मनुष्य का पद बहुत ऊँचा पद है। चौरासी लाख योनियों में सबसे ऊँची मनुष्य योनि है। जब विकास करते करते जीव इस दर्जे को प्राप्त करता है जो परमात्मा के प्रत्यक्ष सान्निध्य में आने का अधिकारी है तो उसे मनुष्य शरीर मिलता है। यह बहुत बड़ी सफलता है।
जैसे जैसे उच्चता प्राप्त होती है वैसे ही उत्तरदायित्व बढ़ता है। प्रतिष्ठा और गौरव प्राप्त होने के साथ उसकी रक्षा का भार भी आता है। छोटा बच्चा नंग धड़ंग फिर सकता है, वह क्षम्य है, क्योंकि मनुष्य की जिम्मेदारी अभी उस पर नहीं आई है। जब बालकपन समाप्त होता है तो वह जिम्मेदारी आ जाती है उस समय कोई स्त्री पुरुष नंग धड़ंग होकर नहीं फिर सकता। और न इस प्रकार के आचरण कर सकता है जैसे कि बालकपन में किये जाते थे। पशु पक्षी काम सेवन के लिए मलमूत्र त्याग के लिए एकान्त की आवश्यकता अनुभव नहीं करते, उन्हें मानापमान की भी चिन्ता नहीं होती पर मनुष्य ऐसी स्थिति स्वीकार नहीं कर सकता। वयस्क होते ही वह उन सब उत्तर दायित्वों को स्वयं सिर पर उठा लेता है जो सभ्य मनुष्य कहलाने के लिए आवश्यक हैं।
शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आर्थिक साम्प्रदायिक जिम्मेदारियाँ, उठाने के लिए हर मनुष्य को तत्पर होना पड़ता है। बीमारी से बचने की, स्वस्थ रहने की फिक्र अपनी समझ के अनुसार सब लोग करते हैं। अपने तथा अपने आश्रितों के भरण पोषण की, धन उपार्जन की आवश्यकता सब कोई अनुभव करता है। हिसाब किताब, साँसारिक परिचय, विविध विषयों की जानकारी प्राप्त करके मस्तिष्क को सुविकसित बनाने की, जरूरत सब लोग समझते हैं, और इसके लिए शिक्षा, स्वाध्याय, संगति, भ्रमण आदि साधनों का आश्रय लेते हैं। भाई, बहिन, माता, पिता, स्वजन, सम्बन्धी, मित्र पड़ौसी, ग्राहक, स्वजातियों, स्वदेशीयों के साथ किस किस तरह का व्यवहार करना तथा अन्य लोगों के साथ किस किस प्रकार के व्यवहार करना, इन सब बातों को भली प्रकार समझा जाता है। त्यौहार देवता, धर्म, पुस्तक, कर्मकाण्ड, मान्यताएं, आदि के सम्बन्ध में अपनी मति स्थिर करता है। इस प्रकार विविध प्रकार की जिम्मेदारियाँ अपने ऊपर उठा लेने के पश्चात् कोई मनुष्य एक सभ्य नागरिक कहलाने का अधिकारी होता है। जो इन जिम्मेदारियों को उठाने में जितनी ही आनाकानी करता है, वह उतना ही बेवकूफ, बेशर्म वेऐतकार समझा जाता है। दुनिया में उसे उतने ही अँशों में घृणा, अविश्वास की दृष्टि से देखा जाता है। आवश्यक जिम्मेदारियों को कंधे पर न उठाना, सचमुच जीवन के लिए एक कलंक की बात है। ऐसे कलंकी आदमी समाज में घृणास्पद समझे ही जाने चाहिए।
इन सब उत्तरदायित्वों से ऊँचा एक और उत्तर दायित्व है, वह है आध्यात्मिक उत्तरदायित्व। यही सब से बड़ी जिम्मेदारी है, जिसे कंधे पर उठाने से आत्मा अपने आत्म सम्मान की रक्षा करने में समर्थ होती है। ऊपर कहे कुछ साँसारिक उत्तरदायित्वों को निवाहने से मनुष्य की साँसारिक प्रतिष्ठा स्थापित होती है, इसलिए वह उनकी रक्षा के लिए कष्ट सहने को, संघर्ष करने को, त्याग बलिदान करने को, तैयार रहता है। स्वास्थ्य रक्षा के लिए, व्यायाम का, संयम का, कड़ुई औषधि पीने का कष्ट सहना पड़ता है। धन कमाने और उसकी रक्षा करने में काफी सावधानी रखनी पड़ती है और मौका पड़ने पर चोर, डाकू, ठग, उचक्कों से संघर्ष करना पड़ता है। मानसिक उत्तरदायित्व को संभालने के लिए चैन, आराम छोड़कर चित्त को सोचने में, चिन्तन में, मनन में, एकात्मभाव से लगाये रहना पड़ता है। मौका पड़ने पर मन को मारना और दबाना पड़ता है। सामाजिक प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिए संगठित होना पड़ता है, समूह बनाना पड़ता है और सामूहिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को छोड़ना पड़ता है। जैसे साम्प्रदायिक जिम्मेदारियों के लिए, कथा, व्रत, उद्यापन, संस्कार, ब्रह्मभोज, प्रीतिभोज, पूजा, अनुष्ठान, त्यौहार आदि के खर्च तथा व्यवस्था का श्रम वहन करना पड़ता है, वैसे ही अध्यात्मिक उत्तरदायित्वों की पूर्ति के लिए भी मनुष्य को सदैव सचेत रहना पड़ता है। इन्द्रिय दमन करना पड़ता है, स्वार्थों पर अंकुश रखना पड़ता है, हीन भावनाओं को दबाना पड़ता है और अवसर आने पर कहीं अग्नि परीक्षा देने के लिए भी तैयार रहना पड़ता है।
आत्म सम्मान की रक्षा के लिए उन मर्यादाओं का ध्यान रखना होता है जिससे अपने व्यक्तित्व की सचाई, ईमानदारी, महत्ता, गौरव शालीनता पर आँच न आने पावे। बात का धनी, वचन का सच्चा, अपने विश्वासों के प्रति वफादारी, रखने वाला-खरा, आदमी, मर्यादा की रक्षा के लिए बड़ी से बड़ी कुर्बानी करने को प्राण देने तक को तैयार रहता है। इनका दृढ़ विश्वास होता है-
रघुकुल रीति सदा चलि आई।
प्राण जाँय पर बचन न जाई।
खरे आदमी वक्त पड़ने पर इसे चरितार्थ भी करते हैं। राजा हरिश्चन्द्र चाहते तो विश्वामित्र से अपना वचन मुकर सकते थे और स्त्री बच्चों को बेचने का, स्वयं भंगी के हाथों बिकने का, पुत्र की मृत्यु पर अपनी स्त्री से कर माँगने का कष्ट बचा सकते थे पर उन्होंने इन सब बातों को सहन करना ही वचन भंग करने की अपेक्षा उचित समझा। राजा मोरध्वज ने अपने बेटे को भिक्षुक साधु के लिए चीर दिया। वह चाहते तो भिक्षुक से वचन पलट सकते थे, उनने वचन रक्षा को ही महत्व दिया। हकीकत राय आज की कूटनीति को अपना सकते थे, वे उस वक्त मुसलमान होना स्वीकार करके अपनी जान बचा सकते थे, पर उन्होंने प्राण को तुच्छ समझा और अपने विश्वासों की रक्षा के लिए प्राणों को तिनके के समान तोड़कर फेंक दिया। बंदा बैरागी का खौलते कढ़ाव में जलना, ईसा का क्रूस पर चढ़ना, राणा प्रताप का घास की रोटी खाकर जंगलों में मारे मारे फिरना, वह सब रुक सकता था यदि वे अपनी प्रतिज्ञा छोड़ देते, विरोधियों के सामने जरा सा झुक जाते पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। विश्वास की रक्षा करना उनके लिए प्राण रक्षा से बहुत अधिक मूल्यवान था। चित्तौर की रानियाँ का अग्नि में आत्मदाह करना, सतीत्व को बचाना, आत्मगौरव की रक्षा का जीता जागता प्रमाण हैं। इतिहास का पन्ना-पन्ना इस प्रकार की घटनाओं से रँगा हुआ है। हमारी संस्कृति का नैतिक धरातल आत्म सम्मान की रक्षा को सर्वोपरि महत्व देने का रहा है।
आज हम देखते हैं कि मनुष्य समाज में इस नैतिक, आध्यात्मिक उत्तरदायित्व की रक्षा सम्बन्धी शिथिलता अत्यधिक बढ़ गई है। बात बात में झूठ बोलने वाले, वचन कह कर पलट जाने वाले, मिथ्या आडम्बर बनाने वाले, धूर्त, बेईमान, व्यभिचारी विश्वासघाती, लोभी, लम्पट, खुशामदी, चापलूस, गरीब को सताने वाले, बलवान्, अन्यायी का साथ देने वाले, लोगों की संख्या का अनुपात समाज में दिन दिन बढ़ता जाता है। थोड़े से लोभ का अवसर आने पर लोग अपनी जबान, प्रतिज्ञा और मर्यादा को तोड़ देते हैं। झट वचन पलटकर कुछ का कुछ कहने लगते हैं। इसे आत्मिक पतन की दुखदायी स्थिति ही कहा जा सकता है।
कुछ समय पूर्व लोग मूँछ का बाल उखाड़ कर गिरवी रख जाते थे, और उसे छुड़ाने के समय का चलन हुआ तो सफेद कागज पर आड़ी तिरछी रेखाएं खींच कर कर्ज लेने वाला सफेद पर स्याही कर देना था बस वह वायदा पत्थर की लकीर हो जाता था। परलोक के लिए कर्ज देने वाले कितने ही साहूकार थे जो कर्ज लेने वाले से किसी प्रकार की लिखा पढ़ी नहीं कराते थे, और कह देते थे कि इस जन्म में कर्ज न चुका सके तो अगले जन्म में इसे ब्याज के साथ अपना कर्ज वसूल करूंगा, इस प्रतिज्ञा को कर्ज लेने वाला बिलकुल सच्चा समझता था, और हर सूरत में कर्ज को इसी जन्म में चुका देता था, वह न चुका पाया तो अपने पुरखा के परलोक को ऋण मुक्त करने के लिए उसके बेटे पोते उस कर्ज को चुकाते थे। पर आज तो सच्ची लिखा पढ़ी, कागज तमस्सु झूठ ठहरा दिये जाते हैं। जबानी हिसाब किताब पर तो जरा सा मौका मिलते ही लोग पानी फेर देते हैं।
राम की सी पितृ भक्ति, भरत का सा भ्रातृ प्रेम, श्रवण कुमार की सी माता पिता की सेवा, आज दीपक लेकर ढूंढ़ना पड़ेगा। हरिश्चन्द्र के से आज्ञा पालक स्त्री बच्चे किसी विरले ही घर में मिलेंगे। दधीच से अस्थिदान करने वाले कर्ण से कवच कुण्डल उतार देने वाले, भामाशाह से सर्वस्व दान करने वाले ढूंढ़ना आसान काम नहीं रहा। बुद्ध महावीर शंकराचार्य से, और दयानंद से धर्म प्रचारक ढूँढ़ना आज कठिन है। जिधर देखिये उधर वंचकता फैल रही है। समाज का नैतिक स्वास्थ्य बहुत ही बुरी तरह नष्ट भ्रष्ट हुआ हम देख रहे हैं। मनुष्यता का मूल्य, धर्म के लिए, आत्मा की गौरव रक्षा के लिए, बलिदान की भावनाएं आज लुप्त होती सी दिखाई पड़ रही हैं। कूटनीति का नक्कारा चारों ओर बज रहा है।
महाभारत के शत्रु दल युद्ध बन्द होने पर रात को साथ साथ हँसते बैठते थे, विराम काल में, कोई हथियार न उठाता था, बिना शास्त्र के योद्धा पर तब तक दूसरा पक्ष हथियार न चलाता था, जब तक उसके हाथ में वह स्वयं तलवार न दे देता था। शिवाजी ने शत्रु की बेटी को अपनी बेटी कहकर उसकी सतीत्व रक्षा करते हुए उसके घर लौटा दिया था। रावण जैसे दुष्ट ने भी सीता के सतीत्व पर बलात्कार करने का साहस न किया था। पर आज तो साम्प्रदायिक दंगों में जो कुछ हो रहा है उससे शैतान भी शर्म से सिर झुका लेता है।
मनुष्यों! आत्माओं! आत्मिक उत्तरदायित्व से इस प्रकार इनकार मत करो। अपनी अमूल्य महानता इस प्रकार कौड़ियों के मूल्य मत बेचो। मनुष्यता के गौरव को इतना बदनाम न करो।
आत्म का, मनुष्यता का, इँसानियत का उत्तरदायित्व बहुत बड़ा है उसे इस प्रकार तिलाञ्जलि मत दो। अपनी मर्यादा की ओर देखो। ऐसे काम करो जो मनुष्यता की महानता को कलंकित न करते है।