जीवन पर एक तात्विक दृष्टि

October 1948

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(सन्त बिनोवा)

जीवन तो भगवान की उपासना है, यह विचार नया नहीं है, बल्कि यह विचार तो ठेठ वेदों तक चला गया है।

समूचा जीवन उपासना भय है यह विचार प्राचीन ग्रन्थों में होने पर भी मध्य युग में कुछ फर्क पड़ गया। क्योंकि मध्य युग में ऐसा विचार चलने लगा कि कर्म बन्धन कारक है, किन्हीं किन्हीं ने तो उन्हें मारक तक समझा लिया इसलिए कर्म का जितना त्याग किया जा सका, किया गया और केवल भिक्षा माँगकर उदर पोषण करने की बात आरम्भ हुई। मध्य युग में किसी भी सन्त की जाँच की जाय तो उसके पीछे दिखाई देगा कि उसका कपड़े सीना खेती करना आदि कार्य पेट के लिए करता रहा है। दूसरों पर बोझ डालकर पेट भरने की वृत्ति से बचने के लिए उसका प्रयत्न है। लेकिन यह विचार धारा तो बुरी है। यह कार्य भी भगवान सेवा है वह इसे नहीं समझता। उसमें यह भावना काम कर रही होती है कि हरि सेवा है और सब काम तो केवल पेट के लिए है। नतीजा इसका यह हुआ कि सबेरे शाम जब कि भजन पूजन का समय होता तब आचार की शुद्धता पर ध्यान दिया जाता और शेष व्यवहार के समय में उसकी आवश्यकता न समझी जाती। यहाँ तक कि व्यवहार में असत्याचरण को भी स्थान मिल गया।

आचरण के बिना भक्ति अधूरी है। झूठी है यह व्यर्थ हो जाती है। आज तो हालत यहाँ तक आ पहुँची है कि ऊपर ‘श्रीहरि’ लिखकर नीचे जमा खर्च की वही से 50) रुपये देकर 100) के कागज पर सही कराने जैसे जमा खर्च करने में लोगों को कोई अटपटापन नहीं मालूम होता।

आज के भक्त अथवा साधु के नियम से सोचा यह गया है कि वह अल्पभोजी हो और काम भी कम ही करे। साधु को ज्यादा काम करने की आवश्यकता ही नहीं है, अगर कोई साधु बरतन माँजने लगे तो लोग कहेंगे बरतन मलने से साधु को क्या सरोकार?

हमें समस्त जीवन भक्ति भय, उपासना भय बनाना होगा, इसीलिए मैंने एक व्रत सूत्र बनाया है-

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, असंग्रह। शरीरश्रम, अस्वाद, सर्वत्र, भयवर्जन, सर्वधर्मी, समानत्व, स्वदेशी, स्पर्श भावना, ही एकादश सेवावी नम्रत्वे व्रतनिश्चये।।

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, असंग्रह, शरीर श्रम, अस्वाद, निडरपन, सब धर्मों में समान भाव, स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग, किसी को अस्पर्श न समझना यह ग्यारह व्रत नम्रतापूर्वक आचरण में लाने चाहिए। इस व्रतों को भक्तिपूर्वक अमल में लावें, समस्त जीवन को उपासनामय बनायें, जो जो व्यवहार हम करें फिर चाहे वह बाजार का हो या रसोई का चाहे चक्की पीसने का ही क्यों न हो, सबको भगवत् सेवा समझ कर करें तो हमारा काम खत्म हुआ। हमारा ध्येय होना चाहिए कि हम जीवन के प्रत्येक काम से भगवान की उपासना कर रहे हैं। यही जीवन की वास्तविक दृष्टि है।

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