सेवाधर्म

September 1948

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(जार्ज सिडनी अरेण्डल)

एक आम का वृक्ष है- अपने पल्लवांचल को डुला डुलाकर अभ्यागत पथिकों को पंखा झलता है-अपने हाथ पर बैठी हुई कोयल से दूर दूर के पथिकों को हँकारने को कहता है- आगत अतिथियों को दतौन (दन्तधावन)-शीतल छाया-पल्लव का दोना (जलपात्र)-देकर सादर स्वागत करता है-मधुर मधुर फल चखाता है-पत्थर की चोट सहकर भी अमृत की घूँट पिलाता है। बस, अपना सर्वस्व व्यय कर देने पर-जीर्णावस्था प्राप्त होने पर यज्ञ का समिधा बनकर सेवा करता-पाक प्रस्तुत करने के लिये अपनी देह जलाता-कोयला बनकर भी सोना का मल धोता और अपनी उस खाक (भस्मराशि) में से भी किसी की जीविका उपजाता है। अहा! धन्य! ठीक, उसी की मूर्ति अपने सामने आदर्श रूप से रख लो “तुल्य निन्दा समोस्तुतिः” का अर्थ जान लो और सेवा पथपर बेखटके अग्रसर होते चले जाओ।

सच्ची सेवा इसी में है कि तुम अपने जीवन को दूसरे के जीवन के साथ मिला दो। चाहे किसी तरह से हो--यह प्रगट करने की चेष्टा कदापि न करो कि तुम एक अनुकरण योग्य पुरुष हो।

अच्छा यही है कि पहले काम करो तब कुछ बोलो। यह नहीं कि काम करने के पहले ही बक बक करने लगो। सबसे अच्छी बात तो यही है कि कार्य करो और एक दम चुप हो रहो।

जो विश्वसेवा करने को तत्पर होता है उसे अपना सर्वस्व सेवा हित में अर्पण करने को प्रस्तुत रहना चाहिये-जिससे वह सचमुच विश्व सेवक कहलाने का अधिकारी हो।

संसार में ऐसा कोई नहीं है जो किसी प्रकार की सहायता न चाहता हो और ऐसा भी संसार में कोई व्यक्ति नहीं जो दूसरों की कुछ सहायता न कर सके।

जब तुम दूसरे किसी की सेवा में रत हो तो इस बात का पूरा ध्यान रखो कि यदि तुम्हारी सेवा शुद्ध और सच्ची होगी तो उसके दोषों के वेग भी मुड़कर आगे (भविष्यत्) में सत्पथ के और प्रवाहित होने लगेगा तुम उसकी गमन शक्ति का प्रतिरोध नहीं कर सकते किन्तु तुम्हें उसका रूप और उसकी राह-चाल-गति के परिवर्तन में सचेष्ट होना पड़ेगा।

तुम्हारा यदि विचार है कि जिस दशा में तुम हो उससे भी कहीं उत्तम दशा में होते तो विश्व की अच्छी सेवा कर सकते और अपनी वर्तमान दशा के अनुसार तुम यथाशक्ति अखिल विश्व की सेवा में अपनी क्षुद्र शक्ति का सदुपयोग कर रहे हो तो तुम्हारी सेवा करने की पहली बड़ी चिन्ता इस दूसरी सेवा से कहीं बढ़चढ़कर है। सेवा करने की लालसा है पर सामग्री का अभाव है तो उस प्रथामंकुर की रक्षा करो और उसकी सहायता ले लेकर दूसरों की सहायता करो।

निस्वार्थता पूर्वक जो प्रेममयी सेवा दूसरों के द्वारा तुम्हारी की गई हो-उसे तिरस्कार मत करो-उसकी ओर उदासीनता न प्रकट करो-सावधान! विचार करो कि सेवा करने में जितनी सहृदयता की आवश्यकता है उतनी ही सेवा प्राप्त करने में भी।

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