लक्ष्मी जी कहाँ रहती हैं?

October 1944

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दिवाली समीप है। लोग लक्ष्मी जी की पूजा बड़े उत्साह से करेंगे और चाहेंगे कि लक्ष्मी जी प्रसन्न होकर हमारे यहाँ निवास करें। ऐसे लोगों को जानना चाहिए कि केवल पूजा से ही लक्ष्मी जी प्रसन्न नहीं होतीं। वे अपनी रुचि के विपरीत स्थानों से चली जाती हैं और वहाँ ठहरती हैं जो उनकी प्रिय जगह है। नीचे महाभारत की एक कथा दी जाती है जिससे पाठक समझ सकेंगे कि लक्ष्मी जी कहाँ रहती हैं। जिन्हें लक्ष्मी जी को बुलाने की इच्छा हो वे अपने यहाँ ऐसा ही वातावरण तैयार करें। अनुकूल जगह में बिना बुलाये लक्ष्मी जी पहुँचती है। कथा—

एक दिन लक्ष्मी जी इन्द्र के दरवाजे पर पहुँची और बोलीं कि हे इन्द्र मैं तेरे यहाँ निवास करना चाहती हूँ।

इन्द्र ने आश्चर्य के साथ कहा-हे कमले! आप तो असुरों के यहाँ बड़े आनन्दपूर्वक रहती थीं, वहाँ आपको कुछ कष्ट भी न था। मैंने कितनी ही बार आपको अपने यहाँ बुलाने का घोर प्रयत्न किया, परन्तु तब न आई और आज आप बिना बुलाये ही मेरे द्वार पर पधारी हैं सो हे देवि! इसका कारण मुझे समझा कर कहिए।

लक्ष्मी ने कहा-हे इन्द्र! कुछ समय पूर्व असुर बड़े धर्मात्मा थे, कर्त्तव्य में परायण रहते थे। सब काम नियमित रूप से करते थे, परन्तु उनके यह गुण धीरे-धीरे नष्ट होने लगे। प्रेम के स्थान पर ईर्ष्या द्वेष और क्रोध कलह का उनके घर में निवास रहने लगा। अधर्म, दुर्गुण और व्यसनों की वृद्धि होने लगी तब मैंने सोचा कि अब मेरा निर्वाह इन लोगों के बीच में नहीं हो सकता। इसलिए मैं तेरे यहाँ चली आई हूँ।

इन्द्र ने पूछा-हे भगवती! वे कौन-कौन से दोष हैं जिनके कारण आपने असुरों को छोड़ा है। उन दोषों को विस्तारपूर्वक मुझसे कहने की कृपा कीजिए, जिससे मैं भी सावधान रहूँ।

लक्ष्मी ने उत्तर दिया—हे इन्द्र! जब कोई वयोवृद्ध सत्पुरुष ज्ञान विवेक का उपदेश करते थे तो असुर लोग उनके उपहास करते या उपेक्षा से निद्रा लेने लगते। वृद्ध और गुरुजनों के सम्मान का विचार न करके उनके बराबरी के आसन पर बैठते। सत्कार, शिष्टाचार और अभिवादन को बात वे लोग भूल गये। लड़के माता-पिता से मुँहजोरी करने लगे। बहुत रात्रि गये तक चिल्लाते रहते न स्वयं सोते न दूसरों को सोने देते। अकारण वैर और विवाद मोल लेते। स्त्री ने पति की आज्ञा मानना छोड़ दिया, पुत्र को पिता की परवाह न रही। शिष्य आचार्यों की तरफ मुँह मटकाने लगे। समस्त मान मर्यादाएं जाती रहीं। भिक्षा और दान देना बन्द करके अपने ही ऐश आराम में धन खर्च करने लगे। घर के बच्चों की परवाह न करके बूढ़े-बूढ़े पुरुष चुपचाप मधुर मिष्ठान अकेले ही खाते। जहाँ ऐसे निलब्ज आचरण होते हैं, उनके यहाँ हे इन्द्र! भला मैं किस प्रकार रह सकती हूँ?

वह असुर लोग फलदार और छायादार हरे-भरे वृक्षों को काटने लगे। दिन चढ़े तब वे लोग सोते, प्रहर रात्रि गये तक खाते, भक्ष और अभक्ष अन्न का विचार न करते। सत्कर्म करना तो दूर, दूसरों को करते देखते तो उसमें भी विघ्न उपस्थित करते। स्त्रियाँ फैशन, आलस्य और व्यसनों में व्यस्त रहने लगीं, घर में अनाज बिखरा पड़ा रहता जिसे चूहे खा-खाकर उपद्रव करते। खाद्य पदार्थ खुले पड़े रहते जिन्हें कुत्ते बिल्ली चाटते। गम्य-अगम्य का विचार छूट गया, घर में ही व्यभिचार होने लगा, मादक द्रव्यों में, जुए में, नाच-तमाशों में रुचि बढ़ने लगी, लापरवाही का हर और साम्राज्य था। ऐसी दशा में नौकरों की खूब बन पड़ी वे चुरा-चुरा कर अपना घर भरने लगे। उनके ऐसे आचरण देख कर मेरा जी जलने लगा एक दिन मैं चुपचाप उनके घर से चली आई। अब वहाँ दरिद्रता का निवास होगा।

हे इन्द्र! तू ध्यानपूर्वक सुन, मैं परिश्रमी, कर्त्तव्य परायण, विचारवान, सदाचारी, जागरुक, और नियमित रहने वाले धर्मवान् लोगों के यहाँ ही रहती हूँ। जब तक तेरा आचरण ऐसा रहेगा तभी तक मैं तेरे यहाँ रहूँगी।

लक्ष्मी के इन वचनों को सुनकर इन्द्र ने उन्हें अभिवादन किया और कहा हे कमले! आप मेरे यहाँ सुखपूर्वक रहिए। मैं ऐसा कोई अधर्ममय आचरण न करूंगा जिससे रुष्ट होकर आपको मेरे यहाँ से जाना पड़े।


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