चंचलता और उससे मुक्ति के उपाय

June 1944

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डॉक्टर रामचरण महेन्द्र एम.ए.डी.लिट्.

क्या तुमने कभी चुपचाप बैठकर अपने मन की उछलकूद, कलाबाजियों, संघर्षों पर विचार किया है। क्षणभर के लिए अपनी मानसिक विचारधारा को रोक कर मन उड़ान पर चिंतन करो । तुम्हें ज्ञात होगा कि वृक्षों की शाखाओं पर इधर से उधर कूदने वाले चंचल बन्दर की तरह तुम्हारा मन कभी इधर कभी उधर निरंतर भाग दौड़ में संलग्न है। कुछ न कुछ उधेड़बुन कर ही रहा है। तुम इसे किसी विशिष्ट कार्य में एकाग्र करना चाहते हो यह किंचित काल पश्चात भाग खड़ा होता है। तुम बारबार खींचकर इसे एक विषय पर लगाते हो पर यह भाग भाग जाता है। इस चंचलता के कारण तुम मानसिक शक्तियों को केन्द्रीभूत नहीं कर पाते। वे विच्छृंखल बनी है। इसी कारण तुम साधन पथ में अग्रसर नहीं हो पाते।

चंचल व्यक्ति के मन का दैनिक लेखा लिखा जाय तो वास्तव में अत्यन्त मनोरंजक होगा। प्रातः से सायं तक अनेक प्रलोभन, तृष्णाएँ, विचार, भावनाएँ आपस में टक्कर मारती हुई उपलब्ध होंगी। अंतर्द्वंद्व उद्वेग उत्पन्न करता है और मनुष्य के अन्तः करण को सदैव क्षुब्ध बनाये रहता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं अपना स्वामी नहीं होता प्रत्युत समय समय पर आने वाली मानसिक वृत्तियों का गुलाम होता है। वह कभी एक बात करने का निश्चय करता है, कुछ देर पश्चात् उसे अधूरा छोड़ किसी तृतीय में उलझ जाता है।

जो व्यक्ति चंचलता का दास हो जाता है वह किसी भी क्षेत्र में उन्नति नहीं कर पाता। वह जीवन पर्यन्त अस्त व्यस्त बना रहता है और क्लेश की वृद्धि करता रहता है। उसके उद्देश्य चंचल लहरों की तरह क्षण-2 बदलते रहते है। उसके संकल्प सदैव

परिवर्तित होते रहते है। ऐसा व्यक्ति स्वयं अपनी चंचलता का दास है। उसका सदैव पराजय होता है।

हमारे एक मित्र ने प्रारम्भ में डेरी (दूध, मक्खन, इत्यादि ) का व्यापार किया। फिर उस कार्य से जी ऐसा उकताया कि सब कुछ बेच कर एक आटा पीसने की चक्की लगाई। लाभ साधारण था। यदि कुछ दिन ठहरते तो अच्छी आमदनी होने लगती किन्तु कार्य तनिक निम्नश्रेणी का था, छोड़ बैठे और एक बिसाती की फैशनेबल सी दुकान चला दी। दुकान जमते जमाते आपने सुना कि लोग चूने के भट्टे में बड़ा लाभ कर रहे है। आज कल आप दुकान के स्थान पर चूने का भट्टा लगाने की फिक्र में है।

तनिक ऐसे व्यक्तियों की जीवन-रेखा पर दृष्टि डालिये। वह कैसी टेढ़ी मेढ़ी गतियों में जा रही है। इन्होंने जीवन शक्ति का कितना क्षय किया है । जो व्यक्ति नित्य अपना उद्देश्य बदलता रहता है। आज इस सड़क पर तो कल दूसरी पर चलता रहता है। क्या वह कभी अपने निश्चित स्थान पर पहुंच सकता है। क्षण क्षण विचार परिवर्तन करने वाला व्यक्ति जीवन भर रोता है। पूरी जिन्दगी इधर से उधर लुढ़कते हुए समाप्त कर देता है।

जितना तुम अपने उद्देश्य में परिवर्तन करोगे -कभी यह तो कभी वह कार्य करने का प्रयत्न करोगे-उतना ही तुम अधिक असफल रहोगे। खूब निश्चय करके एक पथ ग्रहण करो और फिर उस पर बिना इधर उधर देखे निरन्तर चलते रहो। मन को उसी में विभोर करो। मन चंचल है, बड़ा शैतान है। तुम्हें इधर उधर लुभाता, भड़काता, अटकाता है। तुम इस कमजोरी को याद रखो जिससे धोखा न खा बैठो।

जब कभी तुम्हारा मन विचलित हो, इधर उधर की बातों में बहकने लगे तो उस पर तीव्र दृष्टि रखो। तुम्हारे अंतर्जगत् में जो संघर्ष चलता है वह सब दुष्ट मनोविकारों के कारण होता है।

चंचलता वाले सब मनोविकार मनुष्य की सामर्थ्य को क्षीण करने वाले विषैले पदार्थ है। चंचलता से मुक्त होने का सुगम उपाय यह है कि हमें अपने मन तथा विचारों का स्वामी बनना सीखना चाहिए। गुप्त रूप से मन में कहना चाहिए कि “मैं सदैव शान्त स्थिर और दृढ़ रहने वाला व्यक्ति हूँ। मैं छोटे बच्चों की तरह चित्त को चलायमान नहीं करता है। एक पुष्प से दूसरे पुष्पों पर विहार करती हुई। तितली की तरह मैं क्षण क्षण विचलित नहीं होती । मैं चपल नहीं हूँ प्रत्युत पर्वत के सदृश दृढ़ हूँ, एक निष्ठ हूँ। मेरे संकल्पों, विचारों एवं मानसिक क्रियाओं में परस्पर मेल है। वे सब लक्ष पर केन्द्रित है। इधर उधर बिखरे नहीं है। मुझे एकाग्रता के मार्ग से कोई विचलित नहीं कर सकता। मैं उद्वेग के वशीभूत हो कठिनाइयों से व्यग्र नहीं हो जाता। मैं तो श्रेष्ठ पुरुष हूँ। अनन्त शक्ति, अनन्त पवित्रता, अनन्त स्थिरता का भण्डार हूँ। मैं शान्त, स्थिर और दृढ़ हूँ, फिर मेरा मन क्यों कर विचलित हो सकता है। कठिनाईयों, प्रलोभनों, आपत्तियों में मुझे विचलित करने की कदापि सामर्थ्य नहीं है क्यों कि मैं परम शक्ति-शाली आत्मा हूँ।”

उक्त लिखित संदेश को श्रद्धापूर्वक दोहराओ। बार बार कहते रहो। स्थिरता, दृढ़ता और अचलता की भावना पर चित्त एकाग्र करने से अनेकों की चंचलता से मुक्ति हुई है जब स्थिरता की विचार धारा पर मन आरुढ़ किया जाता है तो मन बहुत कुछ एकाग्रता लाभ करने लगता है। दीन हीन मानसिक क्षेत्र में रहने वालों को पुनः पुनः दृढ़ता के विचारों पर चित्त लगाना चाहिए।

तुम अपने मानसिक केन्द्र में उस योगी का मानस चित्र निर्माण करो जो एकाग्रता की साक्षात् प्रतिमा है। जब यह उत्कृष्ट चित्र तुम्हारे पास रहेगा तो तुम अवश्य तद्रूप हो जाओगे। दृढ़ता से अपने अपने आदर्श पर चित्त एकाग्र करने से अभ्युदय की प्राप्ति होती है।


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