हिन्दू-संस्कृति का आध्यात्मिक आधार

October 1948

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हिन्दू-संस्कृति, उनके जीवन यापन की पद्धति साम्प्रदायिक नियमों के आधार पर गुँथी हुई या संगठित नहीं है। वह सम्पूर्ण रूप से वैज्ञानिक भित्ति पर निर्भर रहती है। इसीलिए उसमें अनेक प्रकार के विषय आचारों के लिए समान रूप से स्थान है जिसमें न उच्चता के भाव हैं और न नीचत्व के।

हिन्दू-संस्कृति मनुष्य मात्र को क्या प्राणी मात्र और अखिल ब्रह्मांड तक को भगवान का विराट् रूप मानता है। भगवान इस विराट में आत्मरूप होकर प्रतिष्ठित हैं और विश्व के समस्त जीव जन्तु प्राणी स्थावर जंगम उनमें अंगाँगी भाव से स्थिर हैं वे अंग हैं और ये सब अंगाँग। जीवन के अन्त तक प्रत्येक में यह भावना समाविष्ट रहे, एक मात्र इसी के लिए योग्यता, बुद्धि, कर्तव्यों में विभिन्नता होते हुए भी प्रेरणा में समता है, एक निष्ठा है, एक उद्देश्य है। और यह उद्देश्य ही अध्यात्म कहलाता है। यह अध्यात्म लादा नहीं गया है, थोपा नहीं गया है, बल्कि प्राकृतिक होने के कारण स्वभाव है और स्वभाव को अध्यात्म कहने भी लगे हैं। ‘स्वभावो अध्यात्म उच्यते’।

विराट के दो विभाग है। एक है अन्तः चैतन्य और दूसरा है बाह्य अंग । बाह्य अंग के समस्त अवयव अपनी अपनी कार्य दृष्टि से स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं। कर्तव्य भी उनकी उपयोगिता की दृष्टि से प्रत्येक के भिन्न भिन्न हैं। लेकिन ये सब हैं उस विराट अंग की रक्षा के लिए। यह अन्तः चैतन्य को बनाये रखने के लिए। इस प्रकार अलग होकर और अलग कर्मों में प्रवृत्त होते हुए भी जिस एक चैतन्य के लिए उनकी गति हो रही है वही हिन्दू संस्कृति का मूलाधार है। गति की यह एकता-समस्ता विनष्ट न हो इसी के लिए संस्कृति के साथ धर्म को जोड़ा गया है और यह योग ऐसा हुआ है जिसे पृथक नहीं किया जा सकता यहाँ तक कि दोनों समानार्थक से दिखाई पड़ते हैं।

धर्म शब्द की व्युत्पत्ति से ही विराट की एक तानता का भाव स्पष्ट हो जाता है। जो वास्तविकता है उसी की धारणा रखना धर्म है। वास्तविक है चैतन्य। यह नित्य है, अविनश्वर है, शाश्वत है, सभी धर्मों में आत्मा के नित्यत्व को, शाश्वतपन को स्वीकार किया गया है। लेकिन अंगांगों में पृथक दिखाई देते रहने पर भी जो उसमें एकत्व है, उसको सुरक्षित रखने की ओर ध्यान न देने से विविध सम्प्रदायों की सृष्टि हो पड़ी है। हिन्दू धर्म की इस एकता को बनाये रखने, जाग्रत रखने की प्रवृत्ति अभी तक कायम है यही कारण है कि संसार में नाना सम्प्रदायों-मजहबों की सृष्टि हुई लेकिन आज उनका नाम ही शेष है। पर हिन्दू धर्म अपनी उसी विशालता के साथ जिन्दा है। हिन्दू धर्म वास्तव में मानव धर्म है। मानव की सत्ता जिसके द्वारा कायम रह सकती है और जिससे वह विश्व चैतन्य के विराट अंग का अंग बना रहा सकता है उसी के लिए इसका आदेश है।

हिन्दू धर्म की विशेषता का सबसे बड़ा उस की अपनी विशिष्ट उपासना पद्धति। विश्व आत्मा की उपासना के लिए उसके समय विभाग में कोई एक काल में विभाजित नहीं है। उनका तो प्रत्येक क्षण उपासनामय है। वे अपने विश्व चैतन्य को एक क्षण के लिए भी भूलना नहीं चाहते, बल्कि गति विधि का प्रत्येक भाग इन चेतन देव के लिए ही लगाना चाहते हैं।

उपासना की दृष्टि से विराट पुरुष चार भागों में विभक्त है और समय भेद में भी उनके चार भाग कर दिये गये हैं। ये दोनों प्रकार के चार च्र भाग हिन्दू संस्कृति में वर्ण एवं आश्रमों के नाम से पुकारे जाते हैं। यों समस्त ब्रह्मांड में वर्ण धर्म और आश्रम धर्म पाये जाते हैं। लेकिन हिन्दू संस्कृति उन्हें पृथक नहीं रहने देना चाहती। उसकी दृष्टि में उनका अस्तित्व तब ही तक है जब तक की कि विराट पुरुष की रक्षा के लिए उनकी गतिविधि है। दूसरे शब्दों में विश्व चैतन्य की सामंजस्य स्थापना में वे अपने को लगाये हुए हैं। लेकिन अन्य संस्कृतियाँ या धर्मों की दृष्टि विराट के प्रति नहीं हैं वे अंग के अंश तक ही सीमित हैं। कोई भी बुद्धि विशिष्ट व्यक्ति इस बात को स्वीकार किये बिना नहीं रह सकता कि समस्त शरीर का ध्यान छोड़कर शरीर के किसी एक ही अंग का ध्यान रखने से शरीर की रक्षा संभव ही नहीं हो सकती। अतः सौ लोग चैतन्य को भुलाकर, जिसमें कि विराट पुरुष के शरीर को विभिन्न अंगों के द्वारा एक कर रखा है, अलग अलग अंगों तक ही अपने को सीमित रखते हैं और अपने साथी एवं सहयोगी दूसरे अंगों का ना सिर्फ भुला देते हैं बल्कि उनके साथ प्रतिस्पर्धी बनकर उनकी सत्ता ही खो देना चाहते है वे स्वयं भी अपनी सत्ता कैसे स्थिर रख सकते हैं। इसीलिए हिन्दू संस्कृति में इस स्पर्द्धा से बचने के लिए जीवन के आरम्भ काल में प्रत्येक को स्वरूप ज्ञान करने का आदेश है। चिन्मय सत्ता के साथ, विराट के साथ व्यक्ति को जोड़ने वाली इस कड़ी का नाम ही ब्रह्मचर्याश्रम है। इस नाम में ही यह ध्वनित होता है कि मानव की वह स्थिति जिसमें कि वह ब्रह्म में-विराट पुरुष में -विश्वात्मा में भ्रमण करना सिखाया जाता है। जिस प्रकार शरीर के नाक, कान, आँख आदि के काम अलग अलग हैं उनकी योग्यताएं और स्थितियाँ अलग अलग हैं उनकी सत्ता अलग अलग होते हुए भी उनकी स्थिति तभी तक है जब वे इस देही के लिए अपनी स्थिति बनाये रखे, आत्मा के लिए कान सुने, नाक सूँघे और आँख देखे। जिस समय ये अपने लिए ही सुनना, सूँघना और देखना आरम्भ कर देंगी उसी समय उनकी स्थिति खतरे में पड़ जायेगी और उनका विनाश होना निश्चित हो जायगा। विराट पुरुष के विविध अंगों के साथ ही यही बात सुनिश्चित है। अंगों के कार्यों की क्षमता की दृष्टि से उनके वर्ण नाम से चार भेद किये हैं। अन्तःशक्ति को मापने का पैमाना वर्ण है। जो जैसा काम कर सकता है उसका उसी प्रकार का सूक्ष्म रंग होता है जो स्थूल जगत में रंग दिखाई देते हैं वे उन्हीं सूक्ष्म वर्णों के स्थूल तेजस रूप है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नाम से जिन चारों वर्णों को व्यक्त किया जाता है उनका विभेद, उनकी कार्य क्षमता की दृष्टि से ही किया गया है। ये विराट् पुरुष के प्रधान अंग हैं। और फिर शेष अंगों का इन्हीं चारों में अन्तर्भाव हो जाता है। ब्रह्मचर्याश्रम इन चारों को ही ब्रह्म में वरण करने की विद्या सिखाता है।

शरीर के मुख, बाहू, उरु, पाद का काम अपने लिए नहीं है, समस्त शरीर के लिए है, उसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र का काम अपने लिए नहीं विराट पुरुष के लिए है। इस दृष्टि को अन्त तक बनाये रखने की शिक्षा ब्रह्मचर्याश्रम में दी जाती है। तब द्वितीय अवस्था आती है। यह गृहस्थाश्रम है। यह आश्रम कर्म प्रधान है, व्यवहार प्रधान है। जो शिक्षा का क्रियात्मक रूप गृहस्थाश्रम से आरम्भ होता है, वानप्रस्थ में इसकी वृद्धि होती है और संन्यास में परिपक्वता आती है। इस प्रकार शरीर में रहकर और शरीर रक्षा के लिए ही अपना रक्षण और अस्तित्व बनाये रखकर शरीर के प्रति आत्मोत्सर्ग कर देना शरीराँगों का काम है। विश्व आत्मा के लिए उसी प्रकार अपना अस्तित्व रखकर कार्य करते हुए उत्सर्ग कर देना वर्ण धर्म का उद्देश्य है। चैतन्य शक्ति को क्षण भर भी न भुलाने वाली यह हिन्दू संस्कृति हमेशा आत्मा की ओर ही अभिमुख रहती है और रही है। और इस ओर अभिमुख रहना ही हिन्दू धर्म को बचाये रखने का एक मात्र साधन है।

हिन्दू धर्म अध्यात्म प्रधान रहा है। आध्यात्मिक जीवन ही उनका प्राण है। अध्यात्म के प्रति उत्सर्ग करना ही सर्वोपरि नहीं है बल्कि पूर्ण शक्ति का उद्भव और उत्सर्ग दोनों की ही आध्यात्मिक जीवन में आवश्यकता है। कर्म करना और कर्म को चैतन्य के साथ मिला देना ही यज्ञमय जीवन है। यह आध्यात्मिक जीवन ही यज्ञमय जीवन है। यह यज्ञ जिस संस्कृति का आधार होगा, वह संस्कृति और उस संस्कृति को मानने वाली जाति हमेशा अमर रहेगी।

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