प्रगति या विनाश के पथ पर

October 1948

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(श्री विट्ठल शर्मा, चतुर्वेदी)

मानव शक्ति प्रगति कर रही है, सभ्य बन रही है अनेकों बार यह बात दुहराई गई है। और इसे दुहराने के साथ उदाहरण के रूप में कहा जाता है कि पहले के लोग जंगली थे, व ऐसा रहन सहन था, न ऐसा लिबास, कन्दमूल खाते थे, बलकल पक्कल पहनते थे और जंगलों की गुफाओं में जंगलियों की तरह रहा करते थे। अपनी रक्षा के लिए पत्थर से काम लेते थे। धीरे धीरे सभ्यता का प्रसार हुआ, लकड़ी और लोहे के हथियार बने। इस सभ्यता के युग में तोपें हैं बन्दूकें हैं, मशीनगनें हैं और बम तथा गैसों का उपयोग किया जाता है। परमाणु शक्ति की खोज हो गई है इस तरह मनुष्य दिन पर दिन सभ्य होता जा रहा है, वह विकास की ओर है। सुनकर हँसी सी आती है।

जब हथियारों की वृद्धि होती है तो मनुष्य कितना अरक्षित अपने आपको मानने लगता है, कितने भय का संचार हो जाता है क्या किसी ने इसे सोचा। कौन कहेगा कि भय की वृद्धि सभ्यता की निशानी है। जैसे जैसे भय की वृद्धि होती है, पशुता का विकास होता है ओर चेतना की मूर्छा बढ़ती जाती है। तब क्या प्रगति का अर्थ पशुता का विकास है चेतना का विकास नहीं। सभ्यता में पशुता के विकास का उदाहरण देना कितना हास्यास्पद है।

पहले के उदाहरण जब भी सुनने को मिलते हैं, हमें कहा जाता है, पहले मकानों में ताले नहीं लगते थे, चोर और डाकुओं का नाम भी नहीं था। कभी अकाल नहीं पड़ते थे। कोई व्यभिचार नहीं करता था। बाप के सामने कभी बेटों की मृत्यु नहीं हुई। मन चाहा पानी बरसता था और मनमाना दूध घी खाने को मिलता था। और आज बाप बैठा रहता है, बेटा मर जाता है किसी की कोई चीज सुरक्षित नहीं है। तिजोरियाँ और तालों की नित्य नयी सृष्टि हो रही है। क्या यही सभ्यता है, क्या यही प्रगति है।

जिस प्राणी को हम देखते हैं उसमें दो तत्व दिखाई देते हैं- एक जड़ तत्व है, दूसरा चेतन। जब जड़ का विकास होता है चेतन दब जाता है। पहले चेतना का विकास था, नैतिकता बढ़ी हुई थी सब अपने धर्म को पहचानते थे। विश्व के समस्त प्राणी सब में व्याप्त एक ही आत्मा का दर्शन और अनुभव किया करते थे। अब हर एक की अपनी ढपली और अपना राग है। चेतना मूर्च्छित होती जा रही है। उसका स्थान जड़ता ले रही है। जड़ता नष्ट होने वाला तत्व है, उसे अमर करने के लिए आज की सभ्यता का विकास है, जो मरणधर्मा है उसको अमरत्व न कभी मिला न कभी मिलेगा बल्कि जो तत्व अमर था उसे और मरणधर्मा बनाने का छिपे छिपे प्रयत्न हो रहा है। और हम देख रहे हैं कि आज की सभ्यता उस चेतना आत्मा को नित्य प्रति मूर्च्छित करती जा रही है। नैतिक तत्व विदा ले रहे हैं। समता और एकत्व को कोई मानता नहीं है। अनेकता का बोलबाला ओर चैतन्यहीन होकर जड़ तत्व पर अपने अधिकार स्थापना की डींग मारी जा रही है। घर घर में कलह है, राग द्वेष है, खून-खच्चर है। गाँव गाँव, जिला जिला, प्रान्त प्रान्त और देश देश में यह बीमारी बढ़ गई है। एक दूसरे को हड़प जाने और फाड़ खाने के लिए तैयार है। इन मनुष्य शरीरधारी पशुओं का उन पशुओं के साथ मुकाबला तो कीजिये जो पेट भर जाने पर अगले दिन का भार अपने पुरुषार्थ पर छोड़ देते हैं, जो संग्रह नहीं करते और जिन्होंने अपने राज्य की तथा रहने की कोई सीमा नहीं बनाई है। उनसे भी कितने गये बीते और पीछे हो गये हैं हम। फिर भी कहते हैं कि सभ्यता की दौड़ में हम आगे बढ़ रहे हैं। हम प्रगतिशील हैं।

हम हम कहकर जिसे हम प्रगतिशील कहते हैं कौन है वह? क्या हम उसे जानते हैं, समझते हैं, देखा है हमने क्या उसे? लेकिन कहीं कोई इसकी चर्चा नहीं करता, तब फिर कौन प्रगति कर रहा है? कहाँ प्रगति हो रही है?

प्रगति का अर्थ आगे बढ़ना ही नहीं है, प्रकृष्ट गति भी इसका अर्थ है। जिसमें गति होती है वही गतिवान् होता है। जो जड़ है उसमें गति नहीं होती। गति हमेशा आगे ही होती है। जब गति रुक जाती है तब उसका गिरना आरम्भ होता है। आज हमने अपने आपको जानना समझना बन्द कर दिया है। शक्ति भंडार का ताला बन्द कर दिया है इसलिए हम बड़ी तेजी से जड़ बनने की ओर लुढ़क रहे हैं। चेतना गुप्त हो रही है। हम प्रगति की ओर नहीं विनाश की ओर बढ़ रहे हैं। हमारी प्रगति विनाश की ओर है, जड़ की ओर है हम अपनी स्वाभाविक शक्तियों को खोते जा रहे हैं। निरन्तर जड़ के काबू में आते जाने के कारण हमारा कार्य आत्म हत्या जैसा हो रहा है।

वास्तविक प्रगति का अर्थ है चेतना पर जो जड़ का काबू है, उसे हटाना। चेतन राज्य की सीमा का विस्तार करना। आत्मशक्ति को दृढ़ से दृढ़तर करना। दूसरे शब्दों में जड़ पर चेतना का प्रभुत्व कायम करना। इस प्रगति में बेटे को बाप की कमाई नहीं मिलती। इस कमाई में हर एक को श्रम करना पड़ता है। यह कमाई पैसे से नहीं खरीदी जाती यह तो श्रम से ली जाती है। आत्म उद्धार के लिए व्यक्ति को स्वयं ही प्रयत्न करना पड़ता है, स्वयं ही साधना करनी पड़ती है। आज की सभ्यता इस साधना का स्पर्श करके भी नहीं चल रही है। यह कथित सभ्यता कितनी दूर है प्रगति से।

यदि आप विनाश को बुरा समझते हैं और इस सभ्यता को विनाशवाद की ओर जाते देखते हैं तो क्या फिर भी इसी ओर चलते रहना पसन्द करते हैं। क्यों नहीं आत्मा की ओर प्रगति करते। क्यों नहीं आत्म शक्ति पर निर्भर रहते। क्यों नहीं उसे जमाने की कोशिश करते। जो विनाश निकट भविष्य में दिखाई दे रहा है, उससे मुक्ति देने का एक मात्र उपाय इस सर्वग्राही जड़ उपासिका सभ्यता को छोड़कर आत्म-शक्ति की प्रतिष्ठा करना है। आत्मोद्धार की ओर आगे बढ़ना है, नैतिकता को वरण करना है। वास्तविक सभ्यता यही सभ्यता है। यही प्रगति का पथ है। यही भारत की प्राचीन सभ्यता है जिसका कि उसको गौरव है और जिसके कारण भारत आज गौरव की नजरों में देखा जाता है।

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