(महात्मा एपिक्टेट्स)
मेरे पास बहुत से तरह तरह की वेष भूषा के जिज्ञासु तत्व ज्ञान की चर्चा सुनने आते हैं। मैं सोचता हूँ कि इनमें से जो गंदे, मैले कुचले, बिखरे बालों वाले, आँखों में कीचड़ भरे हुए आते हैं वे यहाँ न आते तो अच्छा होता। क्योंकि जो लोग मनुष्यता का आरंभिक लक्षण-सौंदर्यप्रियता-भी नहीं अपना सके हैं उनके लिए तत्वज्ञान की ऊँची बातों का सुनना भले ही सरल हो पर समझना मुश्किल है।
मैं अपने शिष्यों से कहता हूँ कि तुम सौंदर्य के उपासक बनो। इसके पीछे और कुछ बनने की सोचना। तत्वज्ञान का सबसे पहला पाठ यह है कि “भीतर और बाहर से सुन्दर बनो।” पहले बाहर के सौंदर्य को बढ़ाओं पीछे भीतर की सुन्दरता में प्रवेश करो। किन्तु ध्यान रखो बाहर की सुन्दरता पर ही अटके रह जाना उचित न होगा, उसके आगे बढ़कर आध्यात्मिक सुन्दरता को प्राप्त करना होगा।
आलसिवाइडिस एक अद्वितीय सुन्दर पुरुष थे, वे महात्मा सुकरात से भेंट करने गये। उनके सौंदर्य पर प्रसन्नता प्रकट करते हुए सुकरात ने कहा आलसिवाइडिस! मैं चाहता हूँ कि बाहरी सौंदर्य की तरह तुम्हारी आत्मा भी सुन्दर हो। सत्कार्य और सद्गुणों से तुम्हारा अन्तःकरण इतना स्वच्छ हो जाये जिसकी सुन्दरता पर हर एक को मुग्ध होना पड़ें, हर एक को प्रशंसक बनना पड़े।
सफाई, स्वच्छता, पवित्रता, कलापूर्ण व्यवस्था का नाम बाहरी सौंदर्य है और दया, ईमानदारी, नम्रता का नाम भीतरी सौंदर्य है। मैं बुड्ढा हो चला हूँ, आदि से लेकर अन्त तक तत्वज्ञान के जिज्ञासुओं को मेरा एक ही उपदेश है वह यह कि सुन्दर बनो बाहर और भीतर दोनों दिशाओं से अपना सौंदर्य बढ़ाओ।