(पं. श्रीरामजी पाठक, टिकारी)
मानव- जीवन संघर्षों से परिपूर्ण है। मनुष्य अपने धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में अग्रसर होने के लिये कोई न कोई ध्येय अवश्य बना लेता है और इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के निमित्त उसे जीवन की लड़ाइयों में भाग लेना पड़ता है। परिवर्तनशील जगत् कहता है कि ऐ प्राणियों! तुम कितने ही कार्य क्यों न करो, तुम्हारे लिये कर्म परायणता की आवश्यकता मरते दम तक बनी ही रहेगी। मानव गति-हीन अथवा क्रिया हीन नहीं हो सकता। उसकी वर्त्तमान अवस्था स्थायी नहीं है। परिवर्तन अवश्य होगा।
आध्यात्मिक विकास तथा जीवन के कंटकाकीर्ण पथ में महत्वपूर्ण सफलता आत्मा संयम से ही होती है। क्षणिक आपदाओं से या क्षणिक असफलताओं से हमें निराश होकर कर्तव्य पथ से विमुख न होना चाहिए। कष्टों के भय से अपनी महत्वाकाँक्षा को कुचलना आत्मघात करना है और जीवन के संघर्षों से भयभीत होकर आत्मघात करना महान पाप है।
इस संग्राम में जो भीरु हैं, मृत्यु से डरते हैं या जो निराशावादी हैं वे किसी भी हालत में सफल नहीं हो सकते। महान् उद्देश्य की पूर्ति में मृत्यु का कोई ख्याल न करते हुए जो वीर पुरुष विजय प्राप्त करता है वही सच्चा कर्मवीर है।
यदि हम में उत्साह और विवेक है तो संसार का कोई भी कार्य असाध्य अथवा दुःसाध्य नहीं हो सकता। अपने इस संग्राम में विजयी होने के लिए दृढ़ सफल और निर्भयता की सख्त जरूरत है। जिन परिस्थितियों की कल्पना मात्र से कायर सिहर उठता है, उसी दशा में निर्भय पथिक अग्रसर होते हुए सफलता की सूचना देता है।