(श्री कुँ. हरिश्चन्द्र देव शर्मा ‘चातक’ कविरत्न)
मुग्धमना मृग ने सुन-सुन कर जिस दिन मृदु वीणा की तान।
प्राण दे दिये उसी दिवस से प्रकट हुआ आकर्षण ज्ञान॥
भ्रमरावलि ने खिली कली का जिस क्षण किया प्रथम चुम्बन।
गुञ्जल ही कह गया कान में हुआ उसी क्षण प्रेम सृजन॥
रूप दृगों में भर सरोजिनी जब रवि की करती थी चाह।
तब तन्मयता ने पहले-पहले देखी आने की राह॥
अस्ताचल गामी रवि-किरणें अन्तिम वार कमल छूकर।
चली गई सन्देश विरह का तब से ही फैला भू पर॥
बादल का घूँघट सरका कर जब सुधाँशु नभ से झाँका।
तब से ही आवरण रहित उस छवि का मूल्य गया आँका।
रात रात भर जाग कुमुदिनी ने जब प्रिय विधु को पाया।
तब से काय मिलन से मन का मिलन श्रेष्ठ कवि ने गाया॥
ताप तप्त जग को जब शीतल करने को निकले निर्झर।
तब दुखियों के दुःख मिटाने की जागी भावना प्रखर॥
कहरे के परदे को जिस क्षण चीर दिनेश निकल आया।
उस क्षण से ही साहस ने है जन्म मनुष्यों में पाया॥
जिस दिन से देखा मानव ने सरिता का प्रवाह उद्दाम।
उस दिन से ही ध्येय प्राप्ति के हित वह दौड़ रहा अविराम॥
जब देखा गुलाब काँटों में रहकर करते निज निर्माण।
तब जाना उन्नत होते हैं विघ्न व्यूह में पड़कर प्राण॥
जब पतझड़ की पीली पत्ती पवन उड़ा कर लाया पास।
तब जीवन की नश्वरता का मिला प्रथम जग को आभास॥
जब से यह देखा मानव ने पवन घूमता है स्वच्छन्द।
तब से ही स्वतन्त्र रहने की इच्छा उपजी उसे अमंद॥
कवि ने जिस क्षण सुना क्रौंची बध पर क्रौंच का करुण विलाप।
उस क्षण से ही स्रोत काव्य का बहा हृदय में अपने आप।
-कर्मयोग से
*समाप्त*