आध्यात्म विद्या में जिन्होंने थोड़ा बहुत भी प्रवेश किया है वे जानते हैं कि साधना से सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। अष्ट सिद्धि और नव निधि प्रसिद्धि हैं। विभिन्न योगों द्वारा विभिन्न शक्तियों का मिलना प्रकट ही है। इन्द्रियों के आकर्षक भोगों को, सुख सुविधा को, ऐश आराम को छोड़कर कोई व्यक्ति कष्टदायक, कठोर, नीरस, श्रम साध्य साधना में प्रवृत्त होता है तो वह ऐसा करने के लिए यों ही उद्यत नहीं हो जाता। ज्यादा कीमती चीज के लिए कम कीमती चीज का त्याग किया जाता है। साधना का कष्ट इसलिए सहन करते हैं कि जिन सुखों का त्याग किया गया है, उससे अधिक मूल्यवान सुख प्राप्त हों। यदि ऐसा न होता तो कोई भी व्यक्ति साधना का कष्ट सहने को तैयार न होता।
अनेक अवसरों पर अनेक व्यक्तियों द्वारा ऐसे कार्य करते हुए किन्हीं व्यक्तियों को देखा जाता है जैसे कि कार्य साधारण आदमी आमतौर पर नहीं कर सकता। आम जनता के साधारण दायरे से बाहर की जो चीज होती है, वह सिद्धि कहलाती है। जैसे हवा में उड़ने वाला मनुष्य सिद्ध कहा जायेगा किन्तु पक्षी को कोई सिद्ध न कहेंगे। पक्षी आमतौर से उड़ते हैं इसलिए उनके उड़ने में कुछ अचंभा नहीं है। मनुष्य के उड़ने में इसलिए अचंभा है क्योंकि आमतौर से मनुष्य प्राणी उड़ा नहीं करता। पानी में रहना हमारे लिए सिद्धि है मछली के लिए नहीं, एक घंटे में बीस मील की चाल से दौड़ना हमारे लिए सिद्धि है पर घोड़े के लिए नहीं। हाथी को कोई मनुष्य पछाड़ दें तो उसे सिद्ध कहा जायेगा किन्तु सिंह जो अक्सर हाथियों को पछाड़ता रहता है सिद्ध नहीं कहलाता। कहने का तात्पर्य यह है कि इस समय जो बातें किसी विशेष व्यक्ति में हों तो उसे आध्यात्मिक भाषा में ‘सिद्ध’ शब्द से पुकारा जायेगा। आश्चर्यजनक और असाधारण कार्यों का ही दूसरा नाम ‘सिद्ध’ है।
एक समय में जो बात साधारण होती है वही बात समय और परिस्थिति के प्रभाव से असाधारण हो जाती है। सतयुग, त्रेता आदि प्राचीन युगों में अब की अपेक्षा मनुष्य अधिक ऊंचा-लम्बा, चौड़ा, अधिक खाने वाला और अधिक काम करने वाला होता था, किन्तु इस समय में तब की अपेक्षा आदमी की काया, खुराक और मजबूती बहुत घट गई है। सतयुग के लम्ब तड़ंग आदमी को अब लाकर दिखाया जाय या अब के आदमियों को तब सतयुग वालों को दिखाया जाता तो निस्संदेह आश्चर्य की सीमा न रहती। तब का मनुष्य तब अचंभे की चीज न था, अब का अब भी अचंभे की चीज नहीं है, किन्तु समय और परिस्थिति के कारण जो परिवर्तन हो गया है, वह परिवर्तन ही अचंभे का कारण है। एक देश वाले दूसरे देश वालों के रीति-रिवाज, खान-पान, वेश-भूषा और भाषा को आश्चर्यजनक समझते हैं लेकिन अपने देश की प्रथा प्रणाली किसी को अचरज की मालूम नहीं देती। सिद्धियाँ हमें आश्चर्य में डालती हैं। क्यों? इसलिए कि वे आम लोगों में वर्तमान समय में नहीं देखी जाती। जो वस्तु सब किसी के पास नहीं है वही आश्चर्य है, चमत्कार है, वैभव है। पीतल के बर्तन हर किसी के घर में होते हैं, उन्हें रखकर कुछ कौतूहल नहीं होता परन्तु सोने की थाली में किसी को भोजन करते हुए देखते हैं तो बार-बार उसकी ओर ध्यान आकर्षण होता है। यदि सोना इतनी अधिक मात्रा में निकलने लगे कि घर-घर में सोने के बर्तन हो जायें तो पीतल की भाँति ही वह सोना भी आकर्षण हीन हो जायेगा। यदि सभी धनी, बंगले वाले मोटर वाले, अमीर हो जायं तो फिर उनकी ऐसी पूछ न रहेगी जैसी कि अब है। सिद्धियों को देखकर आश्चर्य का होना ऐसा ही है। अधिक लोगों के पास जो योग्यताएं नहीं हैं, उन्हें किसी खास व्यक्तियों में देख कर विचित्रता प्रतीत होती है।
चमत्कारों को देखकर हम अचंभा करते हैं। तो भी वास्तव में स्वतः उनमें अचंभे की कोई बात नहीं है। हवा में उड़ना, पानी पर चलना, अदृश्य रहना, द्रूत गति से चलना, आदि काम स्वतः ऐसे नहीं हैं जो हैरत में डालने वाले हों क्योंकि बहुत से प्राणी इस दुनिया में ऐसे हैं जो ऐसी प्रक्रियाएं आमतौर से करते रहते हैं। इसलिए हमें यह समझने की आवश्यकता नहीं है कि अष्ट सिद्धि नव निद्धि स्वतः कोई हैरत-अंगेज वस्तु है। वे हमें अचंभे में डालती है, इसलिए कि साधारणतः वे शक्तियाँ सब लोगों में देखी नहीं जाती। इसका मतलब यह नहीं है कि वे सामर्थ्य मनुष्य में स्वभावतः नहीं हैं, या कहीं अन्यत्र से अनायास प्राप्त हो जाती हैं।
मनुष्य अनन्त शक्तियों का महाभण्डार है उसके अन्दर ऐसी महा सत्ताएं सन्निहित हैं, जिनके एक-एक कण द्वारा एक-एक जड़ जगत का निर्माण हो सकता है। जितना बल उसके अन्दर मौजूद है उसका लाखवाँ भाग भी वह अपने प्रयोग में प्रायः नहीं ला पाता है। इस छिपे हुए महाभण्डार में अगणित अतुलित रत्न राशि छिपी पड़ी हैं, जो कोई जितना कुछ उसमें से निकाल लेता है, वह उतना ही धनी बन जाता है। परमात्मा का अमर राजकुमार अपने में पिता की सम्पूर्ण शक्तियों का सच्चा उत्तराधिकारी है। इच्छा और प्रयत्न करते ही सब कुछ उसे मिल सकता है। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसे वह अपने पिता के खजाने से पा न सके। जितनी सिद्धियाँ अब तक सुनी या देखी गई हैं, वे सब बहुत थोड़ी हैं, अभी इनसे भी अनेक गुनी-अनन्त गुनी-तो वे छिपी ही पड़ी हैं। जब मनुष्य विकसित होते-होते परमात्मा को ही प्राप्त कर सकता है- स्वयं परमात्मा बन सकता है तो उन सब महात्माओं और शक्तियों को भी पा सकता है, जो परमात्मा के हाथ में हैं। परमात्मा की इच्छा से हर एक असंभव बात संभव हो सकती है। फिर परमात्मा की स्थिति में पहुँचा हुआ मनुष्य भी वैसा ही असंभव को संभव करके दिखा देने वाला हो सकता है। सिद्धियाँ असंभव हैं, ऐसा कहना भ्रम मूलक है। एक से एक आश्चर्यजनक, चमत्कारी कार्य मनुष्यों द्वारा हुए हैं, हो रहे हैं, और आगे होंगे। हमारी क्षमताओं की संभावना इतनी ऊंची है कि साधारण बुद्धि से उसकी कल्पना करना भी कठिन है। हर एक असंभव बात मानव प्रयत्न के द्वारा संभव हुई है और हो सकती है।
जलते हुए अंगार के ऊपर जब राख जमा हो जाती है तो वह राख से ढ़का हुआ अंगार बाहर से छूने पर गरम नहीं मालूम पड़ता। किन्तु जैसे-जैसे उस राख को हटाया जाता है वैसे ही गर्मी बढ़ने लगती है, जब वह पूर्ण रूप से हट जाती है तो अंगार इतना गरम निकल आता है कि उसे छूना कठिन होता है। एक जलती हुई बिजली की बत्ती को कपड़े के अनेक परतों से ढ़क दिया जाय तो उसका प्रकाश कपड़ों से बाहर न आ सकेगा। किन्तु जैसे-जैसे उन परतों को हटाते जाते हैं, वैसे ही वैसे प्रकाश बढ़ता जाता है। जब सारे पर्त अलग हो जाते हैं तो स्वच्छ बिजली की बत्ती निकल आती है और उसके प्रकाश से चारों ओर जग-मग होने लगता है। जलाने वाला अंगार वही था, उसके अन्दर दाहक शक्ति सदा से मौजूद थी परन्तु राख ने उसे ढ़क दिया था। बिजली की बत्ती वैसी ही जल रही थी परन्तु कपड़े की पर्तों से ढ़के होने से प्रकाश बन्द था। यही बात मनुष्य की है। वह अनन्त शक्तियों का भण्डार है किन्तु दुर्वासना, दुर्भावना, कुविचार, भोग, लिप्सा, अनीति आदि आवरणों के पर्तों से वे ढ़क जाती है। यह पर्त उतने अधिक मात्रा में जमा हो जाते हैं कि मनुष्य एक बहुत ही तुच्छ, निर्बल, असहाय, बेबस और दीन हीन प्राणी मात्र रह जाता है। पशु-पक्षियों और कीट पतंगों की अपेक्षा भी उसका बल साहस, और सुख कम रह जाता है। तरह-तरह के कष्टों से रोता कलपता रहता है, अपने छोटे-छोटे दुख दरिद्रों को भी वह हटा नहीं पाता। ऐसी पतित अवस्था में पड़ा हुआ जीव यदि आध्यात्मिक सिद्धि को देखकर हैरत में पड़ जाता है और उनके आस्तित्व पर अविश्वास करने लगता है तो इसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं है।
जब हम अपनी कुवासना और दुर्भावनाओं को हटाकर सद्वृत्तियों और सद्भावनाओं को निखारते हैं तो आत्मतेज निर्मल होकर अपनी अनंत महत्ताओं को प्रकट करने लगता है। यह प्राकट्य ही सिद्धि है। पातंजलि योग सूत्र जिन्होंने पढ़ा है वह जानते हैं कि यम-नियम (अहिंसा, सत्य, आस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान) यह सिद्धियों के मूल स्रोत हैं। अहिंसा पालन करने से, उसके समीप पहुँचने वाले आपस का बैर भाव भूल जाते हैं, गाय, सिंह पास बैठे रहते हैं। सत्य का पालन करने से वाणी सत्य होती है जो श्राप, वरदान दिया जाय सफल होता है। आस्तेय का पालन करने से सब रत्नों की प्राप्ति होती है, लक्ष्मी की कमी नहीं रहती। परिग्रह से पूर्व जन्मों का हाल मालूम होता है। तप से शरीर हल्का और दूर दृष्टि मिलती है आदि। पातंजलि के इस कथन पर गंभीरतापूर्वक विचार करने से प्रतीत होता है कि यह सिद्धियाँ बाहर से प्राप्त नहीं होती। कोई पुरस्कार की तरह इन्हें प्रदान नहीं करता वरन् यह सब अपनी आन्तरिक योग्यताओं का निखार मात्र है। हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार, लोभ, मलीनता, तृष्णा, आलस्य, अविद्या, नास्तिकता आदि दुर्गुणों के कारण भीतर की दिव्य शक्तियाँ निर्बल, कुँठित और नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं। जैसे-जैसे इन कमजोरियों को हटाकर हम अपनी स्वाभाविक, सात्विक अवस्था की ओर चलते हैं, वैसे ही वैसे हम सफल, विजयी, समृद्ध, सिद्ध और महान बनते जाते हैं।