इष्ट सिद्धि के पथ पर

January 1945

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(डॉक्टर रामचरण महेन्द्र एम.ए.डी. लिट्)

तुम्हारे भीतर ऐसी महान शक्ति अंतर्निहित हैं। जिसका ज्ञान होने पर तुम अन्यों के आश्रित नहीं रह सकते। दूसरे के विचारों का जादू तुम पर नहीं चल सकता। तुम्हें यह प्रतीत होना अनिवार्य है कि ज्यों-ज्यों मनुष्य की गुप्त शक्तियों का विकास होता है त्यों-त्यों वह दबाव व बंधन से उन्मुक्त होता चलता है। मनुष्य की उन्नति निज शक्तियों के विकास से होती है जादू से नहीं।

अपनी विशेषता मालूम कीजिए- यही अग्रसर होने की आधारशिला है। विश्व का प्रत्येक पुरुष, बालक, स्त्री यहाँ तक कि जानवर भी एक विशेषता लेकर जन्मा है। परमेश्वर ने अन्य शक्तियाँ तो उसे प्रदान साधारण रूप में की ही हैं किन्तु प्रत्येक व्यक्ति में एक विशिष्टता (Ssrong point), एक महत्ता, एक खास तत्व अन्य तत्वों की अपेक्षा तीव्रतर है। जब मनुष्य इस विशेषता को जान जाता है और निरंतर उसी के विकास में अग्रसर होता है तो उस विशेष दिशा में वह सब से अधिक उत्कृष्टता उपार्जन करता है।

क्या तुमने कभी अपनी प्रतिभा (Special talent) को जानने की चेष्टा की है? क्या तुमने आत्मा निरीक्षण किया है? प्रत्येक गतिशील, बड़ा बनने वाला व्यक्ति तर्क की कसौटी पर अपने आपको कसकर इस महान सत्य के साक्षात्कार का उद्योग करता है। तुम व्यापक दिव्य दृष्टि से अपने आप अपना अध्ययन करो, निराश न हों, कार्य कठिन है पुनः-पुनः उद्योग करो।

जो मनुष्य काम, क्रोध आदि आवेशों से उद्विग्न रहते हैं, वे आत्म-निरक्षण नहीं कर पाते। वे उस पवित्र तत्व को जले भुने रहकर नहीं पा सकते। कुछ अपने विचारों की संकीर्णता तथा पाण्डित्य के दंभ से अपनी आत्मा को इतना जकड़ लेते हैं कि उनके अन्तरिक्ष में ज्ञान का प्रकाश नहीं घुसने पाता। संकीर्णता, परदोष दर्शन, दम्भ, क्रमशः रूढ़ियां स्थापित करती हैं, कालान्तर में वे विचार धारा को मिथ्या कल्पना से बाँध लेती हैं, आत्म-निरीक्षण रुक जाता है, ज्ञान का मुक्त प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है, वाणी तेज हीन एवं निस्सार हो जाती है।

आत्म निरीक्षण कीजिए- मानसिक आलस्य की घृणित गुदड़ी उतार फेंको, सत्य के व्यापक रूप को अनुभव करने के लिये रूढ़ियों के ऊपर उठो। शाँत चित्त हो नेत्र मूँदकर बैठ जाओ, शरीर और मन को शिथिल कर लो, सब विचारों को हटाकर केवल “आत्म निरीक्षण” की भावना पर चित्त वृत्तियों को एकाग्र करो। विचार कर अपने प्रत्येक कार्य पर अंतर्दृष्टि फेंको। मन में दृढ़ता पूर्वक कहो, ‘मैं प्रतिभा प्राप्त करना चाहता हूँ। कौन से कार्य में मेरी विशेषता है- चित्रकारी, कविता, मान, विद्या, अर्थोपार्जन लेखन या व्यापार, मुझे किस क्षेत्र में अग्रसर होना चाहिए। किस बात को मैं भली भाँति सुन्दर रीति से कर सकता हूँ। मेरे हृदय में जो उत्तम प्रेरणाएं उठती हैं उनमें से किस एक में मैं अपने जीवन को लगा दूँ। एक बार चुन कर मैं अपने व्रत पर स्थिर रहूँगा।’

ध्यानपूर्वक आत्म ध्वनि को सुनो। खूब विचार कर लो उद्विग्न न हों। सब विचारों को निकालकर मन में अपनी विशेष प्रतिभा को प्रकट करो। सौ चक्षुओं वाले Argus की तरह मन की प्रत्येक क्रिया का सूक्ष्म निरीक्षण करते रहो। चित्त के प्रबल वेग के साथ बह न जाओ वरन् उनसे पृथक होकर मन से दृष्टा बने रहो। क्रमश. मन का व्यापार देखते-देखते तुम तुरीयावस्था पर प्रविष्ट हो जाओगे। यही अभ्यास राजयोग की सर्वोच्च समाधि है। एकान्त में पन्द्रह बीस मिनट दिन या रात्रि में जब अवकाश प्राप्त हो अभ्यास की साधना करते रहो।

जो पुरुष निज चित्त का निरीक्षण करता-करता चित्त की तरंगें निज आधीन कर लेता है उसने साधना की पहली मंजिल पार कर ली है।

श्रद्धा जागृत करो- एक अपरिमित शक्ति तुम्हारे साथ है। तुम्हें निज श्रद्धा को जागृत करना है। कितनी ही महान वस्तु की कामना क्यों न हो प्रत्युत्पन्नमतित्व या उपायोद्भावन क्षमता से आवश्यक वस्तु दूसरी नहीं हो सकती। श्रद्धा की न्यूनाधिक मात्रा प्रत्येक में प्रस्तुत केवल उसे जगाना भर है। इष्ट सिद्धि के पथ पर अग्रसर होने का तात्पर्य है इन्द्रिय से दूर किन्तु श्रद्धा से उद्भूत जो महान अज्ञात तत्व उसमें प्रविष्ट होगी।

‘मैं निर्विघ्न आगे बढ़ सकता हूँ। उन्नति की शक्ति मुझमें अवश्य है’ जब यह दृढ़ विश्वास जागृत होता है तो मनुष्य अपने जीवन का नया पृष्ठ खोलता है। इस जागरण (A wakening) को तुम सब धर्मों से उच्च समझें। इसमें गहरी सचाई है। इस निर्भयता के विचार को क्षण भर के लिए आत्मा में दृढ़ करो। जैसे माली नित्य पानी देकर पौधे को बढ़ाता है, तुम नित्य प्रति इस तत्व की अभिवृद्धि करते रहो।

श्रद्धा तुम्हारी आत्मा का एक अंश है। मनुष्य की सब सिद्धियाँ उसमें प्रस्तुत श्रद्धा की न्यूनता या आधिक्य के अनुसार ही सम्पन्न होती हैं। अनुभूत नियम है- ‘श्रद्धा के अनुसार’ यही महत नियम मनोवाँछित वस्तु का निरूपण करता है। श्रद्धा द्वारा तुम अपने को इतने बलवान अनुभव करते हो कि तुम जो चाहो कर सकते हो।

हम निरंतर इस असीम शक्तिमय जगत में क्रीड़ा कर रहे हैं, हमारा जीवन, प्राण और प्रत्येक श्वाँस प्रश्वास उस में ओत-प्रोत है और आत्म-विश्वास द्वारा वह शक्ति हमारे अधिकार में आ जाती है। विघ्नों से भयभीत होकर तुमने कायरता को निज अन्तःकरण में प्रविष्ट कर दिया है। संशय, भ्रम, कायरता का शिरच्छेद करो। दृढ़ निश्चय, तीव्र इच्छा और प्रबल प्रयत्न द्वारा अपनी गुप्त सामर्थ्य को प्रकट करो।

सिद्धि का मूल मन्त्र- तुम अन्तिम निर्णय कर चुके हो और तुम्हारी श्रद्धा भी प्रज्वलित हो उठी है। अब आँधी तूफान में उस निश्चय पर चट्टान की तरह दृढ़ बने रहो। जो व्यक्ति दृढ़ता से अपने उद्देश्य पर लगे रहते हैं उन से कोई टकराने का साहस नहीं करता।

हिन्दुपति शिवाजी एवं प्रणवीर प्रताप ने यवनों का आधिपत्य स्वीकार करने का निश्चय किया। फिर पराजय, क्षुधा, तृषा उन्हें निर्दिष्ट पथ से विचलित न कर सके। गाँधी जी की दृढ़ता कठिन कारागारों में भी निर्भय बनी रही। मनुष्य की अधोगति करने वाली भय के समान दूसरी कोई वस्तु नहीं।

अंतर्मन से भय की सूक्ष्म भावना को उखाड़ फेंको। जब-जब नैराश्य, ग्लानि, शोक, चिंता और मोह के घातक विचार तुम्हें बरबस निकृष्टता की ओर खींचे तो तुम निज लक्ष्य की शुभ भावना को निकट करने की चेष्टा करो। इच्छित पदार्थ के विचारों को वृहत संख्या में अंतर्जगत् में प्रवेश करने दो। इन परम विशुद्ध संस्कारों को अंतर्मन में दृढ़ करो। इन्हीं में निरंतर रमण करते रहो। रात्रि में दिन के विचार स्थायी मनोवृत्ति (Fixedideas) बनते हैं, अतः रात्रि में शयन से पूर्व शरीर व मन दोनों को निश्चेष्ट करो, आत्म चिंतन में प्रविष्ट हो जाओ। निद्रा से पूर्व इष्ट प्राप्ति करके वृत्ति में आरुढ़ रहने का प्रयत्न करने से तद्रूप चिंता की रचना हमारे मस्तिष्क में होती है और उसके स्थायी छाया हमारे हृदय पर पड़ती है। अभ्यास द्वारा क्रमशः मन अनात्म पदार्थों से विमुख हो शिव सत्य-आनन्द स्वरूप हो जाता है। तत्पश्चात जागृत, स्वप्न-सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में इष्ट के अतिरिक्त विचार क्रिया कहाँ जा सकती है।

विचारों एवं क्रिया का समन्वय- एक ऐसी चट्टान है जिस पर टकराकर कितने ही साधक पदच्युत होते हैं। यदि हम स्थिति का ध्यानपूर्वक मनन करें तो हमें ज्ञात हो जायेगा कि प्रतिदिन नई-नई योजनाएं तो हम बनाया करते हैं पर शोक! महा शोक! हम मन, वचन, काया से उस आदर्श पर स्थित नहीं रहते। केवल हम अभिलाषा मात्र ही करते रहें और उसकी सिद्धि के हेतु कुछ प्रयत्न न करेंगे तो जल तरंग के अनुरूप उनका उत्थान एवं पतन मन का मन ही में रह जायेगा।

अभिलाषा तभी फलवती होती है जब वह क्रिया में प्रकट की जाय। फल की प्राप्ति के हेतु दृढ़ निश्चय एवं क्रिया दोनों ही कार्य करें।

जो-जो व्यक्ति इच्छित सामर्थ्य प्रकट कर सके उन्होंने विचारों को क्रियात्मक स्वरूप (Practical Shape) प्रदान किया। तुम कितना सोचते और कितना करते हो? क्या कुछ विचार बिना तुम्हारे कामों में प्रकट हुए यों ही नष्ट भ्रष्ट हो जाते हैं? क्या तुम्हारे विचार दुख, पाप, चिंता में बर्बाद हो जाते हैं? क्या प्रत्येक द्वारा तुम अन्तर्निहित गुप्त सामर्थ्य को प्रकट कर रहे हो?

आज तक सफलता के लिए किसी स्वर्ण पथ का निर्माण नहीं हुआ, स्वयं अपना पथ निर्माण करना है। यदि तुम ढूँढ़ते ही रहोगे तो संभव है आयु पर्यंत तुम पुष्प शय्या न पा सको, परन्तु यदि तुम एक-एक पुष्प एकत्रित कर किसी भी मार्ग पर उन्हें बिछाने में संलग्न हो जाओगे तो निश्चय ही तुम्हारी साध पूर्ण हो जायेगी। सिद्धि बाजार से खरीद नहीं सकते, न अन्य किसी की सहायता से प्राप्त कर सकते हो। वह तो स्वयं निजी बल से अर्जित तत्व है।

सिद्धि में सहायक- तत्वों में उत्साह प्रमुख है। संसार के महत्कार्य प्रायः उत्साह से सम्पन्न होंगे। जब मनरूपी पानी, उत्साह रूपी अग्नि और भाप रूपी इच्छा को प्रस्तुत रखोगे तो तुम निज, दुर्गम कठिनाइयों को आशातीत सुलभ कर लोगे। यदि तुम निज उत्साह की अग्नि को धीर-धीरे सुलगाने दोगे तो इच्छा रूपी भाप न प्रकट होगी और तुम मनोरथ रूपी यंत्र से कार्य न ले सकोगे।

उत्साह मन की प्रबल कार्यकारिणी शक्ति है। जो उसके प्रत्येक कार्य, प्रत्येक विचार और प्रत्येक आकाँक्षा में समाया रहता है। इष्ट सिद्धि के प्रयत्न के पहले तुम में समुचित उत्साह प्रस्तुत होना चाहिए क्योंकि उसी के प्रमाणानुसार तुम्हें सिद्धि प्राप्त होगी।

अनेक व्यक्तियों का जोश शीघ्र शाँत हो जाता है, दिल मुरदा सा रहता है, शरीर आशक्त हो उठता है और वे निर्बल रह जाते हैं। छोटे-छोटे व्यक्ति भी अदरम्य उत्साह के कारण बड़े-बड़े योद्धा, सेनापति, करोड़पति एवं राज्याधिकारी बन जाते हैं।

उत्साह क्या कार्य करता है? वह मन के स्वभाव को रचता है, विश्वास को दृढ़ करता है आकाँक्षा को बल पहुँचाता है, अनेक गुप्त शक्तियों को प्रकट करता है और अन्त में सफलता के प्रसाद में लाकर प्रविष्ट करा देता है।

द्वितीय सहायक दृढ़ इच्छा है। एक बलवान इच्छा किसी वृहत् कार्य सम्पन्न करते समय उसके शत्रुओं से युद्ध करती है। जिसकी इच्छा चट्टान सदृश है, वही वास्तव में सफल बनेगा। ऐ! जीती जागती इच्छा, तेरी तीव्रता के सन्मुख बाधा सब परास्त हो जायेंगी किन्तु न अक्षय बनी रहेगी। प्रकृति के समस्त अस्तित्व में चाहे सजीव है या निर्जीव इच्छा शक्ति (Will Power) ही कार्य करती है। तुम निज इच्छा मंद न होने दो उसे तीव्रतर करते रहो।

तुम निज आकाँक्षाओं को अपने मनः केन्द्र से न हटने दो। सब महापुरुषों की सफलता और सामर्थ्य का रहस्य यही है कि वे समग्र शक्तियों को निज लक्ष्य पर एकाग्र कर देते थे। लक्ष के अतिरिक्त अन्य विजातीय तत्वों को बाहर निकाल फेंकते थे। दुर्बल से दुर्बल चित्त वाला भी निज शक्तियों को एक लक्ष्य पर केन्द्रित करने से, एक ही वस्तु पर समग्र शक्ति लगाने पर असाध्य से असाध्य कार्य में सिद्धि प्राप्त करता है।

सर्व समर्थ प्रभु- के अतिरिक्त कोई भी साध फलीभूत नहीं होता। श्रीमद्भागवत में कश्यप मुनि ने इच्छा पूर्ति का यह मार्ग दर्शाया है। इच्छा पूर्ति में इसका बड़ा महत्व है-

उपतिष्ठस्व पुरुषं भागवतं जानार्दनम्। सर्व भूत गुह्यावासं बासुदेवं जगद्गुरुम्॥ स विधास्यति ते कामान् हरिर्दीनानुकम्पनः। अमोघा भगवद्भक्तिर्नेतरेति मतिमर्म॥

हे अदिति! तू उन समस्त प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामी रूप से व्यापक जगद्गुरु की उपासना कर, दीनों पर दया करने वाले वे हरि तेरे मनोरथ पूर्ण करेंगे। भगवान की भक्ति अमोघ है। इसके समान अन्य कोई भी साधन नहीं है ऐसी मेरी निश्चित बुद्धि है।

अतएव सिद्धि के लिए भगवान की शरण लीजिए। भगवान का प्रवचन है-

‘मयि युज्जतो चेन उपतिष्ठन्ति सिद्धयः’

अर्थात् हे उद्धव! मेरे में मन एकाग्र करने वाले के पास सिद्धियाँ स्वयं चल कर आ जाती हैं।

भगवान के किसी स्वरूप विशेष की अन्तर्विष्ट मन से कल्पना कर उसमें प्रतिष्ठ होने का अभ्यास करना चाहिए। सर्वप्रथम भगवान की मूर्ति के निर्जीव एक-एक अवयव का पृथक्-पृथक् ध्यान कर पश्चात दृढ़ता के साथ सभी मूर्ति में मन स्थिर करना चाहिए। मूर्ति के ध्यान में निज अस्तित्व विस्मृत कर कल्पना प्रसूत सामग्रियों से मानसिक पूजा करनी चाहिए। इस यौगिक क्रिया से मुझे मन को निश्चित करने में बड़ी सहायता प्राप्त हुई है।

विजयी जैसा अभिनय कीजिए- यदि तुम सिद्धि प्राप्त करना चाहते हो तो विजयी सैनिकों जैसी चेष्टा करो, उन्हीं जैसा रिहर्सल करते रहो। जो कुछ गुण तुम सिद्ध पुरुषों में समझते हो-निर्भयता, सबलता, साहस उन्हीं तत्वों को प्रकट करो दूसरों को दिखाओ कि तुम वास्तव में प्रगति पथ पर अग्रसर हो रहे हो। अपने नेत्र से साहस की चिंगारियाँ निकालने का अभिनय करो। उत्कृष्ट तत्वों के पदार्पण से कमजोरियाँ स्वतः निकलने लगेंगी। यह कभी न सोचो कि तुम विजय प्राप्त करने के योग्य नहीं हो या महान पुरुष बनने के लिए जन्म से ही कुछ विशेष पदार्थ मनुष्य को प्राप्त होते हैं, तुममें महानता अंतर्निहित हैं, केवल उसे बाह्य जगत में प्रकट करना है, अभिनय करते-करते तुम वास्तविकता पर आ जाओगे। नियम नहीं है कि पहले हम महत कार्य खिलवाड़ में करते हैं किन्तु कालान्तर में वे ही सत्य स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं।

किसी शान्त कमरे में सीधे खड़े हो जाओ। विचारों को समेटो और खड़े रहने की क्रिया में अपने प्रत्येक अव्यय में क्रिया शक्ति प्रवाहित करो। दृढ़ता पूर्वक कहो- “मैं वीर सिपाही हूँ, मेरे अंग प्रत्यंगों से वीरत्व प्रकट हो रहा है। मैं ऊंचा उठ रहा हूँ, मेरा लक्ष्य ऊँचा है और मैं भी अब साँसारिक क्षुद्रता से ऊँचा जा रहा हूँ। मैंने अपने समस्त दोषों पर पूर्व विजय प्राप्त कर ली है, अपनी योग्यता एवं सामर्थ्य में मेरा विश्वास अटूट हो रहा है। मुझमें परमात्मा का अनन्त बल है, जो मेरे प्रत्येक अवयव को विजय प्रदान कर रहा है। अब मैं कठिन से कठिन कार्य को सरलता से सम्पन्न कर लूँगा। मैंने अपनी अंतःस्थिति ईश्वरीय शक्ति का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर लिया है। मुझे अपनी सफलता का पूर्ण निश्चय है।”

क्रमशः उक्त वाक्यों को दुहराते हुए कमरे में टहलो। तुममें अपने सामर्थ्य की भावना प्रबल रहे। तुम शक्ति प्राप्त करने के लिए उत्साहित रहो। टहलते-टहलते मन में कहो- “अब मेरा जीवन किसी विशेष उद्देश्य पूर्ति के लिए है, मैं यों ही मारा-मारा नहीं फिरता हूँ। प्रत्युत मैं अब निरन्तर आगे बढ़ रहा हूँ। मेरे दिव्य गुण प्रकट हो रहे हैं। मैं जो कुछ करता हूँ उसे दृढ़ता एवं तत्परता से करता हूँ। मैं अपने भाग्य का स्वयं विधाता हूँ। मैं कभी पराजित होना जानता ही नहीं हूँ। मैं अपनी धुन का पक्का हूँ। मुझे अपनी शक्तियों पर पूरा-पूरा भरोसा है। मुझे अपनी शक्तियों पर पूर्ण विश्वास है। मेरी शक्ति का विरोध बाह्य शक्तियाँ नहीं कर सकती।”

जब तुम आधे घंटे तक अभिनय कर चुको तो आराम से बैठ जाओ। इस संकेत (Suggestion) को पुनः दुहराओ। प्रत्येक दिन यह मानसिक व्यायाम करते रहो। उत्साह और इच्छा की न्यूनता न होने पाये। तुम विश्व के महान् जीवन-तत्त्व के अंश हो। तुम्हारे भीतर जो शक्तियों का महान केन्द्र है वह इन आत्म संकेतों से क्रमशः प्रदीप्त हो उठेगा।

हमारे उच्चरित शब्दों में बड़ा बल है। जब उन में इच्छा शक्ति का समावेश होता है तब ये अत्यन्त प्रभावशाली हो उठते हैं। प्रातःकाल जागते समय उक्त मानसिक क्रिया को करने से दिन भर स्फूर्ति रहेगी। रात्रि में सोने से पूर्व करने पर रात्रि में अंतर्जगत में ये ही संकल्प दृढ़ता से अंकित हो जायेंगे। मन को जिस प्रकार की आज्ञा दृढ़ता से मिलेगी वह उसी का पालन करेगी। अपने शब्द और मन की शक्ति से अपनी इच्छानुसार परिस्थिति को परिवर्तित कर देने वाला मनुष्य ही जादूगर है। शब्द की शक्ति श्रद्धा और मंत्र जप से है।

तुम्हें दस बार भी यदि पराजय हो तो कदापि निराश न हों, यदि सौ बार भी असफलता हो तो भी खड़े होकर पुनः अपने कार्य में संलग्न हो जाओ। चाहे हजार बार नाकामयाबी हो, सत्य मार्ग पर आरुढ़ हो जाओगे और उस पर लगे रहोगे, तो अवश्य सफलता तुम्हारी है।

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