अन्धों की दुनिया

June 1947

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यह दुनिया अंधों का एक विचित्र मजमा है। विचित्र इसलिए कि लोग समझते हैं हमारी आँखें मौजूद हैं- हम देखते हैं तो भी वस्तुतः वे अंधे ही हैं। जरा आंखें मूँद कर देखिए तो सही इन आँख वालों में अधिकाँश अंधे ही अंधे भरे पड़े हैं।

लोभी पुरुष अन्धा है क्योंकि वह यह नहीं देखता कि इस संपत्ति का क्या करूंगा? जिस तरह इसे जोड़ने और जमा करने में जुटा हुआ हूँ इससे मेरा क्या हित होगा?

असंयमी अन्धा है। क्योंकि वह यह नहीं देखता कि-लगातार खर्च करने से, आमदनी से ज्यादा, खर्च करने से मेरा कोष चुक जायगा और शीघ्र ही दिवालिये की दुर्दशा भोगनी पड़ेगी।

युवा अंधा है। क्योंकि वह चमकती हुई जवानी को देखता है पर लाचारी भरे रूप बुढ़ापे को नहीं देखता। उसे नहीं मालूम कि आज का इठलाता हुआ यौवन कल पानी के बुलबुला की तरह बैठ जाने वाला है।

वृद्ध अंधा है क्योंकि वह मृत्यु को नहीं देखता। मौत की गोद में झूलते हुए भी, संसार से बहिष्कृत होते हुए भी भोगों में असमर्थ होते भी वह माया ममता को नहीं छोड़ता।

पुजारी अन्धा है क्योंकि वह पूजा का इतना आडम्बर तो करता है पर यह नहीं देखता कि ईश्वर को सब आडम्बरों से नहीं रिझाया जा सकता है।

तीर्थ यात्री अन्धा है क्योंकि वह दूर देशों में भ्रमण करता है, नहीं तालाबों और मन्दिरों, मठों में ईश्वर को तलाश करता है पर यह नहीं देखता कि जिसे तलाश करता हूँ वह तो मेरे अंदर ही बैठा है।

पापी अन्धा है क्योंकि वह तात्कालिक लाभ को देखता है पर उस पाप के कारण जो दुराह पीड़ा मिलने वाली है उसे नहीं देखता।

उपदेशक अंधा है क्योंकि वह यह नहीं देखता कि पाण्डित्यपूर्ण वक्ताओं का नहीं, क्रियात्मक आचरण का उपदेश ही दूसरों पर प्रभाव डालता है।

यशेच्छु अन्धा है जो अपने बनाये हुए ऊंचे शिवालय को अमर कीर्ति समझता है पर यह नहीं देखता कि उस दिन के बने विशाल भवन आज खंडहर मात्र रह गये हैं।

चोर अंधा है क्योंकि वह माल को देखता है पर ईश्वर को नहीं देखता। दूसरों की आँखों में धूलि झोंककर वह माल ले जाता है पर उसे नहीं मालूम कि शक्तिवान् सत्ता उसके सिर पर खड़ी यह सब देख रही है और जितना चुराया है उससे अधिक उगलवा लेने के लिए प्रबंध कर रही है।

विद्वान् अंधा है क्योंकि वह अपने ज्ञान को तो देखता है, पर अज्ञान को नहीं देखता। मैंने इतने ग्रन्थ पढ़े हैं यह तो उसे याद होता है पर याद नहीं होता कि जितने ग्रन्थ अभी पढ़ने शेष हैं, उनकी तुलना में पढ़े हुए ग्रन्थों का परिमाण इतना ही है जितना समुद्र के मुकाबले में एक बूँद।

साधु अन्धा है क्योंकि वह साधुता को देखता है असाधुता को नहीं। वह भूल जाता है कि उसके सीधेपन का अनुचित लाभ उठाकर कितने ही दुष्ट निर्भय होकर दुष्टता करते हैं। इस प्रकार उसकी साधुता असाधुता को बढ़ाने का निमित्त बनती है।

ईश्वर अन्धा है क्योंकि उसे यह नहीं दिखा कि मैं जिस संसार की रचना कर रहा हूँ, उसमें शैतान घुस पड़ा है और मेरी पुनीति कृति को कलंक की कलिया से पोत रहा है।

इन पंक्तियों का लेखक अन्धा है क्योंकि उसकी लिखी हुई इन पंक्तियों को एक उपहास मात्र समझा जायगा यह जानते हुए भी वह लिखता ही जा रहा है।

हे पवित्र!-


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