(योगिराज श्री अरविन्द)
कार्य करने के लिए कर्म लेकर मस्त रहने से विशेष कोई फल प्राप्त नहीं होगा बल्कि इससे तो व्यर्थ ही शक्ति का नाश हो जायगा।
यद्यपि कार्य करना एक साधना है, अपने जीवन में हम जो कुछ कर रहे हैं, वह सब भगवान के लिए कर रहे हैं ऐसा समझ कर या ऐसा ज्ञान रखकर ही कर्म करना चाहिए। कुछ न कुछ करना ही चाहिए ऐसा समझ कर जो कुछ सामने आ जावे उसी में लग जावें यह तो कोई उचित बात नहीं है। कर्म तो हमें करना ही चाहिए- लेकिन अन्तरात्मा की पूर्ण आज्ञा से। भीतर से जिस काम को करने के लिए हमें प्रेरणा मिले, उसी के अनुसार कर्म करने के लिए हमें तत्पर रहना चाहिए, प्रत्येक कार्य में भगवान का हाथ और उनकी लीला का दर्शन करते रहने की भावना और बुद्धि दोनों ही रहना चाहिए।
अज्ञान धारा की कर्म तरंग में अपने को प्रवृत्त कर देना ही मनुष्य का साधारण स्वभाव है। मनुष्य का यह स्वभाव जब तक आशा से भरा पूरा रहता है। तब तक तो वह अपने जीवन सुख के लिए अनेक तरह से काम करता रहता है लेकिन जैसे ही इन कार्यों में रुकावट डालने वाले प्रति घातक तत्व आ जाते हैं वहीं मनुष्य का कर्मोत्साह भंग हो जाता है कि अभिलाषाएं पूरी नहीं हो रही, मन को शान्ति नहीं मिल रही यहाँ तक कि बुद्धि को भी पूरा सन्तोष नहीं मिल रहा तो वह निराश होकर खिन्न हृदय से अपने जीवन का सारा सामर्थ्य बल, पौरुष खर्च करके और सारे उत्साहों को नष्ट करके विमुख हो जाता है।
आमतौर से या तो लोग भक्ति के आश्रित होकर कर्म करते हैं यह फिर शक्ति के आश्रित होकर। पर सिद्धि दोनों में ही नहीं है। ज्ञान न होने से कोई भी कर्म पूरा नहीं हो सकता। भक्ति या शक्ति द्वारा संसार में जितने कार्य हुए हैं वे भगवान के कार्यों के मामूली क्षुद्र अंश हैं इस समय प्रयोजन है अध्यात्म ज्ञान का, प्रगाढ़ प्रेम एवं असाधारण शक्ति का, क्योंकि इनके बिना कर्म की परिपूर्णता नहीं होगी, कर्म की पूर्णता इन्हीं के द्वारा ही होगी।
इसलिए प्रत्येक साधक को ज्ञान में आरुढ़ होने की आवश्यकता है। उसी के सहारे नीरव साधना में चित्त लगाकर काम करते जाना चाहिए, बाहरी उत्तेजना में न फँसकर, भीतर में भगवान की दिव्य मूर्ति को प्रकट होने देना चाहिए। ऐसी साधना से जो चीज पैदा होगी। आज व्यक्ति कल्याण एवं समष्टि के कल्याण के लिए उसी की आवश्यकता है।
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