई अन्तर नहीं है। जिस प्रकार सन्तान का पालन करना उनके माता पिता का कर्तव्य है उसी प्रकार वे अपनी सन्तान से उनके प्रति वफादार रहने की अपेक्षा रख सकते हैं। यद्यपि भारतीय संस्कृति में इस प्रकार की भावना रखकर चलना ठीक नहीं माना जाता और हमारा कर्तव्य है इसलिए ऐसा कर रहे हैं इस भावना को ही प्रमुखता दी जाती है। फिर भी कर्तव्य करने पर उन्हें अधिकार मिल ही जाते हैं यह बात सर्व सम्मत है।

आजकल जितनी विषमताएं चल रही हैं उनमें कर्त्तव्य हीनता ही मुख्य कारण है। मजदूरों से सात या आठ घंटे काम लेना अधिकार है लेकिन उनकी सुख−सुविधा का ध्यान रखना कर्त्तव्य। हम कर्त्तव्य को जब भूल जाते हैं तब मजदूरों में विद्रोह की भावना उत्पन्न होना स्वाभाविक रहता है। इसी प्रकार हमारी पत्नी ऐसा करे, वैसा करे, उससे ऐसा कराना, वैसा कराना हमारा अधिकार है यह तो हमें स्मरण रहे लेकिन उसे सन्तुष्ट करना, उसे योग्य बनाना, उसको उचित संरक्षण देना जो हमारा कर्त्तव्य है उसे हम भूल जायँ तो क्या दाम्पत्य जीवन सुखी रह सकता है ? जिस प्रकार कर्त्तव्य भूलकर हम कलह की सृष्टि करते हैं, और अपने तथा दूसरे के लिए अशान्ति का बीज बोते हैं, उसी प्रकार समाज देश तथा विश्व के प्रति अपने अधिकार का माँग रखकर और उसके प्रति अपने कर्तव्य को भूलकर हम सामूहिक अशान्ति की स्थापना करते हैं। परिवार के साथ हमारा नित्य का सम्बन्ध है और उस पर किये गये कार्यों का प्रभाव तत्काल हम पर पड़ता है उसी प्रकार समाज, राष्ट्र एवं विश्व के साथ हमारे व्यवहारिक जीवन का नित्य का सम्बन्ध रहते हुए भी हम पर उसके साथ किये गये कार्य का तुरन्त प्रभाव नहीं पड़ता। धीरे 2 जब उनका सामूहिक रूप बन जाता है तब वह ऐसा प्रभाव शाली हो जाता है कि हमारी सत्ता स्थापित रहने में भी बाधक लगने लगता है। आज की समस्त विषमतायें, अशान्तियाँ, युद्ध, हिंसा ये सबके सब मानव के प्रति मानव का जो कर्तव्य है उसकी उपेक्षा करने का ही परिणाम है, प्रत्येक व्यक्ति उसका जिम्मेदार है, और आज या कल किसी न किसी रूप में प्रत्येक मानव पर उसका प्रभाव पड़ रहा है। इसलिए यह आवश्यक है मनुष्य को अपनी सुख शान्ति की रक्षा के लिए भी तात्कालिक अधिकार के प्रलोभन में न फँसकर स्थायी सुख शान्ति के लिए कर्तव्य को विस्मरण नहीं करना चाहिए। कर्तव्य का एक मात्र यही आदेश है कि हम दूसरे से जो लेना चाहते हैं उसे अपने पास से देने की गुँजाइश प्रत्येक मानव को रखना चाहिए और जब तक यह गुँजाइश उसमें न प्रकट हो तब तक अपनी माँग को जोरदार नहीं बनाना चाहिए। लेकिन इससे भी अधिक श्रेयस्कर यह है कि कर्तव्य की बात स्मरण रखना चाहिए, कर्तव्य बुद्धि से प्रेरित होकर कार्य करना चाहिए लेकिन उसके मूल में प्रतिदान की भावना नहीं रखनी चाहिए। यह निश्चित है कि यदि हम अच्छा करेंगे तो प्रतिफल स्वरूप हमें अपने आप ही अच्छा मिलेगा।

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