हीनत्व की भावना को दूर कीजिए।

October 1944

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(प्रोफेसर श्रीरामचरण जी महेन्द्र एम.ए.डी. लिट्.)

निज जीवन के प्रति जैसी हमारी भावना होगी उसके अनुसार ही हमारा मार्ग भी मृदु अथवा कर्कश होगा। यदि एक व्यक्ति सुखी एवं प्रसन्न है तो वह इसी कारण कि वह सदा सर्वदा शुभ भावना में मग्न रहता है। यदि कोई व्यक्ति क्लान्त है तो इसका प्रधान कारण यही है कि वह चिंता, निराशा एवं क्षोभ की कुत्सित भावना में फँसा रहता है। सुख-दुःख आशा-निराशा मन की दो भूमिकाएँ हैं तथा इन दोनों की प्रतीति बहुत कुछ मनुष्य के व्यक्तिगत स्वभाव, विचारधारा, मानसिक दृष्टिकोण तथा शिक्षा-दीक्षा पर निर्भर है। एक व्यक्ति आशावाद के स्फूर्तिदायक वातावरण में जन्म लेता है, उत्साह की शुभ परिपुष्ट शिक्षा ग्रहण करता है, उत्कृष्ट विचारधारा में तन्मय रहता है और श्रद्धापूर्वक अपने उज्ज्वल भविष्य पर दृढ़ विश्वास रखता है। दूसरा व्यक्ति प्रतिकूल प्रसंगों में लिप्त रहता है, इसका जीवन पुष्प अर्ध-विकसित अवस्था में ही मुरझाने लगता है, वह अयोग्य वृत्तियों तथा अनिष्ट विचारों में ग्रसित होने के कारण सदैव खिन्न एवं क्षुब्ध रहता है। अपनी अवस्थाओं के लिए दोनों स्वयं ही उत्तरदायी हैं।

हमारी शिक्षा, प्राकृतिक अभिलाषा, संस्कार एवं कल्पना राज्य पर हमारा भविष्य-ऐश्वर्य-ईश्वरत्व टिका है। जिस व्यक्ति को यह शिक्षा मिली है कि ‘हे! मनुष्य, तू महान् है, उत्कृष्ट तत्त्वों का स्वामी है, ईश्वर के दैवी उद्देश्य की सिद्धि के लिए इस आनन्द निकेतन सृष्टि में आया है, तू सफलता के लिए—पूर्ण विजय के लिए, सुख स्वास्थ्य के निमित्त बनाया गया है और इससे तुझे कोई विहीन नहीं कर सकता। शक्ति सागर परमात्मा की यह इच्छा कदापि नहीं है कि तू अपनी परिस्थिति के हाथ का कठपुतली बना रहे, अपनी आस-पास की दशा का गुलाम बना रहे। हे अक्षय, अनन्त, अविनाशी आत्मा! तू तुच्छ नहीं, महान् है। तुझे किसी अशक्तता का अनुभव नहीं करना है। तू अनन्तर शक्तिशाली है। जिन साधनों को लेकर तू अवतीर्ण हुआ है वे अचूक हैं। तेरी मानसिक शक्तियाँ तेरी सेविकाएँ हैं। तू जो कुछ चाहेगा, वे अवश्य प्रदान करेंगी। तू उन पर विश्वास रख वे उत्तम से उत्तम वस्तु तुझे प्रदान करेंगी। तुम साक्षात् पारस हो जिस वस्तु को स्पर्श करोगे उत्तम वर्ण की कर दोगे, तुम्हारा मन कल्पवृक्ष है जो तुम्हारी आज्ञाओं का पालन करेगा; तुम अमृत स्वरूप हो। तुम्हारी विचार शक्ति आनन्द, उत्साह ओर तेज की वर्षा करेगी।” इस प्रकार की शिक्षा पाया हुआ युवक संसार का संचालन करता है। उसके दर्शन मात्र से मृतप्राय व्यक्तियों में नव जीवन संचार होता है। संसार ऐसे व्यक्ति के लिए स्वयं ही मार्ग साफ कर देता है। संसार में वे शक्ति का प्रकाश करते हैं। सब विद्याओं में यही सर्व शिरोमणि हैं क्योंकि यह हमारे जीवन को स्थायी सफलता और विजय से विभूषित करती है।

एक दूसरा युवक है जिसे निषेधात्मक वायुमंडल में, दुःख, दरिद्रता, द्रोह, वैर, विरोध के कुत्सित मनःक्षेत्र में उठना पड़ा है, जो संकीर्णता और सीमाबंधन में ही बड़ा हुआ है। ऐसा मनुष्य अंधकारमय निराशाजनक विचार रक्खेगा। वह कहता है कि “मैं बेकार हूँ कमजोर हूँ। हे समृद्धि! तू मुझसे दूर रह। मैं इस योग्य नहीं कि तुझे प्राप्त कर सकूँ। मेरा जीवन वेदना, लाचारी, ओर शंका का जीवन है। मैं ना चीज़ हूँ-क्षुद्र हूँ।” जो व्यक्ति ऐसी शिक्षा पाकर संसार में प्रवेश करता है उसका सर्वनाश बहुत दूर नहीं है। उसके संशय, उसके भय, उसके आत्मविश्वास की न्यूनता उसकी डरपोक और निषेधात्मक शिक्षा-दीक्षा उसकी कार्यशक्ति को पंगु बना देते हैं।

संसार में सबसे उत्कृष्ट वह शिक्षा है जो मनुष्य को अपना हितैषी बनना सिखावे। जो उसे बार-बार सिखलावे कि तुम शरीर नहीं हो, जीव नहीं हो, क्षुद्र नहीं हो; वरन् आत्मा-महान् आत्मा-परम् आत्मा हो। तुममें दैवी तत्त्व का अंश विद्यमान है, पूर्णता भरी हुई है, तुम दैवी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी हो।

तुम निज भावना में परिवर्तन करो। अपनी हीनत्व की भावना पर विजय प्राप्त करने के लिए मन के विभिन्न व्यापार देखने वाले दृष्टा बनो। सर्वप्रथम अन्तःकरण में जमी हुई निम्न प्रवृत्ति का उन्मूलन करो। तुम चाहे संसार में किसी भी स्थिति में क्यों न हो अपने हित की भावना सदैव कल्याणकारी है। जब तुम अपने अंतस्तल प्रदेश में शुभ भावना जागृत कर लोगे, विद्युत वेग से प्रवाहित होने वाली मन की क्रिया को हितैषिता की दिव्य ज्योति से देदीप्यमान कर सकोगे तो तुम्हें पूर्ण ज्ञान तथा अपूर्व शान्ति का अनुभव होगा।

जो मनुष्य अपने अन्तःकरण की निकृष्ट भावनाओं को तिलाँजलि देकर उच्च आत्म प्रदेश में प्रविष्ट हो जाता है वह अपने हृदय में प्रवाहित होने वाले गुप्त सामर्थ्य के अवरुद्ध स्रोत को तीव्र कर देता है। यह अवस्था शनैः शनैः अभ्यास से प्राप्त होती है। जब-जब अनिष्ट मनोवेग चित्त हो व्याकुल करते हैं तब-तब दृष्टा मन से पृथक होकर दुष्कामनाओं के प्रवाह पर अपने ज्ञान चक्षु स्थिर करता है, विचार शृंखला टूट जाती है और समस्त मानस व्यथाओं का अन्त हो जाता है।

तीव्र प्रवाह में प्रवाहित क्षुद्र तिनके की तरह बहाव में यों ही बह जाने के लिए तुम नहीं बने हो। तुम महान् पिता के महान् पुत्र हो। तुम्हें पुष्ट हाथ मिलें हैं, उत्कृष्ट मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्तियाँ उपलब्ध हैं जिनके द्वारा तुम स्वयं स्वमार्ग निश्चित कर सकते हो। तुम स्वयं ही अपने भाग्य की रचना करते हो। भाग्य चक्र की गति से तुम्हारा अपना ही उत्तरदायित्त्व निहित है; तुम जो बोते हो वही काटते हो। अपनी उन्नति का मार्ग तुम्हें स्वयं ही तय करना है। तुम्हारे मस्तिष्क में जिस अद्भुत प्रतिभा के बीच पड़े हैं उन्हें स्वयं ही उद्योग के जल से अंकुरित, पल्लवित एवं पुष्पित करना है। अपनी आत्मा को तुम्हें स्वयं ही जागृत करना है, मनोविकारों के तूफान से तुम स्वयं ही अपने आप को मुक्त कर सकते हो। कोई बाह्यशक्ति तुम्हारी सहायता न करेगी जब तक तुम अपने आत्म तेज को प्रकट कर लेते।

तुम संसार में राज्य करने को उद्देश्य से भेजे गए हो। तुम्हें प्रकृति की शक्तियों को वश में करना है, उन पर शासन करना है। यदि तुम अपने आप को निर्बल मानते रहोगे, अपना मूल्य कम आँकते रहोगे तो किस प्रकार शासन कर सकोगे? आज तुम अपने को कमजोर समझ-समझ कर हीनत्व की भावना के वशीभूत हो किन्तु इसे भूल कर—हृदय से देश निकाला दे देने पर ही—तुम्हारी सफलता निर्भर है।

अन्तः शक्तियों के स्वामी, मनुष्य, उठ! जागृत हो! और अपनी असीमता का दर्शन कर अपने सूर्य के समान प्रकाशक मनःतेज को प्रकाशित कर! भय, शोक, चिंता, निराशा को निकाल फेंक। अनिष्ट वृत्तियों पर दृढ़तापूर्वक शासन कर। अपने स्थूल एवं सूक्ष्म शरीर का आन्तरिक मल निकाल फेंक। उच्च भावावेश से अपने समृद्ध विचार प्रकाशित कर। वही तेरा वास्तविक स्वरूप है।

जिस व्यक्ति ने अपने हीनत्व को भावना को सर्वदा के निमित्त तिलाँजली देकर अंतःस्थित शक्तियों के केन्द्र को सशक्त कर लिया है वह जिस समय ध्यानावस्थित होता है अपने आन्तरिक प्रदेश में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को उसके वास्तविक स्वरूप में देखता है, उस समय उसे अपनी दिव्य शक्तियों की पूर्णता का ज्ञान हो जाता है।

प्रिय पाठक! तुम दीन हीन, कदापि नहीं हो, असमर्थ और कायर नहीं हो, दुर्बल नहीं हो, निस्तेज नहीं हो। तुम अमृत सन्तान हो, आत्म तेज के केन्द्र हो। तुम मोह और संशय के आवेश में मत्त होकर अपने वास्तविक स्वरूप को भूल बैठे हो। उठो! जागृत हो जाओ। अपनी बिखरी शक्तियों को पुनः एकत्रित करो। उन्हें परिपुष्ट करो। ज्यों-ज्यों तुम अपनी खोई हुई शक्तियों को प्राप्त करने जाओगे त्यों-त्यों तुम में दृढ़ता की अभिवृद्धि होगी, संकल्पों में बल आयेगा और तुम्हारी मनोनीत वस्तु एक दिन तुम्हारा गोद में आ उपस्थित होगी। अपने हृदयस्थ आन्तरिक प्रदेश के खुलते ही तुम अखंड आनन्द का अनुभव कर सकोगे और आत्मा के विशुद्ध प्रकाश में तुम्हें ज्ञान होगा कि तुम सर्वोपरि हो, महान हो, मनःसंताप से ऊँचे हो। वासनाएँ तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सकती। तुम उन पर आत्म-परीक्षा द्वारा शासन कर सकते हो।

आत्मोन्नति का वीर योद्धा मानसिक केन्द्र से भय और स्वार्थ की हीन वासनाओं को दूर करता हुआ ज्ञान प्राप्ति में संलग्न होकर शान्ति के उच्चतम शिखर पर दृष्टि लगाये हुए ऊँचे और ऊँचे चढ़ता जाता है और एक दिन अपने अभीष्ट स्थान पर पहुँच कर परम-शान्ति का भोग करता है।

तुम भी तो आत्मोन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो रहे हो। फिर अपने मानसिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त क्यों नहीं कर लेते? कायरता, चिन्ता, हीनत्व की कुकल्पना (अशुभ भावना) का उन्मूलन कर डालो। तुम्हारी कायरता तुम्हारे शरीर में नहीं, तुम्हारे मन में है। मन की अयोग्य वृत्ति को उत्साहित कर तुमने विवेक का ह्रास कर डाला। मोह से कायरता की उत्पत्ति हुई और अभद्र प्रसंगों में अहर्निश व्यस्त रहने के कारण तुम स्वयं अपने ही बन्धन में फँस गये। अब तुम स्वयं ही इस बन्धन से मुक्ति प्राप्त कर सकते हो। स्वयं ही महाव्याधि से छुटकारा प्राप्त कर सकते हो। मन में उन्नति की भावना को आरुढ़ करो। जितने वेग से तुम अपनी श्रेष्ठता में विश्वास करोगे तदनुसार ही उत्कृष्ट वृत्ति की रचना होगी। यदि तुमने निर्भयता उन्मुक्ति, समृद्धि की भावनाओं को मन केन्द्र में बसा लिया है तो उसी प्रकार की किरणें तुम्हारे अन्तःसूर्य से प्रकाशित होंगी और तुम हीनत्व की दलदल से मुक्त हो जाओगे।

रात्रि में शान्तचित्त हो, नेत्र मूँद कर बैठो और मन को निम्नलिखित आत्मसंकेत (्नह्वह्लश-ह्यह्वद्दद्दद्गह्यह्लद्बशठ्ठ) दो:-दृढ़ता पूर्वक कहो-”मैं पूर्ण निर्भय आत्म तत्त्व हूँ। शुद्ध ब्रह्म में निवास करता हूँ और संसार के मायामोह से नित्य प्रति ऊँचा उठता चला जा रहा हूँ। अब मैं अपने को किसी से दीन-हीन नहीं समझता; और न वैसे विचार ही फैलाता हूँ। मैं परमात्मा के आनन्द में विहार करता हूँ। मैंने हृदय को स्वच्छ कर लिया है। भय को ज्ञानाग्नि से भस्मीभूत कर आत्मा को विशुद्ध कर लिया है। अब मैं दुष्ट विचारों का गुलाम नहीं। अपना स्वयं स्वामी हूँ। साहस के शुभ विचार ही मेरे मनःस्तल में प्रवेश करते हैं।”

इस संदेश को पी लो। आत्मा को उससे सराबोर कर डालो। चित्तवृत्ति को इतने बल से उन्नति की भावना पर दृढ़ करो कि वही स्थायी चित्तवृत्ति बन जाय। आत्म निरीक्षण करते रहो कि कहीं चुपचाप फिर कोई नाशकारी विचार किसी अज्ञात छिद्र से न घुस जाय। जो व्यक्ति आत्म संग्रह कर लेते हैं प्रतिकूलता उन तक फटकती हुई डरती रहती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118