(श्री दौलतराम कटरहा बी.ए., दमोह)
जब किसी वस्तु पर दो परस्पर विपरीत दिशाओं से एक बराबर आकर्षण होता है, जिसके कारण न तो वह वस्तु एक ओर ही झुकी हुई होती है और न दूसरी ओर ही, तब विज्ञान की भाषा में उस वस्तु की स्थिति संतुलित कही जाती है। उसी प्रकार जब साँसारिक पदार्थों में प्रवृत्ति होने की हम में जितनी शक्ति होती है तब हमारे मन की अवस्था संतुलित होती है। जब हमें किसी पदार्थ के प्रति न तो राग होता है और न द्वेष, जब हमें किसी पदार्थ से न तो आकर्षण होता है और न विकर्षण, तब हमारी चित्त गति को समत्व-युक्त और संतुलित कहा जा सकता है। गीता इसी समत्व या संतुलन की शिक्षा देती है।
इस समत्व को आचरण में उतारने के लिए केवल विरागी अथवा रागहीन होने से ही कार्य न चलेगा। संतुलित अवस्था तो तब होगी जब आप रागहीन होने के साथ साथ द्वेषहीन भी होंगे। हमारे भारतीय साधुओं ने वही भूल की। वे होने के लिए तो विरागी हो गए पर साथ साथ अद्वेषी (अद्वेष्टा) न हुए। राम से बचने की धुन में उन्होंने द्वेष को अपना लिया। संसार के सुख दुख से सम्बद्ध न होने की चाह में उन्होंने संसार से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर दिया और उसकी सेवाओं से अपना मुख मोड़ लिया।
जब दो गुण ऐसे होते हैं जो मनुष्य को परस्पर विपरीत दिशाओं में प्रवृत्त करते हैं, तो उनके पारस्परिक संयोग से चित्त की जो अवस्था होती है उसे भी संतुलित अवस्था कहते हैं। दया मनुष्य को दूसरों का दुख दूर करने में प्रयुक्त कराती है पर निर्मोह या निर्ममत्व मनुष्य को दूसरों के सुख दुख से सम्बन्धित होने से पीछे हटाता है। अतएव दया और निर्ममत्व दोनों के एक बराबर होने से चित्त संतुलित होता है। जहाँ दया मनुष्य को अनुरक्त करती है। वहाँ निर्ममता विरक्त। दया में प्रवृत्तात्मक और निवृत्तात्मक शक्ति है। उसी तरह संतोष और परिश्रम-शीलता एक दूसरे को संतुलित करते हैं। परिश्रम-शीलता में प्रवृत्तात्मक और संतोष में निवृत्तात्मक शक्ति है। उसी तरह सत्यता और मृदुभाषिता, सरलता और दृढ़ता, धृति और उत्साह, विनय और निर्भीकता, नम्रता और तेज, निरहंकारता और आत्म-विश्वास, प्रेम और अनभिश्वंग, सेवा और अनासक्ति, निर्मत्व और आत्मभाव, शुचिता और घृणाहीनता, श्रद्धा और आत्मनिर्भरता, स्वतंत्रता और उत्तरदायित्व, तितिक्षा और आत्म रक्षा, दृढ़ता और हठ-हीनता, विराग और अद्वेष, स्वच्छन्दता और संयम-शीलता, निष्कामता और आलस्यहीनता, अपरिग्रह और द्रव्योपार्जन- शक्ति, निर्वैरता और सावधानता, धैर्य और प्रयत्न-शीलता, प्रताप और सरलता, ओजस्विता और मृदुता, प्रभुत्व और कोमलता, योग्यता और निरभिमानता, क्षमा और मनुष्यत्व, सहिष्णुता और शक्ति सम्पन्नता परस्पर एक दूसरे के विकास की ओर ध्यान न दिया जावे तो मनुष्य का व्यक्तित्व असंतुलित एवं एकाँगी हो जायेगा। श्रद्धालु व्यक्ति में श्रद्धेय व्यक्ति के अनुगमन करने तथा उसके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलने की प्रवृत्ति होती है, स्वतन्त्रता प्राप्त व्यक्ति पर अंकुश न होने से उनमें निरंकुशता और उच्छृंखलता बढ़ सकती है, दृढ़ प्रकृति व्यक्ति में हठ करने की प्रवृत्ति हो सकती है, प्रभुत्वशाली व्यक्ति में अभिमान बढ़ सकता है इत्यादि, अतएव जब तक इन व्यक्तियों में क्रमशः आत्मनिर्भरता, उत्तरदायित्व, हठ-हीनता और निराभिमानता का विकास न होगा तब तक पूर्वोक्त गुण अपनी अपनी सीमा के भीतर न रहेंगे। अतएव उपरोक्त युग्मों में से प्रत्येक गुण एक दूसरे को मर्यादित करता है और एक दूसरे का पूरक है।
जब मनुष्य में दंड देने की सामर्थ्य रहते हुए भी, अपमान सहन करने की क्षमता होती है, जब वह अहिंसा व्रत पालते हुए भी अपराधियों को अधिकाधिक उच्छृंखल, उद्धत, अभिमानी और निष्ठुर नहीं बनने देता, जब वह सेवा व्रती होते हुए भी सेव्य जनों को आलसी परमुखापेक्षी और अकर्मण्य नहीं होते देता, जब वह क्रोध में होते हुए भी अनुशासन और नियन्त्रण बनाए रखना जानता है, जब उसमें भुक्ति और उत्साह होते हुए भी दास-वृत्ति ओर उतावलापन नहीं होता, जब वह सफलता में विश्वास रखते हुए भी कार्य करने में लापरवाही नहीं करता, जब वह मान सम्मान की परवाह न करते हुए भी लोककल्याण करने वाले शुभ कर्मों के करने में पूर्ण उत्साही होता है, जब वह अपमान से दुखी न होते हुए भी अपमानजनक कार्य न करने का संयमी एवं आत्मनिग्रही होता है, जब वह शुभकर्मों को करने के लिए बाध्य न होते हुए भी स्वेच्छा से उन्हें तत्परतापूर्वक अच्छी तरह करता है, तब वह किसी कार्य के प्रवृत्त होने के साथ साथ उससे निवृत्त भी हो सकता है तब उसके चरित्र और गुणावलियों में संतुलन आता है।
जब दो विचार धाराएँ मनुष्य से भिन्न भिन्न क्षेत्रों में कार्य कराती हैं तब उनके समन्वय से जो स्थिति होती है उसे संतुलित विचार-धारा कहते हैं। आत्म सुख की भावना बहुधा मनुष्य को स्वार्थमय कर्मों में प्रवृत्त करती है और लोक सुख की भावना लोक कल्याण के कार्यों में। अतएव आत्म सुख और लोक सुख दो विभिन्न दृष्टि-कोण हुए। इनके समन्वय से जो मध्यम-स्थिति उत्पन्न होती है वही संतुलित विचार-पद्धति है। उसी प्रकार जिसकी विचारधारा में पूर्व और पश्चिम के आदर्शों का समन्वय आदर्श और यथार्थ का समन्वय हुआ है और जो मध्यम मार्ग को अपनाए हुए हैं उसी की विचारधारा संतुलित है।
जब हम किसी एक ही कार्य के पीछे पड़ जाते हैं अथवा जब हम किसी कार्य में अति करने के कारण दूसरे करणीय कार्यों को भूल जाते हैं तब हमारी कार्य-पद्धति असंतुलित होती है। यदि हम एकदम धन कमाने के पीछे पड़ जावें, अथवा यदि हम केवल पढ़ने पढ़ने में ही अपना सारा समय बिताने लगें तो हमारी कार्य पद्धति असंतुलित होगी। यदि कोई विद्यार्थी अपने हस्तलेखन की केवल गति ही बढ़ाने पर ध्यान दें ओर अक्षरों की सुन्दरता पर ध्यान न दे तो आप उसके प्रयत्न को क्या कहेंगे? उसी प्रकार यदि किसी देश में ऐसा कोई आयोजन हो कि केवल शिक्षा की क्वालिटी या उसकी उत्कृष्टता पर ही एक मात्र लक्ष्य हो और इस बात का ध्यान न हो कि शिक्षा अधिक से अधिक संख्या के लोगों को उपलब्ध हो सकें तो उस देश के शिक्षा शास्त्रियों की कार्य पद्धति असंतुलित ही कही जायेगी। यही बात मानव जीवन पर भी घटित होती है। हमें केवल एक ही दिशा में घुड़दौड़ नहीं मचानी चाहिए वरन् सब दिशाओं में समुचित विकास करते हुए मानसिक संतुलन को बनाये रखना चाहिए तभी हम अगाध मानसिक शक्ति के दर्शन कर सकेंगे।
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