जीवन-पथ पर

June 1944

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(रचयिता श्री महावीर प्रसाद विद्यार्थी, टेढ़ा-उन्नाव )

मैं पथ पर बढ़ता जाता हूँ!

मैं मरु-प्रदेश के कण कण में सुख का संसार बसाता हूँ!

मेरे अधरों पर छलक रही है ऊषा की मुसकान मधुर,

नवनीत-समान सुकोमल है। पर कठिन कुलिश सा मेरा उर;

हँस-हँस पीता विष का प्याला, माधुरी सुधा की पाता हूँ!

मैं पथ पर बढ़ता जात हूँ!

कितने सुन्दर ऊँचे-नीचे, ऊबड़ खाबड़ अनगढ़ ढीले,

झाड़ियाँ कँटीली, बीहड़ बन पथ वर प्रदेश वे बरफीले;

छूकर मैं अपने हांको से शूलों को फूल बनाता हूँ!

मैं पथ पर बढ़ता जात हूँ!

मेरे चरणों पर लोट रहीं हैं मुक्ता मणियों की लड़ियाँ,

कब बाँध सकीं मेरे मन को ये विषम बन्धनों की कड़ियाँ;

अनजान किसी के इंगित पर मैं झूम झूम कर गाता हूँ!

मैं पथ पर बढ़ता जाता हूँ!


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