सत्संगी की परीक्षा

June 1947

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[श्री पथिकजी]

सत्संग-प्रेमी सज्जन व्यवहार शुद्धि के लिये निरन्तर विवेकपूर्वक सावधान रहते हैं। सतोगुणी प्रकृति दृढ़ रहने के लिये दूषित संग और तमोगुणी व रजोगुणी आहार नहीं करते हैं। अशुद्ध विचारों का निरन्तर सजग रहकर विरोध एवं परित्याग करते हुए शुद्ध, सात्विक विचारों को ही अपने मन व मस्तिष्क में स्थान देते हैं।

सत्संगी सदा शान्त, प्रसन्नचित्त, उत्साही, गम्भीर और दुखों के बीच में सहन-शील और निर्भय रहता है।

सत्संगी को मोह नहीं होता, प्रेम होता है। मोही वह है जो अपना सुख चाहता है। प्रेमी वह है जो प्रेमास्पद को ही सुखी देखने के लिये सब कुछ करता है।

सत्संगी किसी सम्बन्धी की मृत्यु में रोता नहीं लेकिन किसी के दुःख में उसे बहुत दुख होता है और दुखी के दुख निवारण के लिये उसके सभी प्रयत्न या कर्म होते हैं।

सत्संगी में गरीबों व दुखियों की सेवा के लिये तन, मन, धन से तत्परता रहती है। रात, दिन, जाड़ा, गर्मी, वर्षा आदि द्वंद्वों में भी सेवा के अवसरों में आलस्य या प्रमाद नहीं रहता। नीच जाति तथा पापीजनों से भी घृणा नहीं होती।

सत्संगी किसी की निन्दा नहीं करता और निन्दा करने वालों से बहुत बचता है, लेकिन अपनी निन्दा तथा अपने निन्दकों से विरोध या द्वेष नहीं करता। क्योंकि अपनी निन्दा से सत्संगी की बहुत उन्नति होती है, कई सद्गुणों का अभ्यास दृढ़ होता है, विनम्रता, सहनशीलता और निरभिमान आदि सद्भाव पुष्ट होते हैं।

सत्संगी अपनी सेवा नहीं कराता वरन् सेवा करता है। कभी-कभी दूसरों की प्रसन्नता के लिये, भाव विकास के लिये ही दूसरों को भी अपने प्रति सेवा का अवसर दे देता है।


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