(श्री अशर्फीलाल वर्मा मुख्तार)
आजकल संसार की राजनीति बड़ी उलझी हुई है। कूटनीतिक दावपेचों के आधार पर शक्तिशाली देश अपनी प्रभुता को बढ़ाने के लिए चालें चल रहे हैं। एक को दूसरे पर विश्वास नहीं, एक ओर संधियों और समझौते कागज पर हस्ताक्षर होते हैं दूसरी ओर उनका उल्लंघन शुरू हो जाता है। दूसरों को गिरा कर स्वयं सम्पन्न बनना आज की राजनीति का प्रमुख आधार है।
एक ओर संसार के राष्ट्रों में इस प्रकार की खींचतान चल रही है दूसरी ओर भीतरी शान्ति व्यवस्था भी कायम नहीं हो रही है। चालाक, धूर्त, और लुटेरे किसी प्रकार धन की बहुत बड़ी मात्रा अपने पास जमा करके उसके द्वारा शक्तिशाली बनते हैं, वे प्रजा को चूसते हैं और राजसत्ता को अपने पैसे के बल पर अपने पक्ष में मिलाये रहते हैं फलस्वरूप गरीब जनता को उचित मात्रा में राजकीय संरक्षण नहीं मिलता और वह मानवोचित उन्नति के साधनों से वंचित रह जाती है। अधिकाँश देशों की जनता इसी प्रकार के शासन तंत्रों के नीचे पिस रही है। कहने को वे भले ही स्वतंत्र या प्रजातंत्र कहे जायं पर वहाँ वैसे लक्षण दृष्टिगोचर नहीं होते जैसे कि इस प्रकार के तंत्रों के अंतर्गत होने चाहिए।
इस अव्यवस्था का कारण है शासन तंत्रों पर अध्यात्मवाद का, धर्म का नियंत्रण न होकर उनका धूर्तता पूर्ण एवं कूटनीति प्रधान होना। प्राचीन काल में राजा शासन तो करता था पर उस पर नियंत्रण ऋषि कल्प गुरुओं का रहता था। रघुवंशी राजाओं की कई पीड़ियों पर महामुनि वशिष्ठ का अंकुश रहा। वे प्रजा के हित को, धर्म आचरण को, न्याय को प्रधानता देते हैं। यही कारण था कि एक तंत्र राज्य होते हुए भी शासन व्यवस्था ऐसी आदर्श थी कि रामराज्य को आज भी सराहा जाता है। दूसरी ओर आज के प्रजातंत्र हैं जिनकी जनता कष्ट और कठिनाइयों के बीच पिसी जा रही है।
आजकल चारों ओर आसुरी शक्तियों का बोल वाला है। आध्यात्मिक शक्ति हुकूमतों के पास नहीं है। वे मस्त जंगली हाथियों की तरह निरंकुश होकर स्वच्छन्द आचरण करती हुई विचरण करती हैं। भीतरी शासन व्यवस्था और विदेशों से संबंध के लिए किन्हीं आदर्शों का ध्यान नहीं रखती वरन् शासकों की कूटनीतिक महत्वाकाँक्षाएं ही प्रधान रूप से कार्य करती हैं, जिसके कारण असंख्य प्रजाजनों को युद्ध आदि की भयंकर विपत्तियों में पिसना पड़ता है।
वैज्ञानिक उन्नति तथा साधन सामग्री को बढ़ा कर जनता की सुख शान्ति की आशा आज के राजनैतिक नेता करते हैं पर यह मृगतृष्णा कभी पूरी होने की नहीं। क्योंकि यदि किसी वस्तु का सदुपयोग न किया जाय तो अच्छी से अच्छी वस्तु भी हानिकारक बन जाती है। विद्या, बुद्धि, धन, शास्त्र, बल, विज्ञान आदि के बढ़ जाने पर भी जब तक संसार में शान्ति नहीं हो सकती जब तक कि शासकों के तथा प्रजाजनों के मन में धर्म बुद्धि उत्पन्न न हो और वे धूर्ततापूर्ण कूटनीति को छोड़कर आत्मिक आधार पर अपने आदर्शों का निर्माण न करे।
संसार की सुख शान्ति की ठेकेदारी आज चंद मुट्ठी भर राजनैतिक नेताओं के हाथों में चली गई है। वे चाहें तो जरा सी बात के लिए लाखों करोड़ों मनुष्यों को मक्खी की मौत मरवा डाल सकते हैं, उन्हें वे घरबार बना सकते हैं और यदि वे चाहे तो ऐसी स्थिति उत्पन्न कर सकते हैं जिसमें करोड़ों आदमी सुख शान्ति का जीवन व्यतीत करें। इतनी बड़ी शक्ति हाथ में रखने वाले लोगों का आत्मिक धरातल ऊंचा होना चाहिए, या उनके ऊपर ऊंचे आत्मिक धरातल वाली आत्माओं का नियंत्रण होना चाहिये जिससे वे महान राजसत्ता का उपयोग विश्व मानव की सेवा के लिए ही करे।
जिनके हाथ में राज सत्ता है उन्हें विश्व मानव की सुख शान्ति को ध्यान में रखते हुए अपने तुच्छ कूटनीतिक दायरे से ऊपर उठना चाहिए और जिन प्रजाजनों को अपना भाग्य निर्माण करने के लिए वोट का अधिकार मिला हुआ है उन्हें अपनी सम्मति का उपयोग ऐसे लोगों के पक्ष में करना चाहिए जो भौतिक खींचतान की अपेक्षा उच्च आदर्शों में विश्वास रखते हैं।
सरकारें अपनी नीति का रूपांतर कर डालें तो आज की समस्त अशान्तियाँ कल ही स्थायी शान्ति में परिवर्तित हो सकती हैं। एक दिन पं0 नेहरू ने अमेरिका के नाम ब्रॉडकास्ट करते हुए कहा था कि- ‘संसार में अमन कायम हो सकता है केवल गाँधी जी के बताये हुए मार्ग का अनुसरण करने से। जब तक जड़वादी सिद्धांतों पर रुहानियत का शासन नहीं हो जाता तब तक शान्ति की स्थापना कदापि नहीं हो सकती।’ काश, इस तथ्य को भारत सरकार ने ही अमली रूप दिया होता तो संसार के लिए एक आदर्श उपस्थित हो जाता।
----***----