शास्त्र मंथन का नवनीत

September 1948

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अतिरमणीये कार्ये पिशुनोऽन्वेषयति दूषणान्येव। अति रमणीये वपुषि ब्रणमिव हि मक्षिकानिकरः॥73

सुन्दर देह में भी जैसे मक्खियों का झुँड फोड़े फुन्सी ही को ढूंढ़ता फिरता है, वैसे ही दुष्ट मनुष्य बहुत अच्छे काम में भी दोष ढूंढ़ा करता है।

वृतं यत्नेन संरक्षेद वित्तमायाति याति च। अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः॥74

चरित्र की यत्न से रक्षा करनी चाहिए, धन तो आता जाता रहता है। धन से क्षीण 2 नहीं कहलाता, परन्तु सदाचार से भ्रष्ट को तो मरा ही समझना चाहिये।

विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाकपटुता युधि विक्रमः। यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम्।।75।।

विपत्ति में धैर्य, अभ्युदय में क्षमा, सभा में बोलने की चतुरता, युद्ध में पराक्रम, यश में रुचि और शास्त्र सुनने में व्यसन, ये सब महात्माओं के स्वाभाविक गुण हैं।

वदनं प्रसादसदनं सदयं हृदयं सुधामुचो वाचः। करणं परोपकरणं येषाँ केषाँ न ते वन्द्याः॥76॥

जिनका मुख सदा प्रसन्न रहता है, जिनका हृदय दयालु है, जिनके वचन अमृत के समान होते हैं और परोपकार ही जिनके कार्य हैं, ऐसे सज्जन किसके वन्दनीय नहीं हैं।

हस्तस्य भूषणं दानं, सत्य कण्ठस्य भूषणम्। श्रोतस्य भूषणं शास्त्रं भूषणैः किं प्रयोजनम्॥77

हाथ का भूषण दान, कण्ठ का भूषण सत्य और कान का भूषण शास्त्र है। अन्य सोने चाँदी के गहनों की क्या आवश्यकता है ?

स जीवति गुणा यस्य धर्मो यस्य स जीवति। गुणधर्मविहीनो यो निष्फलं तस्य जीवितम्॥

जिसमें गुण है वह जीवित है, और जिसमें धर्म है वह जीवित है, गुण और धर्म से रहित मनुष्य का जीवन व्यर्थ है।

इच्छश्चिद्विपुलाँ मैत्रीं त्रीणी तत्र न कारयेत्। वाग्वादोऽर्थसंबंधः तत्पत्नीपरिभाषणम्॥

जहाँ गाढ़ी मित्रता की इच्छा हो, वहाँ बात करनी चाहिए, वादविवाद, धन का लेन-देन और मित्र की स्त्री से बात चीत।

सर्वे यत्र विनेतारः सर्वे यत्राभिमानिनः। सर्वे महत्वमिच्छन्ति कुलं तदवसीदत्॥

जिस कुल में सभी मनुष्य विनयी हो और सभी अभिमानी हो, या सब महत्व की इच्छा रखते हो, वह कुल नष्ट हो जाता है।

प्रंत्यह प्रत्यवेक्षेत नरश्ररितमात्मन कि नु में पशभिस्तुल्व कि नु सत्पुरुषेरिति

मनुष्य को अपने आचरण की परीक्षा करते रहना चाहिये कि मेरा आचरण पशुओं के समान है या सत्पुरुषों के।

धनमस्तीति वाणिज्यं किचिदस्तीति कर्षणम्। सेवा न किंचिदस्तीति भिक्षा नैव च नैव च॥

धन हो तो व्यापार करना चाहिये, थोड़ा धन हो तो खेती करनी चाहिये, कुछ भी न हो तो नौकरी ही सही , परन्तु भीख तो कभी नहीं माँगनी चाहिए।

को न याति वंश लोके मुखै पिण्डेन पूरितः मृदंगो मुखलेपेन करोति मधुरध्वनिम्॥

मुख में पिण्ड अर्थात् भोजन देने से संसार में कौन वश में नहीं हो जाता, मृदंग भी मुख पर आटे का लेप करने से मधुर शब्द लगता है।

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