(पं. खेमराज शर्मा)
साधारणतः मनुष्यों में दो वृत्तियाँ पाई जाती हैं। एक वृत्ति का नाम है भोगवृत्ति और दूसरी का नाम है यज्ञवृत्ति। यद्यपि दोनों का कार्य क्षेत्र एक ही है लेकिन वृत्ति भेद होने से एक ही कार्य दो दिशाओं में गतिशील होता है।
आर्य ऋषियों ने इन वृत्तियों की दिशाओं को मोड़ने के लिए ही आश्रम धर्म का आविष्कार किया था, जीव का जैसे ही स्थूल जगत में अवतरण होता है वैसे ही उसमें भोग वृत्ति की प्रधानता उत्पन्न होती है। ज्ञान का अभाव ही इसका कारण होता है। यों ज्ञान का अभाव तो नहीं होता पर ज्ञान मूर्च्छित रहता है इसलिए अभाव जैसा दिखाई देता है और इसलिए जीवन की आरंभिक अवस्था में मानव के लिए ब्रह्मचर्याश्रम की व्यवस्था की जाती है।
ब्रह्म में अरण करना, ब्रह्म में भ्रमण करना यही ब्रह्मचर्य का तात्विक अर्थ है। जीव स्वयं शुद्ध ब्रह्म है इसलिए जो अपने शुद्ध स्वरूप को पहचानता, निरन्तर उसी में भ्रमण करता और उसकी महानतम शक्तियों से परिचित रहता है, वास्तव में देखा जाय तो वही ब्रह्मचारी है।
बाहरी रूप में जो स्थूल रूप से दिखाई देता है वह ब्रह्म नहीं है, बल्कि ब्रह्म ने अपने अवतरण के लिए इस स्थूल खोल का निर्माण किया है। इसलिए स्थूल तो एक मात्र खोल है-आवरण है, ब्रह्म नहीं इस बात का बोध होते ही मनुष्य ब्रह्म में प्रविष्ट होने के लिए व्रत ग्रहण करता है। यहीं से ब्रह्मचर्याश्रम का आरंभ होता है।
जिस प्रकार इस स्थूल खोल में ब्रह्म का जीव रूप से निवास होता है उसी प्रकार अन्नादि स्थूल खोल में उसके सूक्ष्म जीव रूप से वीर्य का निवास होता है। प्राणि देह में वह वीर्य रूप से ब्रह्मांड में स्थित रहता है, उसकी सदैव स्थिति बनी रहे यह स्थूलचर्या पर निर्भर करती है। जिस प्रकार ब्रह्म का ज्ञान अबाध होना, निरन्तर होना ब्रह्मचर्याश्रम के लिए आवश्यक है, उसी प्रकार ब्रह्मांड में अथवा सिर में वीर्य रहे, स्खलित न हो, च्युत न हो, यह भी ब्रह्मचर्य के लिए आवश्यक है। इन दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही ब्रह्मचर्य व्रत की दीक्षा ली जाती है।
जिन लोगों की भोगवृत्ति होती है, उनको ब्रह्म का ज्ञान नहीं होता, इसलिए स्थूल के प्रति उनकी जबरदस्त आशक्ति होती है और वे उसी में अपने वीर्य को नष्ट कर डालते हैं। पर जिनकी यज्ञवृत्ति होती है वे वीर्य का ब्रह्म में यज्ञ करते हैं इसलिए वीर्य नित्य ही समृद्ध होता हुआ सूक्ष्म से सूक्ष्म होता जाता है। जैसे जैसे उसकी शक्ति बढ़ती जाती है, मनुष्य बल और बुद्धि का खजाना होता जाता है।
ब्रह्मचर्याश्रम का जब से ह्रास हुआ है तब से बल बुद्धि का ह्रास निरन्तर ही देखने में आ रहा है। भोगवृत्ति में आशक्त प्राणी निरन्तर शक्ति हीन हो रहा है। अकाल में ही काल खा जाने के लिए अपना मुँह फैलाये बैठा है। रोग और शोक की सृष्टि नित्य दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है। भोग का यह रोग कम न होकर निरन्तर प्रगतिशील है। ऐसी अवस्था में फिर से ब्रह्मचर्य व्रत और ब्रह्मचर्याश्रम के उद्धार की आवश्यकता है।
ब्रह्मचर्य व्रत के लिए इन्द्रिय संयम नितान्त आवश्यक है। कार्य की परिपक्व अवस्था तक उसे सतेज बनाया जावे 18 वर्ष से पूर्व विवाह न हो, विवाह होने के बाद भी एकनारी व्रत धारण किया जाय। एक नारी में भी भोग वृत्ति को तृप्त करने का भावना न हो, इसमें भी यज्ञ की भावना रहे, वंश संचालन-सन्तानोत्पादन की दृष्टि के अतिरिक्त स्त्री संपर्क की भावना भी जागृत न हो। सन्तानोत्पादन के बाद स्त्री का भोग सम्बन्ध समाप्त हो जावे, और तब ब्रह्म की प्राप्ति को, जो कि मानव जीवन का परमलक्ष है, परमलक्ष बनाकर जीवन का संचालन किया जावे। जिस दिन इस व्रत के ब्रती मानव इस भूमण्डल को अपना कार्य क्षेत्र बनायेंगे, भारत आदि काल के भारत की तरह तेजस्वी, बल, बुद्धि सम्पन्न हो जायेगा।
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