(श्री गोपाल शरण सिंह जी)
अपने से ही मैं करता हूँ प्रश्न कि—मैं हूँ कौन?
फिर मैं क्या इसका उत्तर दूँ, क्यों न रहूँ मैं मौन?
अपने को ही क्या बतलाऊं मैं अपना ही नाम?
क्या मैं अपना ग्राम बताऊँ क्या बतलाऊँ धाम?
क्या है नहीं सोचिए मन में यह अचरज की बात?
मेरे ही द्दग देख न सकते हैं मेरा ही गात।
किस मतलब के लिए न जाने हैं ये मेरे कान?
कभी न सुन सकते हैं पल भर ये मेरे ही गान।
छिपी सदा रहती है मुझ में अद्भुत शक्ति महान।
पर न कभी आता है उसका मेरे मन में ध्यान॥
मैं हूँ मुक्त तथापि देखिये क्या है मेरा हाल।
अखिल बन्धनों से रहता हूँ बंधा हुआ सब काल॥
सदा ध्यान में ही मैं अपने रहता अन्तर्धान।
तो भी नहीं जा सकता मैं अपना वास−स्थान॥
मैं क्या हूँ इसका होता है मुझे कदापि न ज्ञान।
कभी नहीं मैं कर पाता हूँ आत्म सुधारस पान॥
होते हैं आलोकित जिससे मही और आकाश।
रहता है अन्तर्हित मुझ में वह भी दिव्य प्रकाश॥
चिदानन्द होकर भी मैं हूँ रहता सतत उदास।
नित्य छिपा रहता है मुझ से निज उर का उल्लास॥
आत्म विषय में मैं करता हूँ, कितने ही अनुमान।
कुछ का कुछ मैं सोच सोचकर होता हूँ हैरान॥
जहां तहां मैं भटक रहा हूँ क्यों यों अन्ध समान?
अपने को ही खोज रहा मैं हूँ कैसा नादान?
-ज्योतिष्मती
*समाप्त*