1. गृहस्थाश्रम पति और पत्नी की साधना का आश्रम है यहाँ जीवन की- धर्म, अर्थ और काम की साधना की जाती है।
2. पति एवं पत्नी दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, सहायक हैं, मित्र हैं। दोनों का काम एक दूसरे के गुणों की वृद्धि करना है, कमियों को दूर करना है और परस्पर अभिन्नता बनाये रखना है। इसके लिए प्रत्येक को संयम, सहनशीलता एवं स्वार्थ त्याग की भावना अपने अन्दर बढ़ाने की आवश्यकता है।
3. पति का नाम भर्ता है। भर्ता का अर्थ भरण और पोषण करने वाला है। पत्नी में उसकी उन्नति के लिए जिसकी कमी है वह शक्ति अविकसित है वा कम है उसका पोषण करे, उसकी वृद्धि करे। वह उसे हमेशा सन्तुष्ट रखे। उसके मानसिक, शारीरिक एवं आत्मिक विकास का निरन्तर ध्यान रखे। और उन्हें विकसित होने में अपना पूरा सहयोग दे।
4. पत्नी साधिका है। जिस तरह एक साधक अपने प्रभु की साधना के लिए अपना सब कुछ समर्पण कर देता है उसी प्रकार अपने मन में द्वैत की भावना न रखकर पति को ही अपना आराध्य देव मानकर अपना भला और बुरा सब कुछ उन्हें सौंप दे। अपने लिए बचाकर कुछ भी शेष न रखे। जो कुछ करे पति के लिए। पति कुमार्ग गामी हो तो उसे सुमार्ग पर लाने के लिए अपना सर्वस्व तक चढ़ा दे। ध्यान रहे पत्नी को शासक नहीं बनना है। साधिका हमेशा सेविका होती है। सुधार के लिए शासन की नहीं सेवा की आवश्यकता होती है। कुमार्ग गमन एक मानसिक रोग है, इस रोग के लिए उपचार की, सेवा की जरूरत है। अतएव उसके उपयुक्त उपचार करना ही उसके लिए श्रेयस्कर है। कुमार्ग छोड़ देना ही पत्नी की साधना का फल है।
5. पितृ ऋण के उद्धार का एक मात्र साधन दाम्पत्य जीवन की शान्ति है। सन्तान का उत्पादन और सुशिक्षण योग्य दम्पत्ति के बिना कदापि संभव नहीं है। योग्य माता पिता के ही योग्य सन्तान होती है इसलिए योग्य सन्तान के लिए स्वयं की समस्त त्रुटियों को निकाल फेंकने में आना कानी नहीं होनी चाहिए।
6. दाम्पत्य जीवन का उद्देश्य भोग नहीं है योग है। इसलिए प्रत्येक उन साधनों को अपनाना चाहिए जिससे परस्पर का द्वैत नष्ट, हो और आत्मरति एवं मोह की अपेक्षा प्रेम की परस्पर जितनी वृद्धि होगी और मान अपमान जितना दोनों में कम होगा इन दिशा में दोनों की उतनी ही उन्नति होगी।
7. भोग का शमन् योग से नहीं होता, भोगने से वासनायें बढ़ती हैं। संसार के सभी पदार्थ वासना को बढ़ाते हैं इसलिए जितने से शरीर मन तथा आत्मा की उन्नति हो, उन्हें सुख मिले उतने का ही उनसे संपर्क रखना चाहिए। जीवन में उनको लेकर उनका गुलाम नहीं बन जाना चाहिए अन्यथा इससे कलह का बीज बढ़ता है और दाम्पत्य जीवन का उद्देश्य विफल हो जाता है।
8. स्त्री पुरुष का सम्बन्ध यश के लिए है। यश में ईश्वरी भावना है, भोग नहीं। ईश्वरी भावना को पुष्ट करने के लिए ही दाम्पत्य जीवन का निर्माण किया गया है, इसलिए स्त्री तथा पुरुष दोनों को ही पर पुरुष एवं पर स्त्री के विषय में किसी प्रकार की तन्मयता या भोग भावना नहीं रखनी चाहिए। स्व पुरुष और स्व स्त्री में भी सन्तान रूपी यश फल प्राप्ति के लिए यश भावना का ही उपयोग करना चाहिए। भोग से जितना दूर रहा जाय उतना ही ठीक।
9. दाम्पत्य जीवन का मूल मंत्र प्रेम है। प्रेम में त्याग है। अपने लिए कुछ नहीं, इस भावना की पुष्टि के लिए यह जीवन माध्यम है। इसलिए न यहाँ स्वार्थ है, न वासना, न भोग। फिर बदला तो होगा ही क्यों? अतएव इस बात के ज्ञान का निरन्तर जागरण उसकी कुँजी है। और भूल होने पर पश्चाताप ही उसका सच्चा प्रतिशोध है। इसमें मान अपमान रहने से प्रेम की उतनी ही न्यूनता झलकती है। शुद्ध प्रेम में द्वैत की गुँजाइश ही नहीं होती तब कौन छोटा और कौन बड़ा, कौन दास और कौन मालिक, फिर किसका मान और किसका अपमान- सब एक हैं, सब अपने हैं।
लाखों गूँगों के हृदय में जो ईश्वर विराजमान है, मैं उसके सिवा अन्य किसी ईश्वर को नहीं मानता। वे उसकी सत्ता को नहीं जानते, मैं जानता हूँ। और मैं इन लाखों की सेवा द्वारा उस ईश्वर की पूजा करता हूँ जो सत्य है अथवा उस सत्य की जो ईश्वर है।
मनुष्य को चमत्कारिक शक्तियाँ कठिन काम करने से प्राप्त नहीं होतीं, बल्कि इस कारण प्राप्त होती हैं कि वह उन्हें शुद्ध हृदय से करता है।
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