सद् व्यवहार का अचूक अस्त्र

June 1944

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(श्री. मंगलचन्द जी भण्डारी हि.पा.विशारद, अजमेर)

एक राजा ने एक दिन एक स्वप्न देखा कि कोई परोपकारी साधु उससे कह रहा है कि “बेटा।़ कल रात को तुझे एक विषैला सर्प काटेगा और उसके काटने से तेरी मृत्यु हो जायेगी। वह सर्प अमुक पेड़ की जड़ में रहता है, पूर्व जन्म की शत्रुता का बदला लेने के लिए वह तुझे काटेगा।”

प्रातःकाल राजा सोकर उठा और स्वप्न की बात पर विचार करने लगा। धर्मात्माओं को अकसर सच्चे ही स्वप्न हुआ करते है। राजा धर्मात्मा था। इसलिए अपने स्वप्न की सत्यता पर उसे विश्वास था। वह विचार करने लगा कि अब आत्म रक्षा के लिए क्या उपाय करना चाहिए ?

सोचते सोचते राजा इस निर्णय पर पहुंचा कि मधुर व्यवहार से बढ़कर शत्रु को जीतने वाला और कोई हथियार इस पृथ्वी पर नहीं हैं। उसने सर्प के साथ मधुर व्यवहार करके उसका मन बदल देने का निश्चय किया।

संध्या होते ही राजा ने उस पेड़ की जड़ से लेकर अपनी शय्या तक फूलों का बिछौना बिछवा दिया, सुगंधित जलों का छिड़काव करवाया, मीठे दूध के कटोरे जगह जगह रखवा दिये और सेवकों से कह दिया कि रात को जब सर्प निकले तो कोई उसे किसी प्रकार का कष्ट पहुँचाने या छेड़ छाड़ करने का प्रयत्न न करे।

रात को ठीक बारह बजे सर्प अपनी बाँबी में से फुसकारता हुआ निकला और राजा के महल की तरफ चल दिया। वह जैसे जैसे आगे बढ़ता था वैसे ही वैसे उसे अपने लिए की गई स्वागत व्यवस्था को देखकर आनन्द होता था। कोमल बिछौने पर लेटता हुआ मनभावना सुगंध का रसास्वादन करता हुआ स्थान स्थान पर मीठा दूध पीता हुआ आगे बढ़ता था। क्रोध के स्थान पर संतोष और प्रसन्नता के भाव उसमें बढ़ने लगे।

जैसे जैसे वह आगे चलता था वैसे ही वैसे उसका क्रोध कम होता गया। राज महल में जब वह प्रवेश करने लगा तो देखा कि प्रहरी और द्वारपाल सशस्त्र खड़े है परन्तु उसे जरा भी हानि पहुंचाने की चेष्टा नहीं करते। यह असाधारण सौजन्य सर्प के मन में गढ़ गया, सद्व्यवहार, नम्रता, मधुरता, के जादू ने उसे मन्त्र मुग्ध कर लिया, वह राजा को काटने चला था। परन्तु अब उसके लिए अपना कार्य असंभव हो गया। हानि पहुंचाने के लिए आने वाले शत्रु के साथ जिसका ऐसा मधुर व्यवहार है, उस धर्मात्मा राजा को काटूँ तो किस प्रकार काटूँ? यह प्रश्न उससे हल न हो सका। राजा के पलंग तक जाने तक सर्प का निश्चय पूर्ण रूप से बदल गया।

सर्प के आगमन की राजा प्रतीक्षा कर रहा था। नियत समय से कुछ विलंब में वह पहुंचा। सर्प ने राजा से कहा “हे राजन्! मैं तुम्हें काटकर अपना पूर्व जन्म का बदला चुकाने आया था, परन्तु तुम्हारे सौजन्य और सद्व्यवहार ने मुझे परास्त कर दिया। अब मैं तुम्हारा शत्रु नहीं मित्र हूँ। मित्रता के उपहार स्वरूप अपनी बहुमूल्य मणि मैं तुम्हें दे रहा हूँ। लो इसे अपने पास रखो।” इतना कहकर और मणि राजा के सामने रख कर सर्प उलटे पाँवों अपने घर वापिस चला गया।

यह कहानी सत्य है या असत्य यह हम नहीं जानते, परन्तु इतना जानते है कि जिस तथ्य पर इसमें प्रकाश डाला गया है वह पूर्णतः सत्य है। भलमनसाहत और सद्व्यवहार ऐसे प्रबल अस्त्र हैं जिनसे बुरे से बुरे स्वभाव के दुष्ट मनुष्यों को भी परास्त होना पड़ता है। क्रोध, प्रतिहिंसा, दंड देने, बदला चुकाने की नीति से बुराई बढ़ती है। कीचड़ से कीचड़ नहीं धोई जा सकती बुराई से बुराई का अन्त नहीं किया जा सकता। बैर और विरोध को जड़ मूल से मिटा देने का एक मात्र हथियार सद्व्यवहार ही है। यदि हम अपने शत्रुओं के साथ में अच्छा व्यवहार करें तो निस्संदेह उनके बैर भाव को समूल नष्ट करके उन्हें अपना मित्र बना सकते हैं।


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