प्राचीनता को नहीं, सत्य को देखो।

October 1948

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(श्री शिवनारायण जी गौड़, नीमच)

बालक यदि मचल जाय तो खिलौने से फुसलाया जा सकता है, परन्तु यदि विद्वान ही मचल जाय तो?

हमारे विद्वान भी आज मचल रहे हैं। उनके सामने बहुत बड़ी संभावनाओं का द्वार खुला है और वे निश्चय नहीं कर पा रहे हैं कि अपनी किस किस संचित विधि को साथ लेकर के आगे बढ़ जायं। उनके पास वेद-शास्त्रों का स्तोम है, उपनिषद् वेदान्त की परम्परा है, रूढ़ियों की शृंखला है, बरसों से चले आते भिन्न भिन्न विचारों का सम्मिश्रण है, और दिग्दिगन्त के आपात होने वाले सत्-सिद्धान्तों का अनन्त प्रवाह है। उनमें से किन्हें साथ में लें और किन्हें त्याग दें यही कुछ समझ में नहीं आता है। कई दिनों के भूखे को जैसे भोजन करना भी कठिन हो जाता है। उसी प्रकार चिरजिज्ञासु भारत को अपने अपार कोष में से किसी का भी विशेष उपयोग करने का साहस नहीं हो रहा है। अमृत की सन्तान विश्व के भय से अन्य रसास्वादन में सशंक है।

सौभाग्य से कहें या दुर्भाग्य से, धर्म का और उसी प्रकार ज्ञान का तत्व, गुहा में निहित है और वह गुहा चाहे मानस की गुहा हो या अज्ञेयता की, परन्तु उसका ज्ञान हो सकता केवल अंतर्दृष्टि से। हमारे मन्त्रदृष्टा ऋषि भी इसीलिए प्रमाण हैं कि वे मंत्रों के दृष्ट हैं, सृष्टा नहीं। परन्तु परम्परा में पड़ी वस्तु भिन्न भी बन जाया करती है। एक पंक्ति में पास खड़े व्यक्तियों को एक छोर से दूसरे छोर तक एक दूसरे को संदेश पहुँचाने में ही भिन्नता हो जाती है तो काल और प्रकृति की भिन्नता से गुजरते ज्ञान की वस्तुस्थिति में कुछ अन्तर आ जाय तो क्या आश्चर्य है? ज्ञान का माध्यम बदल गया। वैदिक प्राकृत से हम प्रान्तीय भाषा में आ पहुँचे हैं। ज्ञान के पात्र बदल गये- तथा हम अपने पूर्वजों को पूर्णतः समझने का दावा कर सकते हैं? हमारी स्थिति बदल गई, रीति रिवाज बदल गये, सामाजिक स्थिति बदल गई, धर्म की धारणायें बदल गईं। राजनीति, न्याय और विधान बदल गये, देश की स्थिति बदल गई, मनुष्यों की दशा बदल गई, वातावरण बदल गया, संक्षेप में हम पूर्ण रूप से बदल गये, परन्तु सोने से जागने पर हम व्यतीत हुई कल के लिए मचल जायं वैसी ही कुछ हमारी दशा है।

वातावरण से युक्ति बिठाना मनुष्य का स्वभाव है। जाने अनजाने वातावरण हमें अपने में मिला लेता है। आदिम माँसजीवी आगे चलकर अहिंसक बन जाते हैं, संस्कृत भाषी हिन्दी भाषी बन जाते हैं, आर्य, हिन्दू हो जाते हैं, झगड़ने वाले जैन व सनातनी मित्र हो जाते हैं, विरोधी बौद्ध व वैदिक अभिन्न हो जाते हैं, चार्वाक व बार्हस्पत्य विलय को प्राप्त कर लेते हैं, यज्ञ का स्थान मूर्ति ले लेती है, सूर्य का आसन विष्णु को मिल जाता है, वरुण, मरुत् यम का स्थान तैंतीस करोड़ देवता ले लेते हैं, रुद्र भाँग धतूरा खाने लग जाते हैं, औपनिषदिक ब्रह्मवाद-शाँकर, वेदान्त रामानुज वेदान्त व कई वादों में बदल जाता है, एक गीता का सैकड़ों प्रकार से अर्थ प्रवचन होता है, वेद के विभिन्न अर्थ सम्प्रदाय बन जाते हैं, पूजा की अनेकों विधियाँ हो जाती हैं, उपासना की असंख्य पद्धतियाँ हो जाती हैं, सामाजिक रीतियों में विभिन्नता की बाढ़-सी आ जाती है, विचारसरणि के विस्तार का पारावार नहीं रहता, परन्तु यह सब जैसे हमारे लिये है ही नहीं। हमारी दृष्टि उड़कर एक ही बिन्दु पर पड़ती है-बीच का व्यवधान हमारे लिए असिद्ध ही रहता है और मनुष्य की सीमित बुद्धि में समा ही कितना सकता है? एक बात को ग्रहण करने जाते हैं तो दूसरी छूट जाती है, हिन्दुत्व को पकड़ने जाते हैं तो आर्यत्व रह जाता है, हिन्दुस्तान का पल्ला पकड़ते हैं तो भारतवर्ष और आर्यावर्त छूट जाते हैं, स्मृति की उपासना करते हैं तो श्रुति रह जाती है, वर्तमान ईश्वर को लेते हैं वैदिक इन्द्र रह जाते हैं और अधुनातन प्रार्थनाओं को अपनाते हैं तो वैदिक दृष्टियाँ बच रहती हैं।

परम्परा में विरोध तो नहीं रहता परन्तु गतिमय परिणमन होता है। हमारा वर्तमान अतीत का विरोधी नहीं प्रत्युत उसका स्वाभाविक परिणाम है। परन्तु परिणाम को पूर्वावस्था में ले जा सकना क्या इतना सरल है? वर्तमान यन्त्राधिपति को प्राचीन कुटियों में पहुँचा देने की क्षमता किसमें है? वर्तमान अर्थ प्रधान धर्म को यश-प्रधान धर्म में पहुँचा सकने की सामर्थ्य किसमें है? वर्तमान कूटनीति को धर्मनीति में बदलने की शक्ति किसमें है? हमारा उत्तर हो सकता है प्राचीनता को अपना लेने के रूप में और वह उपयुक्त भी है, परन्तु वृद्धावस्था को बाल्यावस्था में परिवर्तित करने का इच्छुक जिस प्रकार अपने आजीवन उपार्जित संस्कारों को नहीं छोड़ सकता उसी प्रकार अपनी प्राचीन संस्कृति को लेकर चलने वाला अमृतमय देश भी अपनी इन सफलताओं और दुर्बलताओं को नहीं छोड़ सकता। अपने उपार्जित आचार विचार और रीति-नीति को वह उनकी इयत्ता में ही बदल सकेगा उनके बाहर जाकर नहीं। वर्तमान की आर्थिक समस्या वर्तमान स्थिति से ही बदलेगी प्राचीन स्थिति से नहीं, वर्तमान राजनीतिक समस्या वर्तमान परिस्थिति से ही हल होगी प्राचीन स्थिति से नहीं, वर्तमान धार्मिक समस्याओं का हल वर्तमान ही करेगा अतीत नहीं।

परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि हमारा धर्म ही बदल जायगा या हम अपने धर्म को नष्ट करते चलेंगे। जिस प्रकार वर्तमान रूप में पहुँच कर भी हम अपने पूर्वजों के वारिस हैं उसी प्रकार हमारा प्राचीन धर्म भी हमारी सीमितता में पहुँच कर भी वैसा ही गरिमामय रहेगा। भिन्न पात्रों में पहुँच कर जल की आकृति भिन्न हो जाती है, वायु दबाव से हल्की या भारी बन जाती है, अग्नि गुप्त से प्रकट और प्रकट से गुप्त हो जाती है, पृथ्वी भिन्न भिन्न रूपों में पृथ्वी ही बनी रहती है, घट और पट की पृथ्वी एक ही रहती है, घटाकाश और मठाकाश भिन्न नहीं, फिर हम अल्पात्माओं में रहने वाला हमारा धर्म ही क्या कुछ हीन हो जायगा? लाखों की सम्पत्ति वाले का लाख का दान दो पैसे के दो पैसे के दान से भिन्न है। श्रद्धा से की गयी पूजा अश्रद्धा के यज्ञ से बढ़कर है। सच्चे हृदय से लिया गया ईश्वर का नाम जीवन भर के नाम स्मरण से उत्तम है, शबरी के झूठे बेर स्मार्ट लोगों से उच्चतर है और दिखाने के लिए किए गये धार्मिक कृत्य कभी पाप-कृत्य भी हो जाया करते हैं, यह हमारा सदा का अनुभव है परन्तु फिर भी हम धर्म की आत्मा में न घुसकर ऊपर ही से उसे हड़प जाना चाहते हैं। हमारा धर्म तो अब प्रचार धर्म रह गया है। धर्म की दुहाई देना ही हमारे लिए धर्म है। धार्मिकता का दिखावा करना ही हमारे लिए श्रद्धा का पात्रत्व है और धर्म धर्म चिल्ला कर अधर्माचरण भी हमारे लिए क्षम्य बन जाता है।

परन्तु हम तो मचल पड़े हैं धर्म के नाम पर और दुर्भाग्य यह कि भटक गये हैं हम आन्तरिक और बाह्य दोनों धर्मों से धर्म का आन्तरिक रूप श्रद्धा, विश्वास और नैतिकता है और बाह्य रूप है- आर्थिक रूढ़ियां और बाह्यचार। प्राचीनता की दृष्टि से कई बाह्यचार हमें बाद की उपज मालूम पड़ते हैं और एक समूह का विरोध हमें लेना पड़ता है। अतः इसे भी हम छोड़ देते हैं। नवीनता की दृष्टि से विश्वास और नैतिकता वर्तमान से बेमेल मालूम पड़ते हैं और इसमें भी हमें ढिलाई करनी पड़ती है। निदान हम धर्म को ही छोड़ उसके नाम को पकड़ लेते हैं और आचरण की अपेक्षा आक्रोश को ही ग्रहण करते हैं। इसमें चाहे धर्म रहे चाहे जाय, हमें इसकी चिन्ता नहीं रहती। हमें तो अपने मन की तुष्टि करनी है। जो हमारे मन के अनुसार धर्म का रूप सामने रखे वही सच्चा धर्मात्मा और धर्म रक्षक है, परन्तु जो हमारे मन से किंचित भी भिन्न प्रवचन करे वह धर्म द्वेषी है, धर्महन्ता है, धर्मनाशक है।

अमृत की सन्तान! धर्म पर दृष्टि डालो। धर्म के मार्ग को समझो । सच्चे धर्म का आचरण करो। धर्म वही नहीं है जिसे तुम धर्म समझो। धर्म वही है तो धार्मिक तत्व युक्त हो। धर्म वही नहीं है जिसे अधिकतर लोक धर्म समझें। दुनिया में सत्य से बढ़कर क्या कोई धर्म है?

संसार के किसी भी धर्म या सम्प्रदाय ने क्या कभी सत्य का विरोध किया है? संसार के किसी भी व्यक्ति को क्या इस विषय में शंका है? फिर अमृत पुत्रों! सत्य के पुजारियों का तुम क्यों विरोध करते हो? सत्य किसी के अपने घर की उपज तो नहीं है? फिर सत्य के प्रयोगों की ईमानदारी में विश्वास क्यों नहीं करते? सत्य को बन्धन में मत बाँधो, उसके विशुद्ध रूप का दर्शन करो भले ही प्राचीनता के साथ संगति न बैठती हो। याद रखिए “पुराण मित्येव न साधु सर्व” जो पुराना है वह सब अच्छा ही नहीं है। हमें सत्य की ही श्रेष्ठता को स्वीकार करना है।

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