हमारा सत्−संकल्प (कविता)

June 1962

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(श्री प्रेमनारायण जी ‘सरोज’)

आश्रित रहें न कभी किसी के, अपनी स्थिति आप सँभालें।
कहीं न पीछे हटें—सर्वथा, आगे अपने चरण बढ़ा लें॥

निर्भय हो निज कर्मक्षेत्र में, रुकें न हम, बढ़ते ही जाएँ।
विजय−शिखर पर, दृढ़−प्रतिज्ञ हो, हम सदैव चढ़ते ही जाएँ॥

भय से कातर हों न कभी हम, नहीं निराशा मन में लाएँ।
करें पूर्ण निज ध्येय निरन्तर, जीवन का पुरुषार्थ दिखाएँ॥

प्रबल−पराक्रम का हम अपने, अखिल विश्व में बिगुल बजा दें।
युग−निर्माण करें, वसुन्धरा, में अनुपम−सौन्दर्य सजादें॥

एकाकी हो तो भी अपना, करें न छोटा मन का घेरा।
एक चन्द्र−मण्डल कर देता, दूर रात्रि का घोर अन्धेरा॥

प्रभु का दिव्य−तेज हममें भी विद्यमान, हम यह जानें।
भ्रम का सब आवरण हटा कर, अपना सत्य रूप पहिचानें॥

आज सृष्टि के अञ्चल में हम, अपना विमल ओज चमकाएँ।
स्वयं चलें, सबको सत्पथ पर, चलने का सन्देश सुनाएँ॥

विषम परिस्थिति में भी दृढ़−व्रत हों, न कभी किञ्चित घबराएँ।
सोये हुए जगाएँ, गिरते हुए उठाएँ, राह बताएँ॥

यही ‘सत्य−संकल्प’ हमारा—प्राणिमात्र को सुख पहुँचाना।
यही परम−पूजा है प्रभु की—‛मानवता का धर्म निभाना’॥


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