गायत्री अनुष्ठान की सिद्धि

October 1944

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(श्री मन्त्र योगी)

पिछले अंक में ‘गायत्री मंत्र की दैनिक साधना’ लेख में यह बताया गया था कि प्रतिदिन गायत्री मंत्र का जप किस प्रकार करना चाहिए। उस विधि के अनुसार यथाशक्ति संख्या में नित्य जप करने से शरीर का स्वास्थ्य, चेहरे का तेज और वाणी का ओज बढ़ता जाता है। बुद्धि में तीक्ष्णता और सूक्ष्मदर्शिता की मात्रा में वृद्धि होती है एवं अनेक मानसिक सद्गुणों का विकास होता है, यह लाभ ऐसे हैं जिनके द्वारा जीवन यापन में सहायता मिलती है।

विशेष अनुष्ठान पूर्वक गायत्री मंत्र को सिद्ध करने से उपरोक्त लाभों के अतिरिक्त कुछ अन्य विशिष्ट लाभ भी प्राप्त होते हैं जिनको चमत्कार या सिद्धि भी कहा जा सकता है। गायत्री अनुष्ठान की अनेक विधियाँ हैं, विभिन्न ग्रन्थों और विभिन्न प्राचार्यों द्वारा पृथक रीति से विधान बताये गये हैं। इनमें से कुछ विधान ऐसे तान्त्रिक प्रक्रियाओं से परिपूर्ण हैं कि उनका तिल-तिल विधान यथा नियम पूरा किया जाना चाहिए, यदि उसमें जरा भी गड़बड़ हो तो लाभ के स्थान पर हानि होने की आशंका अधिक रहती है। ऐसे अनुष्ठान गुरु की आज्ञा से उनकी उपस्थिति में करने चाहिए तभी उनके द्वारा समुचित लाभ प्राप्त होता है।

किन्तु कुछ ऐसे भी राजमार्गी साधन हैं जिनमें हानि की कोई आशंका नहीं। जितना है लाभ ही है। ऐसे राम नाम अविधिपूर्वक जपा जाय तो भी कुछ हानि नहीं हर हालत में कुछ न कुछ लाभ ही है। कुछ राजमार्ग के अनुष्ठान ऐसे होते हैं जिनमें हानि की किसी दशा में कुछ सम्भावना है। हाँ लाभ सम्बन्ध में यह बात अवश्य है कि जितनी श्रद्धा, निष्ठा और तत्परता से साधन किया जायगा उतना लाभ होगा। आगे हम ऐसे ही विधि अनुष्ठान का वर्णन करते हैं वह गायत्री की सिद्धि का अनुष्ठान हमारा अनुभूत है। और भी कितने ही हमारे अनुयायियों ने इसकी साधना को सिद्ध करके आशातीत लाभ उठाया है।

देवशयनी एकादशी [आषाढ़ सुदी 11] से लेकर देवउठनी एकदशी [कार्तिक सुदी 11] के चार महीनों को छोड़कर अन्य आठ महीनों में गायत्री की सवालक्ष सिद्धि का अनुष्ठान करना चाहिए। शुक्ल पक्ष की दौज इसके लिए शुभ मुहूर्त है। जब चित्त स्थिर और शरीर स्वस्थ हो तभी अनुष्ठान करना चाहिए। डांवाडोल मन और बीमार शरीर से अनुष्ठान तो क्या कोई भी काम ठीक तरह नहीं हो सकता।

प्रातःकाल सूर्योदय से दो घन्टे पूर्व उठकर शौच स्नान से निवृत्त होना चाहिए। फिर किसी एकान्त स्वच्छ, हवादार कमरे में जप के लिए जाना चाहिये। भूमि पर जल छिड़क कर दाम का आसन फिर उसके ऊपर कपड़ा बिछाना चाहिए। पास में घी का दीपक जलता रहे तथा जल से भरा हुआ एक पात्र हो। जप के लिए तुलसी या चन्दन की माला होनी चाहिए। गंगाजल और खड़िया मिट्टी मिलाकर मालाओं की संख्या के गिनने के लिए छोटी-छोटी गोलियाँ बना लेनी चाहिए। यह सब वस्तुएं पास में रखकर आसन पर पूर्व की ओर मुख करके जप करने के लिए बैठना चाहिए। शरीर पर धुली हुई धोती हो, और कन्धे से नीचे खद्दर का चादर या ऊनी कम्बल ओढ़ लेना चाहिए। गरदन और सिर खुला रहे।

प्राणायाम—मेरुदंड सीधा रखकर बैठना चाहिए। आरम्भ में दोनों नथुनों से धीरे-धीरे पूरी साँस खींचनी चाहिए। जब छाती और पेट में पूरी हवा भर जाय तो कुछ समय उसे रोकना चाहिए और फिर धीरे-धीरे हवा को पूरी तरह बाहर निकाल देना चाहिए। “ॐ” मन्त्र का जप मन ही मन साँस खींचने, रोकने और छोड़ने के समय करते रहना चाहिए। इस प्रकार के कम से कम 5 प्राणायाम करने चाहिए। इससे चित्त स्थिर होता है, प्राणशक्ति सतेज होती है और कुवासनाएं घटती हैं।

प्रतिष्ठा-प्राणायाम के बाद नेत्र बन्द कर के सूर्य के समान तेजवान अत्यन्त स्वरूपवती कमल पुष्प पर विराजमान गायत्री माता का ध्यान द्वारा आह्वान करना चाहिए। उनके लिये जगज्जननी; तेजपुँज, सर्वव्यापक, महाशक्ति की भावना धारण करनी चाहिए। मन ही मन उन्हें प्रणाम करना चाहिए और अपने हृदय कमल पर आसन देकर उन्हें प्रीति पूर्वक विराजमान करना चाहिए।

इसके बाद जप आरम्भ करना चाहिए। “ॐ” भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।” इस एक मन्त्र के साथ माला का एक मनका फेरना चाहिए। जब एक माला के 108 दाने पूरे हो जाय तो खड़िया की गंगाजल मिश्रित जो गोलियाँ बना कर रखी हैं उनमें से एक उठा कर अलग रख देनी चाहिए। इस प्रकार हर एक माला समाप्त होने पर एक गोली रखते जाना चाहिए जिससे मालाओं की संख्या गिनने में भूल न पड़े।

जप के समय नेत्र अधखुले रहने चाहिए। मन्त्र इस तरह जपना चाहिए कि कण्ठ, जिह्वा, तालु, ओष्ठ आदि स्वर यन्त्र तो काम करते रहें पर शब्द वेद मंत्र को जब उच्च स्वर से उच्चारण करना हो तो सस्वर ही उच्चारण करना चाहिए। सर्वसाधारण पाठकों के लिए स्वर विधि के साथ गायत्री मंत्र का उच्चारण कर सकना कठिन है इसलिए उसे इस प्रकार जपना चाहिए कि स्वर यन्त्र तो काम करें पर आवाज़ ऐसी न निकले कि उसे कोई दूसरा आदमी सुन सके। जप से उठने के बाद जल पात्र को अर्घ्य रूप से सूर्य के सम्मुख चढ़ाना चाहिए। दीपक की अध जली बत्ती को हटा कर हर बार नई बत्ती डालनी चाहिए।

अनुष्ठान में सवा लक्ष मन्त्र का जप करना है। इसके लिए कम से कम सात दिन और अधिक से अधिक पन्द्रह दिन लगाने चाहिए। सात, नौ, ग्यारह या पन्द्रह दिन में समाप्त करना ठीक है। साधारणतः एक घण्टे में 15 से लेकर 20 माला तक जपी जा सकती हैं। कुल मिलाकर 1158 माला जपनी होती हैं। इसके लिए करीब 60 घण्टे चाहिए। जितने दिन में जप पूरा करना हो उतनी ही दिन में मालाओं की संख्या बाँट लेनी चाहिए। यदि एक सप्ताह में करना हो करीब 8-9 घण्टे प्रतिदिन पड़ेंगे इनमें से आधे से अधिक भाग प्रातःकाल और आधे से कम भाग तीसरे पहर पूरा करना चाहिए। जिन्हें 15 दिन में पूरा करना हो उन्हें करीब 4 घण्टे प्रतिदिन जप करना पड़ेगा जो कि प्रातः काल ही आसानी से हो सकता है।

जप पूरा हो जाय तो दूसरे दिन एक हजार मन्त्रों के जप के साथ हवन करना चाहिए। गायत्री हवन में वैदिक कर्मकाण्ड की रीतियाँ न बरती जा सकें तो कोई हानि नहीं। स्वच्छ भूमि पर मृतिका की वेदी बनाकर, पीपल, गूलर या आम की समिधाएं जलाकर शुद्ध हवन सामग्री से हवन करना चाहिए। एक मन्त्र का जप पूरा हो जाय तब “स्वाहा” के साथ सामग्री चढ़ानी चाहिए। एक दूसरा साथी हवन में और बिठाना चाहिए जो आहुति के साथ घी चढ़ाता जाय। जब दस मालाएं मन्त्र जप के साथ हवन समाप्त हो जाय तो अग्नि की चार प्रदक्षिणा करनी चाहिए। तत्पश्चात् भजन कीर्तन, प्रार्थना, स्तुति करके प्रसाद का मिष्ठान बाँटकर कार्य समाप्त करना चाहिए।

जिन्हें गायत्री मन्त्र ठीक रीति से याद न हो सके वे “ॐ” भूर्भुवः स्वः केवल इतना ही जाप करें। जिन दिनों अनुष्ठान चल रहा हो, उन दिनों एक समय ही सात्विक भोजन करना चाहिए, सन्ध्या को आवश्यकता पड़ने पर दूध या फल लिया जा सकता है। भूमि पर सोना चाहिए, हजामत नहीं बनवानी चाहिए , ब्रह्मचर्य से रहना चाहिए। चित्त को चंचल क्षुब्ध या कुपित करने वाला कोई काम नहीं करना चाहिए। कम बोलना, शुद्ध वस्त्र पहिनना, भजन, सत्संग में रहना, स्वाध्याय करना, तथा प्रसन्न चित्त रहना चाहिए। अनुष्ठान पूरा होने पर सत्पात्रों को अन्न धन का दान देना चाहिए।

इस प्रकार सवा लक्ष जप द्वारा गायत्री मन्त्र सिद्ध कर लेने पर वह चमत्कारपूर्ण लाभ करने वाला हो जाता है! बीमारी, शत्रु का आक्रमण, राज दरबार का कोप, मानसिक भ्राँति, बुद्धि या स्मरण शक्ति की कमी, ग्रह जन्य अनिष्ट, भूत बाधा, सन्तान सम्बन्धी चिन्ता, धन हानि, व्यापारिक विघ्न, बेरोजगारी, चित्त की अस्थिरता, वियोग, द्वेष, भाव, असफलता आदि अनेक प्रकार की आपत्तियाँ और विघ्न बाधाएं दूर होती हैं। यह सिद्धि करने वाला अपनी और दूसरों की विपत्ति टालने में बहुत हद तक दूर करने में किस प्रकार समर्थ होता है। इसका वर्णन अगले अंक में करेंगे।

बुरे कर्म का फल अच्छा हो ही नहीं सकता, बुरा कर्म करते हुए जो किसी को फलता-फूलता देखा जाता है वह उसके उस बुरे कर्म का फल नहीं है, वह तो पूर्व के किसी शुभ कर्म का फल है जो अभी प्रकट हुआ है। अभी जो वह बुरा कर्म कर रहा है उसका फल तो आगे चलकर मिलेगा।

बुरे कर्म का फल अच्छा हो ही नहीं सकता, बुरा कर्म करते हुए जो किसी को फलता-फूलता देखा जाता है वह उसके उस बुरे कर्म का फल नहीं है, वह तो पूर्व के किसी शुभ कर्म का फल है जो अभी प्रकट हुआ है। अभी जो वह बुरा कर्म कर रहा है उसका फल तो आगे चलकर मिलेगा।

सात्विक सहायताएं

इस मास ज्ञान यज्ञ के लिए निम्न सहायताएं प्राप्त हुई। अखण्ड ज्योति इन महानुभावों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करती है।

15) राजकुमारी ललन, मैनपुरी स्टेट।

4) श्री गंगाचरा जी ब्रह्मचारी, उभरो, गोडा।

2) श्री एम.सी. गट्टानी शोभापुर।

1) श्री राधाकृष्णजी, खेरी।

1) श्री विश्वेश्वरदयाल शर्मा, भरधना।


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