सच्ची अहिंसा का मर्म

September 1948

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(लोकमान्य तिलक)

मनु ने सब वर्ण के लोगों के लिए नीति धर्म के पाँच नियम बतलाये हैं- अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। ( मनु 10-63) अहिंसा, सत्य, अस्तेय, काया की और मन की शुद्धता एवं इन्द्रिय निग्रह। इस नीतिधर्म में से अकेली अहिंसा ही का विचार कीजिये। अहिंसा परमोधर्मः (महा0 भा0 आ॰ 11-13)। यह तत्व सिर्फ हमारे वैदिक धर्म ही में नहीं किन्तु अन्य सब धर्मों में भी प्रधान माना गया है। बौद्ध और ईसाई धर्म ग्रन्थों में जो आज्ञायें हैं उनमें अहिंसा को, मनु की आज्ञा के समान, पहला स्थान दिया गया है। सिर्फ किसी की जान ले लेना ही अहिंसा धर्म ग्रन्थों में जो आज्ञायें हैं उनमें अहिंसा को, मनु की आज्ञा के समान, पहला स्थान दिया गया है। सिर्फ किसी की जान ले लेना ही अहिंसा नहीं है। उसमें किसी के मन अथवा शरीर को भी दुःख देने का समावेश किया गया है, अर्थात् किसी सचेतन प्राणी को किसी प्रकार दुःखित न करना ही अहिंसा है। इस संसार में सब लोगों की सम्मति के अनुसार यह अहिंसा धर्म सब धर्मों में श्रेष्ठ माना गया है। परन्तु अब कल्पना कीजिये कि हमारी जान लेने के लिए या हमारी स्त्री अथवा कन्या पर बलात्कार करने के लिए अथवा हमारे घर में आग लगाने के लिए या हमारा धन छीन लेने के लिए कोई दुष्ट मनुष्य हाथ में शस्त्र लेकर तैयार हो जाय और उस समय हमारी रक्षा करने वाला हमारे पास कोई न हो, तो उस समय हमको क्या करना चाहिए ?-क्या ‘अहिंसा परमोधर्मः’ कह कर ऐसे आततायी मनुष्य की उपेक्षा की जाय? या यदि वह सीधी तरह न माने तो यथा शक्ति उस पर शासन किया जाय? मनु कहते हैं-

गुरुं वा बालवृद्वौ बा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्। आतितायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।।

अर्थात् आततायी या दुष्ट मनुष्य को अवश्य मार डाले, वहाँ यह विचार न करे कि वह गुरु है, बूढ़ा है, बालक है या विद्वान ब्राह्मण है। शास्त्रकार कहते हैं कि (मनु0 350) ऐसे समय हत्या करने पाप हत्या करने वाले को नहीं लगता किन्तु आततायी मनुष्य अपने अधर्म ही से मारा जाता है। आत्मरक्षा का यह हक, कुछ मर्यादा के भीतर, आधुनिक फौजदारी कानून में भी स्वीकृत किया गया है। ऐसे मौकों पर अहिंसा से आत्म रक्षा की योग्यता अधिक मानी जाती है। भ्रूण हत्या सबसे अधिक निन्दनीय मानी गई है, परन्तु जब बच्चा पेट में टेढ़ा होकर अटक जाता है, तब क्या उसको काटकर निकाल नहीं डालना चाहिए। यज्ञ में पशु का वध करना वेद ने भी उचित माना है (मनु0 5-31) परन्तु पिष्ट पशु के द्वारा वह भी टल सकता है (म0भा0शाँ0 337/अनु 115/56) तथापि हवा, पानी, फल इत्यादि सब स्थानों में जो सैकड़ों जीव जन्तु हैं उनकी हत्या कैसे टाली जा सकती है? महाभारत में (शाँ0 150/26) अर्जुन कहता है-

सूक्ष्म योनीति भूतानि तर्कगम्यानी कानिचित। पक्ष्मणोऽपि निपातेन येषाँ स्यात स्कन्ध पर्ययः।।

“इस जगत में ऐसे सूक्ष्म जन्तु इतने हैं कि जिनका अस्तित्व यद्यपि नेत्रों से देख नहीं पड़ता, तथापि तर्क से सिद्ध है। ऐसे जन्तु इतने हैं कि यदि हम अपनी आंखों के पलक हिलावें तो उतने ही से उन जन्तुओं का नाश हो जात है।” ऐसी अवस्था में यदि हम मुख से कहते रहें कि “हिंसा मत करो, हिंसा मत करो” तो उससे क्या लाभ होगा। इसी विचार के अनुसार अनुशासन पर्व में (अनु0 116) शिकार करने का समर्थन किया है। वन पर्व में एक कथा है कि कोई ब्राह्मण क्रोध से किसी पतिव्रता स्त्री को भस्म कर डालना चाहता था, परन्तु जब उसका यत्न सफल नहीं हुआ, तब वह स्त्री की शरण में गया। धर्म का सच्चा रहस्य समझ लेने के लिए उस ब्राह्मण को उस स्त्री ने किसी व्याध के यहाँ भेज दिया। वह व्याध माँस बेचा करता था, परन्तु था अपने माता पिता का बड़ा भक्त। इस व्याध का यह व्यवसाय देखकर ब्राह्मण को अत्यन्त विस्मय और खेद हुआ। तब व्याध ने अहिंसा का सच्चा तत्व उसे समझाया और कहा कि इस जगत में कौन किसको नहीं खाता ? ‘जीवो जीवस्य जीवनम्’ (भाग 01-13-46) यही नियम सर्वत्र देख पड़ता है। आपातकाल में तो “प्राणस्यान्नमिदं सर्वम” यह नियम सिर्फ स्मृतिकारों ने ही नहीं (मनु0 5-28, म॰ भा0 शाँ0 15-21) कहा है किन्तु उपनिषदों में भी स्पष्ट कहा गया है (वे0 सू0 3-4-28 छा0 5-2-8 वृं0 6-1-14) यदि सब लोग हिंसा छोड़ दें तो क्षात्र धर्म कहाँ और कैसे रहेगा, यदि छात्र धर्म नष्ट हो जाय तो प्रजा की रक्षा कैसे होगी? साराँश यह है कि नीति के सामान्य नियमों ही से सदा काम नहीं चलता, नीति शास्त्र के प्रधान नियम-अहिंसा-में भी कर्तव्य अकर्तव्य का सूक्ष्म विचार करना ही पड़ता है।

----***----


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: