समझदारी की शिक्षा

October 1944

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(पं. रामदयाल शर्मा, तिलहर)

1-एक नौका वायु ठीक न होने से धीमी चाल से चलने लगी। तब खेने वाले मल्लाहों ने नौका के मुखिया से नौका में भरा हुआ अनावश्यक सामान समुद्र में डाल देने की आज्ञा माँगी, मुखिया ने भी इस बात को ठीक समझ कर आज्ञा दे दी। तदनुसार मल्लाहों ने अनावश्यक सामान समुद्र में फेंक दिया। बोझ कम हो जाने से नौका भी शीघ्रता से चलने लगी। किन्तु थोड़ी देर के पश्चात् ज़ोर की हवा चलने लगी बोझ कम होने से नौका डगमगा कर औंधी हो गई और सब मनुष्य डूबकर मर गये।

तात्पर्य—एक काम करते समय यह विचार रखना चाहिये कि दूसरा बिगड़ तो नहीं रहा है या दूसरे पर कुप्रभाव तो न पड़ेगा।

2—एक जहाज समुद्र में यात्रियों से भरा हुआ जा रहा था कि अकस्मात वह फूट गया और उसमें पानी भरने लगा। थोड़ी देर में वह डूबने वाला था। इस कारण उसके यात्रीगण अपनी अपनी बहुमूल्य वस्तुएं तथा धन दौलत अपनी पीठ कमर आदि से बाँध रहे थे। उन यात्रियों में एक विख्यात कवि भी था वह निश्चिन्त हो बैठा था। यह देखकर उनमें से एक यात्री उस कवि से कहने लगी ‘कवि राज जी! आपके पास द्रव्य तो बहुत है फिर आप कमर से क्यों नहीं बाँध लेते? कवि ने उत्तर दिया ‘मेरी मूल्यवान् और अत्यावश्यक वस्तु मेरे पास ही है। थोड़ी देर में जब जहाज बिल्कुल डूबने को था सब यात्री समुद्र में कूद पड़े। उनमें जिन्हें तैरना याद था तैरने लगे, किन्तु शरीर से धन दौलत आदि भारी चीजें बंधी हुई थी। इससे बोझा के कारण वे डूब गये। कवि भी अच्छा तैरना जानता था, उसने कोई भी भारी वस्तु शरीर पर बाँधी भी न थी इससे वह सुगमता से किनारे पर पहुँच गया निकट ही एक अच्छा ग्राम था उसमें जा पहुँचा वहाँ के निवासी कवि की कीर्ति पहिले ही सुन चुके थे इस कारण उन्होंने उसका बहुत सत्कार किया थोड़े समय में वह फिर धनवान बन गये और सुख से रहने लगा।

तात्पर्य—सब धनों में विद्याधन श्रेष्ठ धन है। इस कारण दैविक आपत्ति से मुक्त हो जाने पर विद्वान पुरुष साँसारिक द्रव्य चाहे जहाँ चाहे जितना प्राप्त कर सकते हैं।

3—वर्षा ऋतु के दिन थे—वर्षा अधिक होने से चारों ओर खासी कीचड़ हो रही थी। ऐसे समय में एक गाड़ीवान अपनी गाड़ी लिये जा रहा था, गाड़ी का एक ओर का पहिया कीचड़ में फँस गया, तब गाड़ीवान आकाश की ओर निहार कर हाथ जोड़कर परमेश्वर से प्रार्थना करने लगा- हे परमात्मा! मैं अत्यन्त दीन हूँ, इस कष्ट से मुझे बचाइये, यह शब्द सुनते ही परमेश्वर ने आकाश की ओर से देखा तो गाड़ीवान आनन्दपूर्वक गाड़ी पर बैठे हुए ही प्रार्थना कर रहा है यह साफ दिखाई दिया तब ईश्वर ने गाड़ीवान से कहा रे मूर्ख! तू आलसी के समान बन कर मत बैठ। उठ और बैलों को लकड़ी से पीट और पहिले अपने कन्धे का बल लगा तब मैं तेरी सहायता करूंगा। निरुद्योगी मनुष्यों की मैं सहायता नहीं करता हूँ। यह आज्ञा पाकर गाड़ीवान ने वैसा ही किया जिसके कारण बात की बात में पहिया कीचड़ से निकल आया।

तात्पर्य—ईश्वर की सहायता चाहने वालों को प्रथम स्वयं प्रयत्न करना चाहिये क्योंकि आलसी मनुष्यों की ईश्वर सहायता नहीं करता।

आत्मावलम्ब जिसको कुछ भी न प्यारा।

देता उसे न जगदीश्वर भी सहारा॥


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