अष्ट सिद्धि नव निद्धि

January 1945

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(ब्रह्म विद्या का रहस्योद्घाटन)

हवा में उड़ जाना, पानी में चलना, शरीर को अदृश्य या छोटा-बड़ा बना लेना, इस प्रकार की सिद्धियों का वर्णन किन्हीं-किन्हीं पुस्तकों में मिलता है पर आज उनका परिचय नहीं मिलता। हम ऐसे सिद्धों की तलाश में दुरूह बन पर्वतों में मुद्दों तक भ्रमण करते रहे हैं, भारतवर्ष के कौने-कौने की खाक छानी है, अनेक गुप्त-प्रकट, अज्ञात बहु-विख्यात योगियों से हम घनिष्ठता पूर्वक मिले हैं और उनकी तह तक पहुँचने का शक्ति भर प्रयत्न किया है, 20 वर्षों की निरन्तर खोज में किंवदन्तियाँ तो अनेक सुनी पर ऐसी किसी सिद्ध पुरुष का साक्षात न हो पाया, जो सचमुच उपरोक्त प्रकार की हवा में उड़ने आदि की सिद्धियों से युक्त हो। जैसे गृहस्थ बाजीगर अपनी चतुरता, हस्तकौशल, कूट क्रिया द्वारा आश्चर्य जनक करतब दिखाते हैं वैसे ही चमत्कार दिखाते हुए हमने बहु विख्यात सिद्धों को पाया है। बहुत काल तक उनकी लंगोटी धोकर जब उनकी घनिष्ठता प्राप्त की तो जाना कि असल में सच्ची सिद्धि उनके पास कुछ भी नहीं है कूट क्रियाओं द्वारा लोगों को अपने चंगुल में फंसा लेने मात्र की कला में वे प्रवीण हैं। ऐसी दशा में इस संबंध में पाठकों से निश्चित रूप से हम कुछ कह नहीं सकते। यह पंक्तियाँ हम निजी अनुभव के आधार पर लिख रहे हैं, जिस बात का हम स्वयं अनुभव न कर लें उसके संबंध में पाठकों को कुछ विश्वास करने के लिए हम नहीं कह सकते। संभव है किसी पुस्तक में अतिशयोक्ति के साथ ऐसी सिद्धियों का होना लिख दिया हो, संभव है कोई स्वतंत्र विज्ञान उन सिद्धियों को प्राप्त करने का रहा हो जो अब लुप्त हो गया हो, संभव है ऐसी सिद्धियों वाले कहीं कोई अप्रकट योगी छिपे पड़े हो और संसार अभी तक उन्हें जान न सका हो। अज्ञात और अप्रत्यक्ष बातों के संबंध में चाहे जैसे अनुमान लगाये जा सकते हैं, पर जब तक कुछ प्रत्यक्ष अनुभव न हो निश्चित रूप से कहना संभव नहीं। इसलिये पातंजलि योग दर्शन में जिन सिद्धियों का वर्णन है, उनके बारे में हम अपना कुछ निश्चित मत पाठकों के सामने प्रकट नहीं कर सकते।

आत्मिक बल बढ़ने से कई प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त होती है जिनका हर कोई प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है। 1- जिसकी दिलचस्पी आत्मिक क्षेत्र में होती है वह आत्मा को शरीर से भिन्न समझता है और साँसारिक पदार्थों की नश्वरता को भली भाँति समझता है, इसलिये थोड़ी वस्तुएं प्राप्त होने पर भी बिना कुड़कुड़ाये काम चला लेता है और वियोग, हानि, नाश, आदि के कारण दुखी नहीं होता तीन चौथाई दुख मानसिक होता है, इनसे उसे सहज ही छुटकारा मिल जाता है। लोग दुःख निवारण के लिये सारा जीवन खपा देते हैं फिर भी संतोष की स्थिति प्राप्त नहीं होती किन्तु आत्म ज्ञान से अनायास ही उसकी प्राप्ति हो जाती है यह पहली सिद्धि है। 2- आत्मभाव, प्रेम, सद्भाव, ईमानदारी, सेवा, सहायता की बुद्धि जागृत होने से अपना व्यवहार दूसरों के साथ बहुत ही उदार, विनम्र और मधुर होने लगता है, फलस्वरूप दूसरों का व्यवहार भी अपने साथ वैसा ही मधुर-सहायता पूर्ण एवं सरस होता है। मित्रों प्रेमियों, हितचिन्तकों और प्रशंसकों की संख्या बढ़ने से मन प्रसन्नता और प्रफुल्लता से भरा रहता है यह दूसरी सिद्धि है। 3- आत्म निरीक्षण द्वारा कुवृत्तियों को पहचान कर उनसे बचने का प्रयत्न करते रहने से मानसिक शाँति बनी रहती है, पापों की बढ़ोत्तरी नहीं होती, चित्त की शुद्धि होने से अन्तःकरण हल्का होता रहता है और नाना प्रकार के मानसिक विक्षेप उठकर घबराहट बेचैनी उत्पन्न नहीं करते यह तीसरी सिद्धि है। 4- चित्त की स्थिरता का शरीर पर भारी प्रभाव पड़ता है। इन्द्रिय संयम और शाँत मस्तिष्क के कारण शरीर निरोग और दीर्घजीवी रहता है यह चौथी सिद्धि है। 5- सात्विक वृत्तियों के बढ़ने से धैर्य, साहस, स्थिरता, दृढ़ता, परिश्रम शीलता की वृद्धि होती है, इनसे असंख्य प्रकार की योग्यताएं बढ़ती है और कठिन काम आसान हो जाते हैं यह पाँचवीं सिद्धि है। 6- मनुष्यता की मात्रा बढ़ जाने से सब लोग उसका विश्वास करते हैं, विश्वासी के पथ प्रदर्शन, नेतृत्व और कार्यक्रम को लोग अपनाते हैं, उसके व्यक्तित्व की जमानत पर बड़ी से बड़ी जोखिम उठाने और त्याग करने को लोग तैयार हो जाते हैं, बिना राज्य शासन करना छठवीं सिद्धि है। 7- बुद्धि परिमार्जित होने के कारण दूसरों की मनोदशा समझने की योग्यता हो जाती है, निर्मल बुद्धि पर स्वच्छ दर्पण की तरह दूसरों के मन का चित्र स्पष्ट रूप से आ जाता है। अन्य व्यक्तियों के मनोगत भावों को समझकर उनके साथ तदनुकूल व्यवहार करने से अपनी कार्य पद्धति सफल, लाभदायक एवं हितकर होती है, यह सातवीं सिद्धि है। 8- आत्मा की पवित्रता के कारण जीवन मुक्ति मिलती है, ईश्वर प्राप्ति होती है, सत-चित आनन्द पूर्ण स्थिति में निवास होता है। स्वर्ग और पुनर्जन्म मुट्ठी में रहते हैं, यह आठवीं सिद्धि है। इन अष्ट सिद्धियों को आध्यात्म पथ के साधक अपनी साधना के अनुसार न्यूनाधिक मात्रा में प्राप्त करते हैं, जिस सुख की तलाश में बहिर्मुखी व्यक्ति घोर प्रयत्न करते हुए मारे-मारे फिरते हैं फिर भी निराश रहते हैं उससे कई गुना सुख आध्यात्म साधक अनायास ही पा जाते हैं। अष्ट सिद्धि के प्रभाव से उनका जीवन हर घड़ी आनन्द से परिपूर्ण रहता है, दुःखी की छाया भी पास में नहीं फटकने पाती। ऋद्धियाँ व सिद्धियाँ दूसरों के ऊपर प्रभाव करने के लिए हैं। पहलवान शारीरिक बल को बढ़ाकर स्वाधीन जन्य सुख भोगता है, साथ ही उस बल के प्रभाव से दूसरों को हानि लाभ पहुँचाता है, इसी प्रकार आत्मिक पहलवानों की ऋद्धियाँ सिद्धियाँ हैं। सिद्धियों के बल से अपने आप को उन्नत, पवित्र, शाँत, निर्भय एवं आनन्दित बनाता है और ऋद्धियों के बल से दूसरों को हानि लाभ पहुँचाता है। नौ ऋद्धियाँ निम्न प्रकार हैं-

आत्म बल के साथ जो भावना दूसरे पर फेंकी जाती है, वह बाण के समान शक्तिशाली होती है। उनके आशीर्वाद एवं श्राप दोनों ही फलदायक होते हैं। श्राप और वरदान की प्राचीन गाथाएं झूठी नहीं हैं, तपस्वी पुरुष सच्चे हृदय से किसी को आशीर्वाद दें तो वह व्यक्ति लाभान्वित हो सकता है और श्राप से आपत्ति में पड़ सकता है यह प्रथम ऋद्धि है। 2- तपस्वी पुरुषों की मामूली चिकित्सा से असाध्य और कष्ट साध्य रोग दूर हो सकते हैं। उनकी चिकित्सा में आध्यात्मिक अमृत मिला होने के कारण ऊँचे चिकित्सकों की अपेक्षा भी वे अधिक लाभ पहुँचा सकते हैं यह दूसरी ऋद्धि है। 3- साधकों के आस-पास का वातावरण ऐसा विचित्र एवं प्रभावशाली होता है कि उसमें रहने से लोगों में असाधारण परिवर्तन हो जाता है। बुरे और ढीले स्वभाव के व्यक्ति साधु पुरुषों की संगति में रह कर बहुत कुछ बदल जाते हैं। उनकी शारीरिक और मानसिक बिजली इतनी तेज होती है कि पास आने वाले व्यक्ति को अपने रंग में रंगे बिना अछूता नहीं छोड़ती यह तीसरी ऋद्धि है। 4- मैस्मरेजम, हिप्नोटिज्म, परकाया प्रवेश आदि तरीकों से वे निकटस्थ या दूरस्थ मनुष्य को सम्मोहित करके उसके अंदर के मानसिक दोषों को हटा सकते हैं और उसके स्थान पर सद्गुणों के बीज अंतर्मन में जमा सकते हैं यह चौथी ऋद्धि है। 5- पूर्व कर्मों के फल स्वरूप जिस प्रकार का भविष्य बना रहा है, उसको पहले से ही देख सकते हैं यह पाँचवीं ऋद्धि है। 6- भूतकाल की घटनाएं और विचारधाराएं नष्ट नहीं हो जाती वरन् ईश्वर तत्व में अंकित रहती हैं। आध्यात्म साधक किसी व्यक्ति का भूतकाल अपनी दिव्य दृष्टि से देख सकता है और बिना पूछे किसी व्यक्ति का परिचय जान सकता है। यह छठवीं ऋद्धि है। 7- योग साधक अपनी शक्ति साधना, तपस्या, आयु, योग्यता का कुछ अंश दूसरों को दान कर सकता है तथा किसी के पाप और कष्टों को स्वयं भुगतने के लिए आत्म बल से अपने ऊपर ले सकता है। यह सातवीं ऋद्धि है। 8- आत्म शक्ति से युक्त अपनी विचारधाराओं को अदृश्य रूप से ऐसे प्रचण्ड प्रभाव के साथ बहा सकता है कि असंख्य जनता को उन विचारों के सामने झुकना पड़े। आपने देखा होगा कि बक्की उपदेशक इधर-उधर कतरनी सी जीभ चलाते फिरते हैं पर उनका कुछ भी प्रभाव नहीं होता, किन्तु सच्चे महापुरुष थोड़ा कहते हैं तो भी उनके प्रचंड विचार बड़े-बड़े कठोर हृदयों में पार हो जाते हैं उनका ऐसा तीव्र प्रभाव होता है कि उपेक्षा करना कठिन हो जाता है, आत्म शक्ति युक्त महापुरुष अपने मनोबल से जनता से विचार पलट सकते हैं, युगान्तर उपस्थित कर सकते हैं। यह आठवीं ऋद्धि है। 9- निराशों को आशाँवित, आलसियों को उद्यमी, मूर्खों को पंडित, रोने वालों को आनन्दित, पापियों को पुण्यात्मा, दरिद्रों को ऐश्वर्यवान, अभावग्रस्तों को वैभवशाली बना देना, सोते हुए को जगा देना, नर को नारायण के रूप में परिवर्तित कर देना, अर्ध मृतकों में प्राण फूँककर सजीव कर देना यह नौवीं ऋद्धि है।

अष्ट सिद्धि नव ऋद्धि से स्वभावतः योगी लोग सम्पन्न होते हैं, जिसकी जितनी जैसी साधना है उसे उसी मात्रा में ऋद्धि सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। इनका दुरुपयोग करना बुरा है। सदुपयोग करने से आत्मिक बल वृद्धि होती है। जहाँ इन से बचने के लिए कहा गया है वहाँ उसका तात्पर्य इनका दुरुपयोग न करने से है अथवा कौतूहल पूर्ण बाजीगरी के निरर्थक खेलों में रुचि न लेने से है। योगी को स्वभावतः ऋद्धि सिद्धियाँ मिलती हैं यह प्राकृतिक क्रम है।


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