(श्री. दौलतराम कटरहा वी. ए. दमोह)
विचारों की शक्ति के संबंध में हमें जो कुछ भी थोड़ा बहुत ज्ञान प्राप्त हुआ है उससे हम आज दृढ़तापूर्वक कह सकते हैं कि विश्व के साथ मैत्री भाव रखने से न केवल विश्व में सुन्दर विचार तरंगें ही फैलती हैं जिससे कि विश्व का वातावरण न्यूनाधिक मात्रा में शुद्ध एवं परिष्कृत हो जाता है बल्कि साथ साथ व्यक्तिगत दृष्टि से मैत्री-भाव रखने वाले मुमुक्षु को महान लाभ होता ही है, साधक सब प्राणियों का सुहृद् बन जाने के कारण अजात रिपु हो जाता है, वह विश्व की ओर से निर्भय हो जाता है तथा उसे अनेकों झंझटें परेशान नहीं करती और न दुश्चिंताएं ही उसे मानसिक पीड़ा पहुँचाती हैं।
शत्रुत्व-भाव का पोषण करने के कारण साँसारिक जीवन जिन कठिनाइयों में उलझे हुए रहते हैं वह उनसे बिलकुल बच निकलता है किंतु मैत्री-भावना से उसे केवल यही अभावात्मक लाभ नहीं होता। उसके तो आह्लाद में भी वृद्धि होने से उसके चित्त की अवस्था समुन्नत हो जाती है। यदि कहीं उसकी मैत्री भावना और भी अधिक प्रबल हुई तो वह केवल मानसिक क्षेत्र तक ही सीमित न रहेगी बल्कि वह व्यक्ति उसकी प्रेरणा से आगे चलकर समस्त प्राणियों के हित-साधन में निरत हो जावेगा और “वसुधैव कुटुम्बकम्” के आदर्श को अपने आचरण में उतारने का प्रयत्न करेगा और तब उसका क्षद्र “न्व”, महत् ‘स्व’ में विलीन हो जावेगा अर्थात् उसके क्षद्र ममत्व और मोह के बंधन कट जावेंगे।
इसी महत् ‘स्व’ से एकात्म्य ही में तो क्रमिक विकास की परिसमाप्ति होती है अर्थात् यही उसकी परमावधि है। इसी तरह मैत्री-भावना हमें न केवल आनन्द या प्रसन्नता ही प्रदान कर सकती है वरन् वह हमें अच्छी तरह रस से सराबोर कर आध्यात्मिक अवस्था की चरम सीमा तक पहुँचाने में समर्थ है। रस-स्निग्ध होकर हम जिस रस की प्राप्ति करते हैं वही तो परमात्मा का स्वरूप है। उपनिषद् का वचन है ‘रसो वै सः’, अतएव प्रत्येक मुमुक्षु का कर्त्तव्य है कि वह न केवल यह मंगलमय कामना करे कि ‘सब सुखी हो, सब निरामय हो, सब श्रेय को देखें, बल्कि वह क्रियात्मक रूप से भी विश्व कल्याण में निरत हो जावे।
विश्व-हित में निरत हुए बिना, इन विचारों से हम अपना व्यक्तिगत कल्याण भले ही कर सकें, किंतु व्यक्तिगत हित-साधन तो जीवन का अपूर्ण आदर्श ही है। इस तरह तो हम अपने क्षुद्र ममत्व के दास ही बने रहेंगे और भले ही अनेकों साधनों द्वारा हमारे चित्त की अवस्था अत्यन्त उत्कृष्ट हो जावे किन्तु फिर भी हम किसी देह-विशेष में ही अपने को सीमित समझेंगे और जब कि हम यह जानते हैं कि सीमा-बंधन भी तो आखिर एक बंधन ही है तब हमें यह ससीमता मुक्ति कैसे दिला सकेगी? मुक्ति तो उसी पुरुष की होती है जिसका व्यवहार इस तरह होता हैं मानों वह सब भूतों के अन्दर वर्तमान है और सब भूत उसके अन्दर वर्तमान हैं अर्थात् मुक्ति उसी को प्राप्त होती है जो समष्टि के लाभ में अपना व्यक्तिगत लाभ देखता है और अपने व्यक्तिगत समष्टि अविरोधी हित में समष्टि का हित जानता है।
यदि कोई व्यक्ति अपनी अन्तःशक्तियों को जाग्रत कर उनका प्रसार करता है तो समाज का अंग होने के कारण, उसकी उन्नति से समाज की स्थिति की ही उन्नति होती है। पुनश्च यह भी संभव है कि उसकी विकसित शक्तियों के प्रयोग द्वारा समाज की पहिले से भी अधिक एवं श्रेष्ठ सेवा हो सके। अतएव व्यक्ति के समष्टि अविरोधी हित में समष्टि का हित भी अनिवार्य रूप से सन्निहित है। इसलिए हमारे लिए न केवल व्यक्तिगत साधना ही अभीष्ट है बल्कि सामूहिक अथवा राष्ट्रीय जीवन में भी हमें सक्रिय भाग लेने की आवश्यकता है। हमें न केवल स्वतः ही मुक्ति के पथ में अग्रसर होना पड़ेगा बल्कि दूसरों को भी इसी पथ पर अग्रसर होने के लिये प्रेरित करना पड़ेगा। तभी हमारे जीवन में पूर्णता आ सकेगी, तभी हम वास्तविक अर्थ में विश्व-मित्र हो सकेंगे और तभी हमारा सार्वभौम प्रेम फलदायक होगा। भगवान बुद्ध इस तत्व से पूर्णतया परिचित थे और इसीलिये उन्होंने यह इच्छा प्रकट की थी कि व्यक्तिगत मुक्ति तब तक न होगी जब तक कि विश्व का प्रत्येक जीव मुक्ति न हो जावेगा।
मैत्री-भावना के प्रसार विस्तार या उन्नयन से न केवल व्यक्ति-विशेष की ही आध्यात्मिक प्रगति होती है बल्कि उसके शान्ति-पूर्ण विचारों से विश्व का वातावरण भी प्रभावित होता है और उस व्यक्ति की भी उन्नति होती है जिसके कि प्रति वह व्यक्ति अपने विचारों को संचालित करता है। इस तरह उस व्यक्ति के चारों ओर एक अच्छा वातावरण तैयार हो जाता है जिससे कि उस व्यक्ति के लिये विश्व से तादात्म्यता की प्राप्ति के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ भी उपस्थित होने लगती हैं। किन्तु प्रेम-भाव से व्यवहार करने वाले साधक को भी अनेकों अवसरों पर शत्रुत्व का व्यवहार करने वाले लोगों से सामना करना पड़ता है जिससे कि उसकी प्रगति अबाध गति से नहीं हो पाती। ऐसे अवसरों पर साधक को धैर्य न खोना चाहिये और यह विश्वास रखना चाहिये कि जो लोग उससे आज शत्रुता का व्यवहार करते हैं वे आगे चलकर अवश्य ही मित्रता का व्यवहार करने वाले बन जावेंगे। इस विश्वास के साथ साथ जब हम अपने विरोधियों के प्रति मैत्री-भावनाएं भी भेजते रहेंगे तो हमारी ये प्रेष्य भावनाएं उनके हृदयों में भी मैत्री भावनाओं को जाग्रत करना आरंभ कर देंगी। जिस तरह घृणा-सूचक भावों के उत्तर में घृणा के प्रयोग से घृणा की ही वृद्धि होती है उसी प्रकार प्रेम और मैत्री भाव के बार-बार प्रयोग होने से प्रेम-भाव की ही वृद्धि होती है। इस तरह उस व्यक्ति का वास्तविक आत्म-विकास होता है और तब वह हमारी तथा हमारे प्रेम पथ की श्रेष्ठता में आत्म-विकास के कारण अनुभव करने लगता है। वह नत-मस्तक हो जाता है और फिर शत्रु से मित्र भी बन जाता है। किन्तु यह तब ही संभव है जब कि हम मनुष्य की आसुरी प्रकृति पर उसकी दैवी प्रकृति की अन्तिम विजय में विश्वास रखें। मैं समझता हूँ कि भले ही कोई व्यक्ति ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास न रखे किंतु यदि वह इस तथ्य में विश्वास रखता है तो वह सच्चे अर्थ में आस्तिक है। जो यह विश्वास नहीं रखता उसका सदाचारी होना बड़ा कठिन प्रतीत होता है।
यह विश्वास कि प्रत्येक व्यक्ति में जो अन्तर्द्वन्द्व होता रहता है उसमें अन्तिम विजय उसकी दैवी प्रकृति की ही होगी अर्थात् यह दृढ़ धारण कि प्रत्येक व्यक्ति सत्योन्मुखी है, हमें घृणा-हीन बनाए रखने के लिये अत्यावश्यक है। इसलिये यदि हम दूरदर्शिता खोकर किसी मनुष्य की वर्तमान परिस्थिति से ही उसके भले या बुरे होने की धारणा बनाने की भूल करेंगे और इस तरह उसे उसकी भावी उन्नत स्थिति के प्रकाश में भी देखना स्वीकार न करेंगे तो यह निश्चित ही है कि हम अवश्य ही धोखा खावेंगे। अतएव यदि हम यथार्थवादी हैं तो हमें स्मरण रखना चाहिये कि आदर्शोन्मुख यथार्थवाद ही हमारी जीवन समस्याओं का एकमात्र हल है। इसके अतिरिक्त इस तरह के विश्वास से हमको एक और प्रकार की भी सहायता प्राप्त होती रहती है। यदि यह विश्वास हमारे गले उतर गया है तो यह निश्चय है कि यह विश्वास ‘क’ के समान ही हमें अन्तिम विजय की सदा याद दिलाता रहेगा और हमें उत्साह, स्फूर्ति, शक्ति और धैर्य प्रदान करता रहेगा। सात्विक कर्त्ता के लिये सत्य की अन्तिम विजय में विश्वास रखना परमावश्यक है क्योंकि बिना इस विश्वास के धैर्य और उत्साह होना कठिन है।