मर्त्यलोक का कल्पवृक्ष

January 1945

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सुर लोक में एक कल्पवृक्ष है। इस कल्पवृक्ष में ऐसा गुण है कि उसके नीचे बैठकर जैसी कुछ इच्छा की जाय वह पूरी हो जाती है। जैसे कोई आदमी उस वृक्ष के नीचे इच्छा करे कि मुझे एक सहस्र अशर्फी मिल जायं तो उसे अशर्फियाँ मिल जायेंगी। कोई दूसरी वस्तु चाहे तो वह भी उसे प्राप्त होगी। ऐसे कल्पवृक्ष की मानव जाति बहुत दिनों से इच्छा करती चली आ रही है। जिस दिन से इस बात का पता चला कि इस विश्व में कल्पवृक्ष का अस्तित्व है। उसी दिन से मर्त्यलोक के निवासी उसका पता लगाने और प्राप्त करने की कोशिश करने लगे। कारण यह है कि हर एक इच्छा को पूरा करने की, हर एक मनचाही वस्तु को देने की शक्ति जिसमें हैं, ऐसे बहुमूल्य पदार्थ की आकाँक्षा भला कौन न करेगा? सुख प्राप्त करने के लिए समस्त विश्व लालायित है। जिस कल्पवृक्ष के द्वारा सुख की इच्छा आसानी से पूरी हो सकती है उसे चाहना, उसकी उत्कट अभिलाषा करना स्वाभाविक है। कल्पवृक्ष की खोज करते हुए मनुष्य जाति को लाखों करोड़ों वर्ष बीत गये परन्तु अभी तक वह उस रूप में कहीं भी नहीं पाया जा सकता जैसा कि सुरलोक वाले कल्पवृक्ष के बारे में पुराणों में बताया गया है।

आध्यात्म विद्या के वैज्ञानिकों ने उस कल्पवृक्ष को ढूँढ़ निकाला है और प्रमाणित कर दिया है कि वह सर्वसुलभ है। उसे जो चाहे सो आसानी से पा सकता है। सुरलोक की वस्तुएं जब मर्त्यलोक में आती हैं तो उनका रूप कुछ ऐसा हो जाता है कि हमारी आँखों से दिखाई नहीं पड़ती या यों कहिये कि स्वर्ग लोक की चीजों को हमारे चर्म चक्षु ठीक उसी रूप से नहीं देख पाते। देवता लोग अपने लोक में शरीर सहित रहते होंगे किन्तु मर्त्यलोक में कोई देवता शरीर सहित विचरण करता हुआ नहीं देखा गया। देवता लोग मर्त्यलोक में आते जाते हैं परन्तु वे आँखों से दिखाई नहीं पड़ते। इसी प्रकार कल्पवृक्ष हमारी दुनिया में है तो सही परन्तु उसे आँखों से नहीं देखा जा सकता। परन्तु वह अदृश्य होते हुए भी अपने सम्पूर्ण गुणों से युक्त है। जो कार्य उस के द्वारा सुरलोक में होता है वही सब कार्य इस लोक में भी हो सकता है। अदृश्य होने के कारण उसकी शक्ल देखने से हम जरूर वंचित रहते हैं परन्तु उसके द्वारा प्राप्त होने वाले लाभों को उसी प्रकार पा सकते हैं जैसे कि देवता लोग पाते हैं।

मर्त्यलोक का कल्पवृक्ष है- ‘तप’ तप का अर्थ है कष्ट सहन करना, परिश्रम एवं प्रयत्न करना। प्राचीन काल में अनेक व्यक्तियों ने तप करके वरदान प्राप्त किये थे। उन वरदानों के बल से वे तपस्वी लोग बड़ी-बड़ी चमत्कारी सिद्धियाँ प्राप्त कर चुके थे। पौराणिक कथाओं से प्रतीत होता है कि देवताओं को प्रसन्न करने का एकमात्र उपाय तप था। तपस्वी लोगों से ही वे सन्तुष्ट होते थे। क्योंकि ऐश्वर्य को भोगने का अधिकारी केवल तपस्वी, परिश्रमी ही है। खीर और मोहनभोग वही पचा सकता है जिसकी जठराग्नि प्रदीप्त हो, मन्दाग्नि वाले को गरिष्ठ भोजन देना तो मानो उसके मारने का प्रबंध करना है। कहते हैं कि सिंहनी का दूध स्वर्ण के पात्र में दुहा जाता है, दूसरे पात्र में इतनी शक्ति नहीं होती कि उसमें वह दूध रह सके। इसी प्रकार जो तपस्वी नहीं है उसमें ऐश्वर्य को धारण करने की क्षमता नहीं होती। ऐसे अयोग्य आदमियों को यदि कुछ मिल जाय तो वे उसे पाकर करीब-करीब पागल हो जाते हैं। बच्चों के हाथ में बन्दूक और बारूद पड़ जाय तो वे खेल-खेल में ही अपना या दूसरों का भयंकर अनिष्ट कर लें। अतएव परमात्मा ने यह सुनिश्चित नियम बना दिया है कि सम्पदाएं उन्हीं के पास रहें जो उन्हें रखने के अधिकारी हैं। अधिकारी होने की सबसे प्रधान कसौटी यह है कि उसमें पुरुषार्थ है या नहीं? इच्छित वस्तु को प्राप्त करने योग्य प्रयत्नमयी उत्कट अभिलाषा रखता है नहीं? देवता लोग जब इस बात की परख कर लेते हैं तो इसे वस्तु खुशी खुशी दे देते हैं जिसका वह अधिकारी है।

भागीरथ जी तप करके गंगा को मर्त्यलोक में लाये, पार्वतीजी ने तप करके शिव को वर रूप में पाया, ध्रुव ने तप करके अचल राज्य पाया, एक नहीं अनेकानेक प्रमाण इस बात के मौजूद हैं कि तप से ही सम्पदा मिलती है। मनोवाँछाएं पूर्ण करने का एक मात्र साधन तप ही है- परिश्रम एवं प्रयत्न ही है। क्या देव क्या असुर जिसने भी ऐश्वर्य पाया है, वरदान उपलब्ध किये हैं, तप के द्वारा पाये हैं? अनन्त सम्पदाओं के ढेर अपने चारों ओर बिखरा पड़ा हो तो भी कोई उसे तप बिना नहीं पा सकता। समुद्र के अन्दर अतीत काल से अनेक रत्न छिपे पड़े थे। उनके आस्तित्व किसी पर प्रकट न था किन्तु जब देवता और असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन किया तो उसमें से चौदह अमूल्य रत्न निकले। यदि मंथन न किया जाता तो चौदह क्या चौथाई रत्न भी किसी को न मिलते। प्रयत्न, परिश्रम और कष्ट सहन करने से ही किसी ने कुछ प्राप्त किया है। अकस्मात् छप्पर फाड़कर मिल जाने के कुछ अपवाद कहीं-कहीं देखे और सुने जाते हैं परन्तु यह इतने कम होते हैं कि उन्हें सिद्धाँत रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। पूर्व जन्मों का संचित पुण्य एक दम कहीं प्रकट होकर कुछ सम्पदा अकस्मात् उपस्थित कर दे ऐसा होना असंभव नहीं है, कभी-कभी ऐसा हो भी जाता है कि किन्हीं व्यक्तियों को बिना परिश्रम के भी कुछ चीज मिल जाती है परन्तु इसे भी मुफ्त का माल नहीं कहा जा सकता। पूर्व संचित पुण्य भी परिश्रम और कष्ट सहन द्वारा ही प्राप्त हुए थे। इन भाग्य से अकस्मात् प्राप्त होने वाले लाभों में भी प्रत्यक्ष रूप से परिश्रम ही मुख्य होता है।

परमात्मा की इस सुव्यवस्थित रचना में सब कार्य नियमित रूप से व्यवस्थापूर्वक हो रहे हैं इसमें ‘पो पो माई’ का राज नहीं है जहाँ से हर कोई लूट का मूसल उठा ले जावे। यहाँ अनियमित रूप से किसी को एक कण भी नहीं मिलता। कबीर की एक अनुभवपूर्ण वाणी है कि-

राम झरोखे बैठकर सबको मुजरा लेंय। जैसी जाकी चाकरी तैसो ताको देंय॥

झरोखे में बैठे हुए राम सब की जाँच पड़ताल करते हैं, जिनका जितना परिश्रम है उसको उतना ही देते हैं। संसार के बाजार में ‘इस हाथ दे उस हाथ ले’ के नीति चल रही है। जो जितना देता है वह उतना पाता है। उद्योगी पुरुष सिंहों को लक्ष्मी प्राप्त होती है और निखट्टू पुरुष दैव दैव-भाग्य-भाग्य बकते झकते हुए हाथ मलते रहते हैं।

तप करने से, एक निष्ठा के साथ विवेकपूर्ण प्रयत्न करने से, बड़े-बड़े दुर्लभ पदार्थ प्राप्त होते हैं। फावड़े के बल से वीर फरिहाद ने पहाड़ तोड़कर एक लम्बी नहर खोद निकाली। कालिदास ने भरी जवानी में ओलम बारहखड़ी सीखना शुरू किया और भारत के चमकते हुए साहित्यिक सितारे कुछ ही दिनों में बन गये। एक नहीं असंख्य उदाहरणों को हम अपने आस-पास फैला हुआ देख सकते हैं। तपाने से सोना चमकता है, माँजने से धातुएं निखरती हैं, घिसने से हथियार तेज होता है, रगड़ने से आग पैदा होती है। परिश्रम और प्रयत्न से मनुष्य के भीतर छिपी हुई अनेकानेक शक्तियाँ और योग्यताएं प्रस्फुटित होती हैं। फिर उनके द्वारा वह सब सम्पदाएं प्राप्त हो जाती हैं जो कि कल्पवृक्ष द्वारा प्राप्त होनी चाहिए।

यदि अपने घर कपड़े शरीर आदि को सुन्दर देखना चाहते हैं तो उनकी सफाई में जुट जाइए, धूलि में मिलकर मकान को लीप पोत डालिए, कपड़ों की धुलाई कर डालिये, टूट-फूट को ठीक कीजिए, सजावट में परिश्रम कीजिये, बस आपकी चीजें स्वच्छ, सुन्दर और आकर्षक बन जावेंगी। शारीरिक स्वास्थ्य को अच्छा बनाना चाहते हैं तो व्यायाम-मालिश, आत्म संयम आदि के लिए मेहनत कीजिए थोड़े ही दिनों में शरीर बलवान होने लगेगा। ज्ञान, पैसा, कीर्ति नेतृत्व, मनोबल, स्वर्ग, मुक्ति, सुख शाँति जो कुछ भी आप चाहते हैं उसके लिए तप कीजिये, कठिन प्रयत्न, एकनिष्ठा पूर्ण प्रयत्न, अटूट प्रयत्न। सफलता का मूलमंत्र है। आज के कष्टों को भविष्य की स्वर्णिम आशा पर निछावर कर देना तप है। यह तप प्रत्यक्ष फलदायक है। सिद्धियाँ तपस्या की चेरी हैं। पुरुषार्थी के गले में विजय माला पड़ने का ईश्वरीय सुनिश्चित विधान है उस को कोई नहीं पलट सकता, कोई नहीं बदल सकता। प्रयत्न करने वाले को आज नहीं तो कल मनोवाँछित वस्तु मिलकर रहेगी। जो अपनी मदद आप करता है परमात्मा उसकी मदद जरूर करता है।

मुफ्त में मनचाहा माल लूटने की सुविधा देने वाला यदि कोई कल्पवृक्ष होता भी हो तो वह सर्व साधारण के लिये कुछ लाभदायक न होगा वरन् हानिकारक सिद्ध होगा। क्योंकि लूट के माल में मनुष्य की बुद्धि अव्यवस्थित हो जाती है। नाना प्रकार के उचित, अनुचित, अनियंत्रित संकल्पों का ऐसा जमघट मन में जमा होने लगता है जिसका परिणाम सर्वनाश जैसा निकलता है। कहते हैं कि एक बार कोई आदमी कल्पवृक्ष के पास पहुँच गया। उसने इच्छा की कि शीतल जल पीने को होता तो बड़ा अच्छा था। इच्छा करने की देर थी कि ठण्डा जल सामने हाजिर हो गया। अब उसने स्वादिष्ट भोजन चाहा, वह हाजिर। इसी प्रकार उसने क्रमशः पलंग, बिस्तर, दास, दासी, महल, खजाने, राजपाट, माँगे वह सब भी मिले। अब जब कि सम्पत्तियों की ओर से मन भर गया तो उसका चित्त दूसरी ओर को चला, उसे भय लगा कि कहीं कोई हिंसक जन्तु न आ जाय, सोचने की देर थी दहाड़ते हुए सिंह देवता सामने आ खड़े हुए। अब वह भय के मारे काँपने लगा और मन ही मन ऐसा डरने लगा मानों यह सिंह अभी मुझे खाये जा रहा है। यह विचार आया ही था कि सिंह ने उसे धर दबोचा और अपने पेट में पहुँचा दिया। बिना उचित परिश्रम और योग्यता के कुछ मिलने का विधान न्यायकारी परमात्मा ने अपनी सुव्यवस्थित सृष्टि में नहीं रखा है। यदि किसी को किसी प्रकार ऐसा कुछ मिल भी जाय तो वह उसके पास ठहरता नहीं वरन् असहाय पीड़ाएं देता हुआ वह सब वैसे ही चला जाता है जैसा कि आया था।

भूलोक का कल्पवृक्ष तप है। उत्साह, स्फूर्ति लगन, धुन, परिश्रम प्रियता, साहस, धैर्य, दृढ़ता और कठिनाई को देखकर विचलित न होना यह तप के लक्षण हैं। जिसने तप द्वारा इन गुणों को पैदा किया, अपने मनोवाँछित तत्व को पाने के लिये खून पसीना बहाना सीखा, वह एक प्रकार का सिद्ध है। कल्पवृक्ष की सिद्धि उसके आगे हाथ बाँधे खड़ी रहती है। ऐसे आदमी जो चाहते हैं कर गुजरते हैं, जो चाहते हैं प्राप्त कर लेते है। नेतृत्व, लोक सेवा, धन उपार्जन, प्रतिष्ठा, ज्ञान, भोग आदि सम्पदायें पाने की जिनके मन में लालसाएं उठती हों उन्हें सबसे पहले अपने को तपस्वी बनाना चाहिए। आलस्य, प्रमाद, समय का अपव्यय, बकवाद, ठलुआपंथी, निराशा, निरुत्साह, अस्थिरता आदि दुर्गुणों को हटाकर तपश्चर्या के सद्गुणों को अपने अन्दर धारण करना चाहिए। यह प्रगति जिस क्रम के साथ होती है उसी क्रम से सम्पदाओं और वैभवों का समूह सामने उपस्थित होता है।

याद रखिये तप ही कल्पवृक्ष है। जिस किसी ने इस दुनिया में कुछ पाया है परिश्रम से पाया है। आप भी कुछ पाना चाहते हैं तो अदम्य उत्साह के साथ घोर परिश्रम करना अपना स्वभाव बनाइये। इस साधना के फलस्वरूप आपको कल्पवृक्ष जैसी प्रतिभा मिलेगी और उसके द्वारा आपकी सब प्रकार की इच्छा आकाँक्षाएं आसानी से पूरी हो जाया करेंगी।

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(श्री मंत्र योगी)

पिछले चार अंकों में गायत्री जप की विधियाँ हम विस्तार पूर्वक बता चुके हैं। इन में से किसी भी विधि के साथ उपासना करने से गायत्री माता प्रसन्न होती है। जब अवकाश हो मानसिक जप करते रहना चाहिए, इससे एकाग्रता होती है, चित्त में स्थिरता आती हैं मन में से विषय विकार और कषाय कल्मष कम होते हैं, जैसे जलती हुई अग्नि के निकट जाने से जंगली जानवर डरते हैं वैसे ही गायत्री का निवास जिस अन्तःकरण में है उसके भीतर घुसते हुए पाप एवं दुर्भाव भी डरते हैं। अधिक समय तक चन्दन के साथ रहने से साधारण लकड़ी भी चन्दन जैसी सुगन्धित हो जाती है वैसे ही गायत्री का सहवास करते हुए मनुष्य अन्तःकरण भी शुद्धता और सात्विकता से मुक्त होने लगता है।

विधि पूर्वक जपा हुआ मंत्र शीघ्र सिद्ध हो जाता है। राजमार्ग पर होकर चलने से बेखटके अपने निश्चित स्थान तक यात्री पहुँच जाता है। इसलिये जो नियम बताये गये हैं उनके पालन करने में जहाँ तक संभव हो सावधानी रखनी चाहिए। यदि विधि ठीक प्रकार समझ में न आवे या उसे ठीक तरह से प्रयोग करने में कुछ कठिनाई प्रतीत हो तो मानसिक जप करते रहना चाहिए। वेद मंत्र को शुद्ध रूप से विधि पूर्वक उच्चारण करना चाहिए। किन्तु जप उच्चारण ही नहीं करना है तो वह विधान संकल्प रूप हो जाता है। मानसिक जप यदि अविधि पूर्वक भी हो तो कुछ दोष नहीं आता। इसी प्रकार “ॐ भूर्भुवः स्वः” इतने मात्र का आँशिक जप करने से भी विधि व्यवस्था की पूरी पाबन्दी से बचा जा सकता है। किन्तु स्मरण रखना चाहिये पूरा मंत्र शुद्ध उच्चारण एवं सविधि पूर्वक जपने से जो फल मिलता है वह अधूरे मन एवं अविधि पूर्वक जप का नहीं है।

साधारणतः सवालक्ष जप की एक मर्यादा समझी जाती है। दूध के नीचे आग जलाने से अमुक मात्रा की गर्मी आ जाने पर एक उफान आता है, इसी प्रकार सवालक्ष जप हो जाने पर एक प्रकार का क्षरण होता है। उसकी शक्ति से सूक्ष्म जगत में एक तेजोमय वातावरण का उफान आता है जिसके द्वारा अभीष्ट कार्य के सफल होने में सहायता मिलती है। दूध को गरम करते रहने से कई बार उफान आते हैं। एक उफान आया वह कुछ देर के लिए उतरा कि फिर थोड़ी देर बाद नया उफान आ जाता है, यह क्रम बराबर चलता रहता है। इसी प्रकार सवालक्ष जप के बाद एक-एक लक्ष जप पर शक्ति मय क्षरण के उफान आते हैं, उनसे निकटवर्ती वातावरण आन्दोलित होता रहता है और सफलता के अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न होती रहती हैं।

नीति का वचन है- ‘अधिकस्य अधिकम् फलम्’ अधिक का अधिक फल होता है। गायत्री का उपासना सवालक्ष जप करने पर बन्द कर देनी चाहिए। ऐसी कोई बात नहीं है। वरन् यह है कि जितनी अधिक हो सके करते रहना चाहिए, अधिक का अधिक फल है। इच्छा शक्ति, श्रद्धा, निष्ठा और व्यवस्था की कमी के कारण अनुष्ठान का पूरा फल दृष्टिगोचर नहीं होता किन्तु यदि अधिक काल तक निरन्तर साधना को जारी रखा जाय तो धीरे-धीरे साधक का ब्रह्मतेज बढ़ता जाता है। यह ब्रह्मतेज आत्मिक उन्नति का मूल है, स्वर्ग मुक्ति और आत्म शान्ति का पथ निर्माण करता है, इसके अतिरिक्त लौकिक कार्यों की कठिनाइयों का भी समाधान करता है, विपत्ति निवारण और अभीष्ट प्राप्ति में इस ब्रह्मतेज द्वारा असाधारण सहायता मिलती है।

सिद्धि के निकट पहुँचे या नहीं? इस की बात की परीक्षा के लिये कुछ चिह्न हैं यदि इनमें से कोई चिह्न किसी अंश में प्रकटित होने लगे तो समझना चाहिए कि साधना में सफलता प्राप्त हो रही है। वे चिह्न यह हैं- (1) चेहरे की स्निग्धता बढ़ने लगती है, चमक आ जाती है (2) शरीर में एक विशेष प्रकार की सोंधी-सोंधी सुगंध आने लगती है (3) किसी वस्तु पर थोड़ी देर दृष्टि जमाई जाय तो उस वस्तु के आस-पास चिनगारियाँ सी उड़ती दिखाई पड़ती है। (4) किसी आदमी को स्पर्श करें तो उसे कुछ फुरहरी रोमाँच या झटका सा मालूम देता है। (5) शरीर में हल्कापन और चित्त में भारीपन प्रतीत होता है। (6) पवित्रता, परोपकार और सात्विकता के विचारों की और रुचि बढ़ती है। (7) आँखों में नीलापन और नमी बढ़ जाती है। (8) निद्रा में कमी हो जाती है। (9) स्वप्न में प्रकाशवान और पुरुष जाति की वस्तुएं अधिक दिखाई पड़ती हैं। (10) घृत युक्त पदार्थों की ओर अधिक रुचि रहती है। यह आवश्यक नहीं कि यह सब लक्षण पूर्ण रूप में प्रकट ही हों, इनमें से थोड़े से चिह्न भी किन्हीं अंशों में प्रस्फुटित हो रहे हों तो साधक अपनी साधना पर संतोष कर सकता है।

साधक जब सिद्ध के रूप में परिणित होना आरंभ करता है तो उस समय उसकी अन्तः चेतना बलयुक्त होती है। बिजली के करेंट को जिस ओर बढ़ा दिया जाय उधर ही काम करने लगते हैं, पंखा, बत्ती, रेडियो, टेलीफोन, मोटर, मशीन जिस यंत्र के साथ बिजली का तार जुड़ जाता है उसमें क्रियाशीलता आ जाती है। इसी प्रकार साधक अपनी अन्तःशक्ति को जिधर भी लगा देता है उधर चमकती सफलता दिखाई देने लगती है। सिद्धि को आठ प्रकार का और ऋद्धि को नौ प्रकार का कहा गया है परन्तु मूल में एक ही वस्तु है। अलग-अलग सफलताओं के अलग-अलग नाम रख लिये गये हैं। उन सफलताओं का स्रोत एक ही है। जो बलवान है वह दौड़ भी सकता है, कूद भी सकता है कुश्ती भी लड़ सकता है और वजन को भी उठा सकता है। इसी प्रकार आत्म बल जिसमें हैं भिन्न प्रकार के कठिन कार्यों में आश्चर्यजनक सफलताएं पा सकता हैं।

गायत्री की उपासना से जिसने आत्म शक्ति एकत्रित की है, उसे चाहिये कि अपनी बुद्धि को शुद्ध पवित्र और सात्विक बनाता हुआ जीवन को आदर्श बनावे। क्योंकि सबसे बड़ी सम्पत्ति इस दुनिया में यह है कि किसी मनुष्य को आदर्श व्यक्ति या महापुरुष कहा जाय। जिसके विचार और कार्यों की नकल करते हुए लोग अपने को भाग्यवान समझें वह महापुरुष धन्य है। अपनी स्वार्थ भावना, लिप्सा और भोगेच्छाओं पर संयम करता हुआ परोपकार परमार्थ और सत्कार्यों में लगा रहे। स्वयं ऊँचा उठे और दूसरों को भी ऊँचा उठावे। गायत्री द्वारा बुद्धि का परिमार्जन और सत्मार्ग का अनुगमन इन दो कार्यों का करना श्रेष्ठ है। शुभ कर्मों द्वारा आत्मा को परमात्मा बना देना, मुक्ति पद प्राप्त करना भला इससे बड़ी सिद्धि और क्या हो सकती है?

आवश्यकता पड़ने पर उस शक्ति से दूसरे कार्य भी लिए जा सकते हैं। जैसे (1) गायत्री मंत्र को भोजपत्र या शुद्ध कागज पर रक्त चंदन की स्याही बनाकर अनार की कलम से शुद्ध होकर लिखें और उसे कवच की तरह ताबीज में भरकर किसी को धारण करा दें तो उसकी आपत्ति मिट जायगी और मनोवाँछा पूरी होने योग्य बल मिलेगा। (2) गायत्री मंत्र की आहुतियाँ से हवन करके उस भस्म को सुरक्षित रख लेना चाहिये। इस भस्म को मंत्र पढ़ते हुए किसी के मस्तक पर लगा दिया जाय तो उसको रोग, शोक, चिन्ता एवं भय से छुटकारा मिलता है। (3) गंगाजल को गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित करके गार्जन करने से भूत बाधा, उन्माद, प्रलाप तथा अन्य मानसिक अव्यवस्थाओं का निवारण होता है। (4) गायत्री मंत्र के साथ औषधि सेवन करने से रोगी को कई गुना लाभ होता है। (5) किसी मनुष्य की मूर्ति का ध्यान करते हुए गायत्री मंत्र का जप करने से वह मनुष्य अपने प्रति उदारता एवं सहानुभूति के भाव रखने लगता है। (6) केशर की स्याही ओर अगर की लकड़ी की कलम से काँसे की थाली के भीतर भाग में 101 बार गायत्री मंत्र लिखकर गर्भवती को पिलाने से तेजस्वी पुत्र उत्पन्न होता है। (7) चाँदी के पात्र में पाँच तोले ताजा कुएँ का जल लेकर प्रातःकाल सूर्य के सन्मुख खड़े होकर 101 बार गायत्री का जप करके पिलाने से स्त्री पुरुषों के रज तथा वीर्य के दोष दूर होते हैं। (8) रविवार को मध्याह्न काल में सूर्य के सम्मुख खड़े होकर गायत्री की पाँच माला जपने से शत्रुओं के दुष्प्रयत्न निष्फल हो जाते हैं। (9) गायत्री जपते हुए शयन करने से अच्छी नींद आती है दुःस्वप्न नहीं होते। (10) सिन्दूर और घृत मिलाकर व्यापार के स्थान या भण्डार गृह में गायत्री लिख देने से लक्ष्मी जी का निवास होता है, अच्छा लाभ रहता है।

इस प्रकार एक नहीं अनेकों लाभ हैं जो साधक को स्वयं अनुभव में आने लगते हैं। जिस कार्य में भी गायत्री माता की सहायता लेकर हाथ डाला जाता है उसमें विजय ही मिलती है। गायत्री की महिमा अपार है, वह कहने सुनने और लिखने बाँचने की नहीं वरन् स्वयं अनुभव करने की बात है।

=कोटेशन============================

परोपकार करना, दूसरों की सेवा करना और उसमें जरा भी अहंकार न करना, यही सच्ची शिक्षा है।

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जिन्दगी उसी की बड़ी होती है, जो अपने समय का अच्छा उपयोग करता है। जो समय को नष्ट करता है, उसकी जिन्दगी बड़ी होने पर भी बहुत छोटी समझी जाती है। कर्ममय जीवन ही दीर्घ जीवन है और आलस्य जीवन ही मृत्यु है।

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विपत्ति में धैर्य, अभ्युदय में क्षमा, सभा में वाक् चातुर्य, युद्ध में विक्रम, यश में रुचि और श्रुति में व्यसन, ये महात्माओं के स्वभाव सिद्ध गुण हैं।

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