(श्री. रमेश वर्मा, खागा)
मनुष्य के गहरे अन्तस्तल में से जो दिव्य सात्विक अनुभूतियाँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें आत्मा की वाणी, परमात्मा की आज्ञा ही समझना चाहिए। सद्भावना और उच्च आदर्शों को लेकर जो सद्इच्छाएं उठती हैं वे सर्वथा आदरणीय और अनुकरणीय हैं।
यदि सद्इच्छाओं को पूरा करने के मार्ग में कोई आसुरी विघ्न बाधा उपस्थित होती हो तो उसके सामने हमें झुकना नहीं चाहिए, आत्मसमर्पण नहीं करना चाहिए। मनुष्य ईश्वर का अविनाशी राजकुमार है यह उसके गौरव के प्रतिकूल होगा कि वह तुच्छ से स्वार्थ, विघ्न और प्रलोभनों के सामने अपनी गरदन झुकावे-आत्म समर्पण करे।
संसार में हर एक प्राणी सुख की इच्छा से काम कर रहा है। वर्तमान युग की वैज्ञानिक और भौतिक प्रगति के मूल में यही सुखेच्छा काम कर रही है। यह प्रवृत्ति अस्वाभाविक नहीं है। भगवान की इच्छा है कि मनुष्य सुखपूर्वक रहे और आनन्दमय सरस जीवन व्यतीत करे। यह सरसता और आनन्दमयी स्थिति केवल मात्र भौतिक संपदाओं से प्राप्त नहीं हो सकती। वह तब प्राप्त होती है जब हम अपनी सात्विक शुभेच्छाओं को-अन्तः कारण की प्रेरणाओं को-सुनते हैं और उनको पूरा करने के लिए प्रयत्न करते हैं। अपनी सात्विक इच्छाओं का-सत्कर्म करने की प्रेरणाओं का-भय या लोभ के कारण यदि हनन किया गया तो भीतर ही भीतर एक ऐसी जलन उठने लगेगी जिसे संसार की किसी भी भौतिक संपदा से शान्त नहीं किया जा सकता। सच्चे सुख को प्राप्त करने के इच्छुकों को यह जान लेना चाहिए कि सद्इच्छाओं को पूर्ण करने के प्रयत्न में ही सुख का स्रोत छिपा हुआ है।