तुम विफल क्यों हुए?

September 1948

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

हर एक व्यक्ति अपने कार्य में सफलता चाहता है और सफलता जब नहीं मिलती तब निराश हो बैठ रहता है। कभी कभी तो अपनी निराशा से उकता कर आदमी आत्म हत्या जैसा जघन्य कार्य कर बैठता है या किसी मार्ग की ओर अग्रसर हो जाता है।

लेकिन विफलता जब आती है तो उसका उद्देश्य विफल करना नहीं होता है। विफलता तो एक चेतावनी होती है मनुष्य के लिए कि जिस प्रयत्न से, जिस उत्साह से उसने कार्य का आरंभ किया है, धीरे धीरे अब उसमें कमी आ रही है और इसलिए सफलता पाने के हेतु उसे आत्म निरीक्षण करना चाहिए जिससे संलग्नता में कमी न आवे, उत्साह में कमी न आवे।

देखा यह जाता है कि जिस स्थिति और जिस समय में कार्य का आरंभ होता है, वैसी स्थिति और समय एक सा नहीं रहता, वह हमेशा बदलता रहता है इसलिए यदि उत्साह का वेग एक सा ही रहे तो समय और स्थिति के परिवर्तित हो जाने के कारण वह वेग भी कम या ज्यादा लगने लगता है। इसलिए कार्यनिष्ठ व्यक्ति का यह कर्तव्य रहता है कि समय तथा परिस्थिति का खयाल करते हुए अपने उत्साह को कार्य की सफलता के उपयुक्त रखने का प्रयत्न करे। समय की गति को पहचानने की दृष्टि जिन्हें मिल चुकी है और जो स्थिति एवं वातावरण से परिचित रहने के लिए हमेशा जागरुक रहते हैं वे हमेशा उन्नति की ओर बढ़ते ही रहते हैं। विफलता के उन्हें कभी दर्शन नहीं होते।

लेकिन विफलता की जैसे ही शुरुआत होती है वैसे ही मनुष्य प्रमाद से घिर उठता है, सबसे पहले तो उसकी चैतन्यता पर आघात होता है। वह सही कदम उठाने के पहले, क्या सही है, यही भूल जाता है इसलिए विफलता उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है और आदमी अपना होशोहवाश खोता जाता है। ऐसे ही समय संकल्प शक्ति को स्मरण करते हुए आदमी नीचे गिरने से बच जाता है।

कार्य की सिद्धि होने में मानसिक अस्वस्थता के कारण आदमी को बाधायें घेर सकती हैं पर जो बाधाओं को जीतते चलने के लिए प्रतिज्ञा किए बैठे होते हैं बाधायें उन पर विजय नहीं पातीं बल्कि वे बाधाओं पर विजय पा लेते हैं। एक बार जिस किसी प्रकार बाधाओं पर विजय पा लेने के बाद फिर उत्साह में कमी आने की संभावना नहीं रहती। और जब उत्साह में कमी न हो तो विफल होने का कारण ही समाप्त हो जाता है।

जिस उत्साह से कार्य आरंभ किया है, उसी उत्साह से विघ्न बाधाओं से जूझते हुए आगे बढ़ते रहने का नाम ही अध्यवसाय है। चाह हो, संकल्प भी हो परन्तु ये दोनों अन्त तक पूरे वेग से साथ न रहें तो किसी भी काम के सफल होने में सन्देह रहता है। इसलिए चाह और संकल्प के साथ सतत जागरुक रहो, हमेशा लगे रहो जैसे वाक्य स्मरण में ही नहीं रखने पड़ते बल्कि क्रिया क्षेत्र में भी इन्हें उतार कर लाना होता है। हमेशा अध्यवसायी बने रहना पड़ता है।

किसी कार्य के आरंभ करने के साथ वह एक से वेग से चलता रहे, बहुधा ऐसा होता नहीं है। कहीं न कहीं शिथिलता आती ही है। उससे डरने की आवश्यकता नहीं है। बल्कि वहीं अपने अध्यवसाय की शक्ति का परिचय देने की आवश्यकता होती है। जो हमेशा जागरुक रहकर अपने अध्यवसाय का परिचय देते हैं, वे हारते हुए दीखने पर भी हमेशा जीतते ही रहते हैं। हार को वे हार नहीं गिनते बल्कि जीतने के लिए एक प्रोत्साहन मानते हैं।

अनेकों पुरुषों के सामने नित्य ही ऐसी घटनायें घटती हैं, जिनका जितना सम्पूर्ण अध्यवसाय होता है वे उतने ही महान और सफल बन जाते हैं, जिनके उत्साह में जितनी कमी होती है वे उतने विफल मनोरथ होते हैं। अध्यवसायी व्यक्ति के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह आरंभ से ही महान हो, क्योंकि सामान्य से सामान्य व्यक्ति अपने अध्यवसाय के कारण महान बनते देखे गये हैं और महान से महान व्यक्ति भी अपने अध्यवसाय की कमी के कारण गिरते और असफल देखे गये हैं। इसलिए जो लोग यह कहते हैं कि हम ऐसा नहीं कर सकते, हम इसमें सफल नहीं हो सकते वे अपनी शक्ति का उपहास करते हैं। अध्यवसाय तो खासतौर से जो अभावग्रस्त है उन्हीं को उठाने का एक अमोघ अस्त्र है। महात्मा गाँधी को ऊंचा उठाने वाला उनका अध्यवसाय ही एक मात्र अस्त्र था। गान्धीजी कहा करते थे कि चाहे कोई मेरा साथ दे चाहे न दे, पर जिसे मैं ठीक समझता हूँ उसे सारी विघ्न बाधाओं को सहता हुआ भी करता रहूँगा। वे अपनी इस प्रतिज्ञा पर बराबर दृढ़ रहे, कभी एक मिनट के लिए भी अपनी प्रतिज्ञा पर से हटने या शिथिल होने का उन्होंने नाम न लिया। उनका जीवन अनेकों असफलताओं में से गुजरा लेकिन इन असफलताओं ने भी उन्हें महान बनने में मदद ही दी। वे प्रत्येक असफलता के बाद अपने लक्ष्य पर चट्टान की तरह दृढ़ दिखाई दिए। उनका जो भी कदम उठता वह उतना ही दृढ़ होता जैसे पहाड़। यही कारण है कि वे संसार के सफल व्यक्तियों में से एक महान व्यक्ति हुए। कोई भी आदमी अपने अध्यवसाय को कायम रखकर यदि अपनी जिन्दगी में दृढ़ बना रहे तो कष्ट पड़ने और बाधाओं से घेरे रहने के बाद भी वह सफल होगा इसमें सन्देह नहीं है। पर उसे अपने विश्वास को दृढ़ रखने की आवश्यकता है और प्रत्येक विफलता के प्रति जागरुक रहकर आगे बढ़ते रहने के लिए अपने कदमों को दृढ़ रखने की जरूरत है।

----***----


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118