शरीर पर मन का क्या प्रभाव उत्पन्न होता है, इसकी चर्चा गत अंक के दो लेखों में की जा चुकी है। यदि मन में निराशा, क्षोभ, क्रोध आवेश, चिन्ता, भय, शोक जैसे भाव बने रहें तो स्वास्थ्य सुधार का लाख प्रयत्न करने पर भी शरीर की स्थिति दिन−दिन खराब होती जावेगी और कोई रोग न होने पर भी यह मनोविकार ही अकाल−मृत्यु का कारण बन जावेंगे। यह तथ्य पूर्णतया विज्ञान सम्मत हैं। भूतों के भय−भ्रम से डरकर कई व्यक्ति मरते एवं मरणासन्न स्थिति तक पहुँचते हुए देखे गये हैं। ऐसी कितनी ही घटनाओं में उस विपत्तिग्रस्त व्यक्ति का भय और भ्रम ही आपत्ति का एकमात्र कारण सिद्ध हुआ है। ज्योतिषियों द्वारा ग्रह दशा का भय दिला देने पर कई व्यक्ति निराशा के गर्त में डूबते और किंकर्तव्यविमूढ़ होते देखे गये हैं। इसी प्रकार मामूली सी हरारत को यदि धन अपहरण करने के लालच से कोई डॉक्टर तपेदिक बता दे और मृत्यु का खतरा समझा दे तो वह सामान्य रोग का रोगी भी डर के मारे अपने आप मौत के मुख में घुस पड़ने की स्थिति बना लेता है। भय और चिन्ता से उसका रक्त पतला पड़ जाता है और रोग निवारक शक्ति शिथिल हो जाती है। कई व्यक्तियों को निराशा और दुर्भाग्य के विचारों की अपने आप आदत भी पड़ जाती है। वे कोई न कोई बहाना ढूँढ़कर भविष्य अन्धकारमय होने की बात सोचते रहते हैं और सचमुच ही उनका भविष्य अन्धकारमय बन जाता है।
मनस्विता का प्रसाद
इसके विपरीत मनस्वी लोग मौत से लड़ने की भी हिम्मत रखते हैं और अपनी आशावादिता की प्रखरता से सचमुच अन्धकार में प्रकाश उत्पन्न कर लेते हैं। हारी बाजी को जीतने में, डूबते−डूबते पार हो जाने में, असफलता को सफलता में परिणत कर देने में, जहाँ ईश्वर की कृपा छिपी रहती है वहाँ मनुष्य का साहस भी कम काम नहीं करता। यदि यों कहा जाय तो भी कोई अत्युक्ति न होगी कि साहसी के साहस को देखकर ईश्वर उस पर प्रसन्न होते एवं कृपापात्र बनते हैं। जो लोग निराशा के विचारों में निमग्न रह कर स्वयं ही डूबने का उपक्रम बना रहे हैं उन्हें कौन बचा सकेगा? निराश और भयभीत मनुष्य आमतौर से अपने पैर में आप कुल्हाड़ी मारने की योजना बनाते हैं। ईश्वर सबकी मनोकामना पूर्ण करता है तो इन सर्वनाश की कल्पना करने वालों का विचार क्यों पूरा न होगा?
स्वास्थ्य को ठीक बनाये रहने में अनेकों कारण गिनाये जा सकते हैं पर सबसे प्रधान कारण मानसिक स्थिति है। हँसमुख, प्रसन्नचित्त, अलमस्त, उत्साही, आशावादी लोग अनेक अड़चनों के होते हुए भी निरोग बने रहते हैं। मनोबल की प्रखरता के कारण उनके नाड़ी संस्थान में एक प्रचण्ड विद्युत प्रवाह दौड़ता रहता है और हर अंग को इतनी सामर्थ्य प्रदान करता रहता है जितनी भरपूर रक्त से भरी शिराओं के द्वारा भी प्राप्त नहीं होती। मनोबल के अभाव में हट्टे−कट्टे मोटे−ताजे आदमी भी कायरता, कमजोरी एवं दीनता−हीनता का परिचय देते देखे गये हैं। इसके विपरीत शरीर से दुबले−पतले लगने वाले व्यक्ति भी यदि मनस्वी हो तो ऐसे पुरुषार्थ एवं साहस का परिचय देते हैं कि दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है। शरीर पर मन का अत्यधिक नियंत्रण रहता है इसलिए आरोग्य और दीर्घजीवन की प्रबल आकाँक्षा, आशा एवं भावना को दृढ़ विश्वास के आधार पर मजबूत बनाये रखने वाले व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों में भी अपने स्वास्थ्य को अक्षुण्य बनाये रहते हैं। जिन्हें बात बात में आशंका बनी रहती है और स्वास्थ्य संकट उत्पन्न होने का संदेह करते रहते हैं वे अपने इस संदेह के कारण ही बहुधा दुखद परिस्थितियाँ उत्पन्न कर लेते हैं और रोग शय्या पकड़ने के लिए विवश होते हैं।
विचारों का शरीर पर प्रभाव
दीनता और स्वाभिमान, आशा और निराशा, अकर्मण्यता और पुरुषार्थ, दैन्य और मनस्विता, आलस्य और उत्साह, प्रसन्नता और खिन्नता, नम्रता और अहंकार के भाव मनुष्य के चेहरे पर आसानी से पहचाने जा सकते हैं। जो जिस प्रकार के विचारों में रहता है चेहरे पर उसकी छाया दर्पण की तरह दिखाई देती है। विचारों का वह प्रभाव चेहरे तक ही सीमित नहीं रहता वरन् भीतरी एवं बाहरी सभी अंगों पर पड़ता है और उसका सारा ढाँचा ही उस चाल ढाल में ढल जाता है। स्त्रियों जैसी भावना रखने वाले जनाने पुरुषों की आवाज, चेष्टाएँ एवं गति−विधियाँ वैसी ही बन जाती हैं। कसाई, जल्लाद, वधिक और मछुआरों की आँखों में उनका मानसिक स्तर स्पष्ट छलकता रहता है, साथ ही उनकी वाणी, चाल−ढाल एवं प्रक्रिया में भी कठोरता का प्रतिबिम्ब स्पष्टतया देखा जा सकता है। यह प्रभाव भीतर के पाचन, रक्त संचार एवं वायु प्रवाह उत्पन्न करने वाले अंगों पर भी पड़ता है। आमाशय, आँत, फुफ्फुस, हृदय, यकृत, वृक्क, मूत्राशय, मस्तिष्क, नेत्र, कान, शिश्न, जिह्वा जैसे भीतरी अंगों पर भी उनका असर होता है और उनकी कार्य प्रणाली एवं गतिविधि में मन्दता, तीव्रता, अव्यवस्था तथा व्यतिक्रम उत्पन्न होने लगता है। अनैतिक एवं अनुपयुक्त विचारों का प्रभाव शरीर पर बहुत ही घातक पड़ता है। उनमें ऐसी शिथिलता एवं विकृति उत्पन्न हो जाती है कि पाचन रक्त संचार आदि का साधारण कार्य−क्रम चलते रहने में गतिरोध उत्पन्न होने से बीमारी के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं और यदि यही प्रक्रिया लगातार चलती रहे तो भला चंगा आदमी रोगी हो जाता है।
विकृत और कुसंस्कारी स्वभाव
मानसिक संस्थान पर विचारों का प्रभाव पड़ना तो स्पष्ट ही है। हेय विचारों में निमग्न व्यक्ति अपनी स्मरण शक्ति खो बैठते हैं। क्रोधी और बात−बात में उत्तेजित होते रहने वाले विद्यार्थी कभी अच्छे डिविजनों में पास नहीं होते। उनकी अधिकाँश मानसिक शक्ति इस उत्तेजना एवं आवेश में ही खर्च हो चुकी होती है। फिर वे पाठ को भली प्रकार याद रख सकने की क्षमता कहाँ से उपलब्ध करें? चिन्तित और क्षुब्ध रहने वाले व्यक्ति आमतौर से कब्ज के रोगी देखे गये हैं। जिनके पेट में कब्ज ने जड़ पकड़ रखी है उन्हें छोटे−बड़े अनेक रोगों का शिकार होते रहना बिल्कुल स्वाभाविक है। क्रोधी कभी पनपता नहीं वह सदा ताँत जैसा दुबला ही बना रहता है। कुढ़ते रहने वालों को आमतौर से पेशाब की बीमारियाँ होती हैं। उनके गुर्दे और मूत्राशय की गतिविधि आमतौर से दोषपूर्ण पाई जाती है। कामुक प्रकृति के लोग प्रमेह, स्वप्नदोष, प्रदर आदि यौन रोगों के शिकार होते हैं।
प्रसन्नता और संतोष
जिन्हें हँसने की, प्रसन्न और संतुष्ट रहने की आदत है उनमें से कदाचित ही कोई कभी बीमार पड़ता है। ढेरों मक्खन मलाई खाते रहने वालों में उतनी जीवनी शक्ति नहीं पाई जाती जितनी संतुष्ट रहने वाले लोगों में होती है। प्रसन्नता और मुस्कान जिनके चेहरे पर छलकती रहती है उनके रक्त में रोग निरोधक शक्ति बहुत बड़े परिमाण में रहेगी। उत्साही और स्फूर्तिवान व्यक्तियों के यकृत आमाशय और आँतों से पाचक रस भरपूर मात्रा में उत्पन्न होते हैं। आशावादी लोगों को नाड़ी संस्थान सम्बन्धी रोग नहीं होते। उनके ज्ञान तन्तुओं में इतना विद्युत प्रवाह भरा रहता है कि हर अवयव अपनी चेष्टाऐं पूर्ण वेग एवं उत्साह के साथ जारी रखे रहता है। चरित्रवान और कर्तव्य परायण कर्मयोगी प्रकृति के मनुष्यों का दीर्घजीवी होना असंदिग्ध है।
यह ठीक है कि आहार−विहार पर स्वास्थ्य बहुत कुछ निर्भर रहता है। पर यह भी ठीक है कि आहार−विहार को केवल वे ही मनुष्य ठीक रख सकते हैं जिनका मन नियंत्रित स्थिति में बना रहता है। आलसी, चटोरे, लापरवाह, वासनाग्रस्त, चंचल मन वाला मनुष्य न तो किसी नियमित दिनचर्या पर चल सकता है और न जिह्वा तथा कामवासना पर अंकुश रख सकता है। वह आरोग्यरक्षा के लिए संयम पालन करने की ओर उचित दिनचर्या पर चलने को उपयुक्त गतिविधि अपनाने की योजना बनाता रहता है। दो चार दिन किसी कार्यक्रम पर चलते भी हैं पर जोश ठंडा होते ही मानसिक दुर्बलता उभर आती है और ढील पोल में सारी योजना नदी की बाढ़ के बहते हुए तिनकों की भाँति अस्त−व्यस्त हो जाती है। संकल्प शक्ति के अभाव में भला कौन कठोर नियमों का पालन कर सकने में सफल हो सका है?
आरोग्य शास्त्र और मनोविज्ञान
आरोग्य शास्त्रियों का पूरा जोर इस बात पर रहता है कि लोग आहार−विहार के नियमों का कठोरता से पालन करें ताकि उनके स्वास्थ की रक्षा हो सके। मनोविज्ञान शास्त्र इससे भी एक कदम बढ़कर कहता है कि मनुष्य को अपने मन पर नियंत्रण करना सीखना चाहिए ताकि आहार−विहार का संयम करने में विकृत स्वभाव की प्रधान बाधा पर विजय प्राप्त की जा सके। इन्द्रिय निग्रह और व्यवस्थित कार्यक्रम पर चलने के लिए जिस दृढ़ता की आवश्यकता है वह केवल उन्हीं व्यक्तियों में हो सकनी संभव है जिनने अपने मन पर काबू प्राप्त करना सीखा है एवं सद्विचारों को प्रचुर मात्रा में अपनाकर मन को सात्विकता के ढाँचे में ढाल लिया है। गीता के मतानुसार निग्रही मन ही मित्र है अनियंत्रित मन तो शत्रु की भाँति सर्वनाश के उपकरण ही एकत्रित करता रहता है।
योगी लोग ही मनोवाँछित आयु को प्राप्त कर सके हैं। केवल शारीरिक नियमों का पालन करके कोई व्यक्ति जितनी आयु प्राप्त कर सकता है उससे कई गुनी आयु मानसिक प्रक्रियाओं, योग साधनाओं को अपनाकर प्राप्त कर सकना संभव है। शरीर शास्त्र की दृष्टि से मनुष्य का सौ वर्ष जीवित रह सकना सन्तोष ही नहीं आश्चर्य का विषय भी माना जाता है, पर योगशास्त्र की दृष्टि से मनुष्य कई सौ वर्षों तक बिना जरा जीर्णता अनुभव किये जीवित रह सकता है। अभी भी कई ऐसे संत महात्मा देखे जा सकते हैं जिनकी आयु आरोग्य शास्त्रियों की कल्पना से बहुत आगे है। पौष्टिक आहार में जिन वस्तुओं की गणना है उनका दर्शन न होने पर भी घास−पात या कंदमूल के बल पर दीर्घ जीवन एवं सुदृढ़ आरोग्य प्राप्त करने की सफलता के पीछे केवल एक ही तथ्य काम करता दीखता है और वह है मनोबल की प्रचंडता।’ योग विद्या का एकमात्र आधार भी यही तथ्य है। इसी के आधार पर अनेकों प्रकार की ऋद्धि−सिद्धियाँ प्राप्त की जाती हैं, उन्हीं में से एक सिद्धि दीर्घ जीवन और स्वस्थ शरीर की भी है।
स्वतन्त्र नहीं संबद्ध विषय
स्वस्थ शरीर यद्यपि एक स्वतन्त्र विषय मालूम पड़ता है। उसके लिए अलग से विचार और कार्य भी किये जाते हैं। चिकित्सा शास्त्र, शरीर विज्ञान, औषधि संहिता, शल्यक्रिया आदि विषयों पर स्वतंत्र खोज भी हो रही है और प्रयोगशाला भी चल रही है। मेडिकल कालेजों से लेकर अस्पतालों तक फार्मेसियों से लेकर शोध संस्थानों तक अपार धन और जनशक्ति लगी हुई है। तात्कालिक कष्ट निवारण की दृष्टि से इनके द्वारा बहुत कुछ लोकहित भी हो रहा है, पर गिरते हुए स्वास्थ्य को उठाने की समस्या का हल इन सारे प्रयत्नों के बावजूद भी निकलता नहीं दीखता। आहार−विहार को ठीक तरह पालन किये बिना स्वास्थ्य का स्थायित्व संभव नहीं। उचित आहार−विहार की जानकारी प्रायः सभी को है पुस्तकों में पढ़कर या सुनकर उसे हर कोई जान भी सकता है, पर इस जानकारी से किसी का क्या बनता है? मन काबू में हो तो इन्द्रियाँ रुकें? और इन्द्रियाँ रुकें तब कहीं आहार-विहार के उचित विषयों पर चल सकता संभव हो। इसलिए हम पत्ते सींचने की अपेक्षा, जड़ सींचने की बात क्यों न सोचें? यदि सचमुच हमें स्वास्थ्य प्यारा हो, यदि सचमुच हमें शरीर को स्वस्थ रखे रहने की आकाँक्षा हो तो तथ्यों की खोज के लिए हमें गहरा उतरना पड़ेगा। गहराई में पहुँचने पर इस दिशा में एक ही तथ्य परिलक्षित होता है वह है मन का नियंत्रण− इसी का नाम है मानसिक स्वच्छता। कुविचारों और अनुपयुक्त आदतों की ओर मन को न जाने देने का नाम ही मनोनिग्रह है। दुष्प्रवृत्तियों और दुर्भावनाओं की कीचड़ को साफ कर देने का नाम ही मानसिक स्वच्छता है। स्वच्छ हुआ मन मानव जीवन में अनेक विभूतियों के वरदान उपस्थित करता है, उनमें से एक अक्षय आरोग्य भी है स्वस्थ शरीर की समस्या का हल स्वच्छ मन की संभावना पर ही निर्भर है।