उत्तराधिकार में परिवार को पाँच रत्न दीजिए

June 1962

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धन दौलत, खेती, जमीन-जायदाद, सोना−चाँदी, रुपया, व्यापार आदि अनेकों माँ-बाप अपने बच्चों को उत्तराधिकार में देकर जाते है। इससे उनका कुछ दिन काम भी चलता है पर व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि से यह सभी चीजें अपर्याप्त हैं। निम्न श्रेणी का व्यक्तित्व होने पर आलस्य और प्रमाद से ग्रसित व्यक्ति उत्तराधिकार में प्राप्त हुई सम्पदाओं को भी सुरक्षित नहीं रख सकता। वह दुर्गुणों के कारण इन चीजों को बर्बाद कर देता है या उसे अज्ञानी और अव्यवस्थित पाकर लक्ष्मी स्वयं ही छोड़ कर चली जाती है। बड़े परिश्रम और लगन के साथ सञ्चय करके माँ-बाप अपने बच्चों के लिए कुछ इसलिए छोड़ते हैं कि हमारे पीछे भी बच्चे सुखपूर्वक रहेंगे, पर वे यह भूल जाते हैं कि सद्गुणों का समुचित उन्हें लाभ पहुँचाना तो दूर उलटे अनेक दुर्गुणों को बढ़ावा देने वाली सिद्ध होगी। गरीब बच्चे उतने नहीं बिगड़ते जितने अमीरों के। गरीब को रोज कमाना और रोज खाना पड़ता है। फालतू कामों के लिए उनके पास पैसा भी नहीं होता इसलिए वे एयाशी, विलासिता, व्यसन और बदमाशी के फेर में पड़ने से सहज ही बच जाते हैं। पर जिनके घर में सुविधा है उनके दुर्गुणों को पनपने में भी सुविधा रहती है वे दुखदायक परिस्थितियों में आसानी से—कुछ ही दिनों में फँस जाते हैं।

अभिभावकों की जिम्मेदारी

अभिभावकों का कर्तव्य है कि अपने बच्चों के लालन−पालन का, खिलाने−पिलाने का, लाड़-चाव का, सुख−सुविधा का, पढ़ाई−लिखाई, ब्याह शादी और आजीविका में लगाने का समुचित ध्यान रखें। पर इतने तक ही सीमित हो जाने से उनका कर्तव्य पूर्ण नहीं हो जाता। इन सब बातों से अधिक उत्तरदायित्व उन पर इस बात का है अपने बच्चों को सभ्य और सद्गुणी बना कर जावें। शारीरिक, बौद्धिक और आर्थिक विकास को महत्वपूर्ण माना जाता है सो ठीक है पर यह न भूलना चाहिए कि यदि बालक में अच्छी आदतों का, सत्प्रवृत्तियों का, सद्भावनाओं का समुचित विकास नहीं किया गया है तो वह बलवान, विद्वान, धनवान कुछ भी क्यों न रहे मानसिक दृष्टि से सदा दुखी नहीं बन सकता है। साधनों के आधार पर सुविधा बढ़ सकती है पर शान्ति और सन्तोष तो अच्छी मनोवृत्तियों के ही प्रतिफल हैं। कुसंस्कारी व्यक्ति को कभी भी सुख नहीं मिल सकता। वैभव के कारण दूसरों में अपने सुखी होने का भ्रम पैदा किया जा सकता है पर वस्तु स्थिति सदा यही रहती है कि जिसका दृष्टिकोण ऊँचा है सच्चा सुख केवल उन्हीं तक सीमित रहेगा।

बच्चों का उज्ज्वल भविष्य

जो अभिभावक अपने बच्चों को सचमुच सुखी बनाना चाहते हों, उनके भविष्य को उज्ज्वल बनाना चाहतें हों उनके लिए आवश्यक है कि सद्गुणों की दैवी सम्पदा अपनी संतति को अधिकाधिक मात्रा में देने का प्रयत्न करें। पर यह दे सकना उन्हीं के लिए संभव है जिनके पास स्वतः कुछ हो। धनी व्यक्ति ही अपने बच्चों के लिए धन छोड़ सकते हैं। सद्गुणी व्यक्ति ही उत्तराधिकार में अपनी संतति को निखरा हुआ व्यक्तित्व प्रदान कर सकते हैं। बच्चों को कुछ देने या छोड़ जाने की प्रसन्नता प्राप्त करने से पूर्व अभिभावकों को पहले कठोर श्रम करके स्वयं कमाई करनी पड़ती है तब उस संग्रह को किसी के लिए दे सकना संभव होता है। सद्गुणों की पूँजी पहले हमें अपने स्वभाव में संचित करनी पड़ेगी। उसके बिना बच्चों को अच्छा बनाने की बात सोचना व्यर्थ है। ढपोरशंख की कथा है कि वह कहता बहुत था और करता कुछ नहीं था। हम बालकों को सज्जन बनने की शिक्षा दें और स्वयं दुर्जन बनें रहें तो अभीष्ट उद्देश्य किसी भी प्रकार पूरा न हो सकेगा। बच्चों को सुधारने से पूर्व हमें अपने आपको सुधारना होगा। बालकों की समझ अविकसित होती है वे उपदेशों को अच्छी तरह समझ नहीं पाते पर उनकी अनुकरण शक्ति प्रबल रहती है जो उसकी नकल तुरन्त करने लगते हैं।

श्रम-शीलता की शिक्षा

यदि हम चाहते हैं कि हमारे बालक आलसी और अकर्मण्य न बनें तो हमें उनके सामने श्रमशीलता एवं कार्य संलग्नता का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए और अपनी ही भाँति उन्हें भी किसी उपयुक्त कार्यक्रम में लगे रहने की दिनचर्या बना देनी चाहिए। व्यवस्था ऐसी करनी कि बालक खिन्न होकर नहीं वरन् मनोरंजन समझकर बताये हुए कार्यों में लगा रहें। उसका मन न लगता हो तो किसी दूसरे प्रकार से हेर-फेर कर देना चाहिए। खेलना भी एक काम है यदि वह नियत समय और उचित वातावरण में सम्पन्न किया जाय। खेलों में जहाँ मनोरंजन के लिए स्थान रहे वहाँ बुद्धि-विकास एवं सामाजिक प्रवृत्तियों की भी गुँजाइश रहनी चाहिए। घर के कई उपयोगी कामों में बच्चों को लगाये रहने और साथ ही उनका मनोरंजन होते रहने की अपनी परिस्थितियों के अनुरूप व्यवस्था कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति आसानी से बना सकता है। पुरस्कार और प्रशंसा के द्वारा भी बच्चों को उपयोगी कामों में लगे रहने की प्रेरणा दी जा सकती है। समय को व्यर्थ न जाने देना और उसे किसी न किसी उपयोगी कार्य में निरन्तर लगाये रहने की आदत मानव जीवन की सब से बड़ी श्रेष्ठता एवं विशेषता है। जिसने अपने बच्चों को यह आदत सिखा दी उसने उनके लिए अपार सम्पत्ति उत्तराधिकार में छोड़ने की अपेक्षा कहीं अधिक उपकार किया है, यह मानना चाहिए।

उदारता एक दिव्य गुण

उदारता दूसरा गुण है। बच्चे अपने भाई-बहिनों से अकसर लड़ते-झगड़ते रहते हैं खाने−पीने की वस्तुओं के लिए, खिलौनों के लिए, या और किन्हीं वस्तुओं के लिए आपस में छीना−झपटी करते रहते हैं। इस आदत को जरा भी प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए वरन् उन्हें यह सिखाना चाहिए कि मिठाई आदि कोई स्वादिष्ट चीज पहले अपने दूसरे बहिन-भाइयों को बाँटे तब खुद खावें। जो बच्चा अधिक स्वार्थी हो उसी से यह बटवारे का काम कराना चाहिए। और उसे उचित बँटवारा करने पर, स्वयं सबसे पीछे और कम लेने की सज्जनता पर जी खोलकर बधाई देनी चाहिए तथा इस कार्य की उपयोगिता भी समझनी चाहिए। ईर्ष्यावश दूसरे बच्चों की चीजों को तोड़ने-फोड़ने या खराब करने की आदत किसी बच्चे की पड़ने लगी हो तो इस की बुराई समझनी चाहिए और उपकार एवं स्नेह बुद्धि जगाकर दूसरों की वस्तुओं को सँभालकर रखने एवं सहायता करने की प्रवृत्ति पैदा करनी चाहिए। एक दूसरे के कटु−व्यवहार को सहना, मित्रता में भी समन्वय उत्पन्न करना, भूलने और क्षमा करने की नीति रखना, अपने कर्तव्य को स्मरण रखना और अधिकार को भूल जाना जहाँ भी स्वीकार किया जायेगा वहाँ की शान्ति और प्रेम भावना को कोई भी कारण नष्ट न कर सकेगा। उदारता पारिवारिक शान्ति की सबसे बड़ी गारन्टी है।

सफाई और सादगी

सफाई तीसरा गुण है जो बच्चों आरम्भ से ही उत्पन्न करना चाहिए। सफाई से प्रेम होने का अर्थ है मैल से घृणा। धोबी के धुले कपड़े चटपट पहन लेना और पुराने कपड़े में उतारकर फेंक देना सफाई नहीं है, यह तो सौन्दर्य के प्रति आकर्षण मात्र है। शरीर के किसी अंग पर मैल जमा न होने देना, रगड़−रगड़ कर भली प्रकार स्नान करना, दाँत और जीभ ठीक तरह साफ करना, धुले कपड़े पहनना, अपने उपयोग की सभी चीजें ठीक रखना यह सभी आदतें आवश्यक हैं। पर सबसे बड़ी बात यह है कि अपनी कोई वस्तु अव्यवस्थित पड़ी न रहने दी जाय। कपड़े, जूते, बर्तन, पुस्तकें, कलम आदि वस्तुओं को बच्चे जहाँ−तहाँ पटक कर दूसरे काम में लग जाते हैं। उन्हें सिखाया जाना चाहिए कि एक काम पूरा करके तब दूसरा आरंभ करना चाहिए और गन्दगी से घृणा करनी चाहिए। गन्दगी के उत्पन्न होते ही साफ करना चाहिए। हर वस्तु स्वच्छ और सलीके से रखनी चाहिए। गन्दगी से घृणा न हो उसे सहन करना, मानव स्वभाव का एक बहुत बड़ा दूषण है।

तड़क−भड़क, शौकीनी, फैशन−परस्ती सफाई जैसी दीखते हुए भी उससे सर्वथा भिन्न है। सादगी ही सज्जनता की पोशाक है। जो लोग फैशन बनाकर अपने आपको गुड्डे गुड़ियों जैसा सजाते हैं वे मानसिक दृष्टि से पीछे ही कहे जा सकते हैं। शालीनता का प्रधान चिह्न सादगी ही माना गया है और सभी सम्भ्रान्त व्यक्ति उसी को महत्व देते हैं। चीजों को सुव्यवस्थित एवं सुसज्जित रूप से रखने की आदत आरम्भ में छोटी ही क्यों न लगती हो आगे चलकर व्यक्ति को एक सुयोग्य व्यवस्थापक एवं सुरुचि सम्पन्न व्यक्ति बना देती है। इसलिए बच्चों को बारबार टोकते रह कर, उन्हें बारबार समझते रह कर सँभालने और साफ रखने की आदत का अभ्यासी बनाना चाहिए। एक काम को पूरा करके दूसरे को हाथ लगाया जाय। यह आदत धैर्य और व्यवस्था का पूर्ण रूप है। कपड़े, पुस्तकें, बर्तन, जूते आदि यथास्थान रखे बिना वे आगे का काम न करें यह आदत डाली जा सके तो एक काम अधूरा छोड़कर दूसरे में लगने की, दूसरा छोड़कर तीसरे में संलग्न हो जाने की बाल बुद्धि से बचा जा सकता है। और बच्चा आगे चलकर इस आदत के कारण ही जीवन के हर क्षेत्र में सफलता का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। पूरा मन लगाकर जो भी काम किया जायेगा उसमें जादू जैसी विशेषता होती है और हमारे अधूरे मन से किये हुए काम आमतौर से फूहड़पन लिये होते हैं।

समय का सदुपयोग

समय का पालन, नियत दिनचर्या के आधार पर यथा समय पर अपने सब काम करने की आदतें मानव जीवन के सदुपयोग का महत्वपूर्ण गुण हैं। अधिकाँश व्यक्ति समय का मूल्य नहीं समझते। ईश्वर ने सम्पत्ति के रूप में मानव प्राणी को यही सबसे बड़ी− सबसे मूल्यवान वस्तु दी है। वह जो कुछ भी विभूति चाहे अपने समय का पूरा उपयोग करके उसे प्राप्त कर सकता है। समय के सदुपयोग का नाम ही पुरुषार्थ है। नियमित रूप से व्यवस्थित गति से चलती रहने वाली चींटी भी योजन लम्बी मंजिल पार कर लेती है पर निठल्ला बैठने वाला गरुड़ भी जहाँ का तहाँ रहता है। फुरसत न मिलने की शिकायत तो हर आदमी करता है और अपने को कार्य व्यस्त भी मानता है पर सच बात यह है कि कोई बिरला ही अपने आधे समय का भी ठीक उपयोग कर पाता है। धीरे−धीरे अधूरे अव्यवस्थित प्रकार से, आवश्यकता से अधिक समय मामूली बातों में लगा कर अनुपयोगी कामों में लगे रहकर आमतौर से लोग अपनी आधी जिन्दगी नष्ट कर लेते हैं। लिखित दिनचर्या बनाये बिना यह पता ही नहीं लगता कि आवश्यक और अनावश्यक कार्य कौन−कौन से हैं और कब कौनसा, कार्य, कितने समय में करना है। इसलिए बच्चों को समय का महत्व समझाना चाहिए। व्यस्तता का महत्व बताना चाहिए और समय की बर्बादी की हानि से उन्हें परिचित रखना चाहिए। जल्दी सोना और जल्दी उठना किसी भी प्रगतिशील जीवन में रुचि रखने वालो के लिए नितान्त आवश्यक है। जिसके सामने कोई अनिवार्य कारण न हों उन्हें सूर्य अस्त होने के तीन घण्टे के बाद तक अवश्य सो जाना चाहिए और प्रातःकाल सूर्य उदय होने से दो घण्टे पहले उठ बैठना चाहिए। यह सोने और उठने की आदत जिनने ठीक कर ली वे बच्चे निश्चित रूप में पढ़ाई में अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होते रहेंगे। इस आदत के कारण प्रतिदिन कई महत्वपूर्ण घण्टे अधिक कार्य करने के लिए मिल जाते हैं और उसको जिस भी कार्य में लगाया जाय उसी में मनुष्य आशाजनक उन्नति कर सकता है। जिसने अपने समय का मूल्य समझ लिया और उसके सदुपयोग की ठान ली समझना चाहिए कि उसने अपने जीवन को सफल बनाने की आधी मंजिल पार कर ली।

शिष्टाचार और सज्जनता

पाँचवाँ गुण जो बच्चों को सिखाया जाना चाहिए वह है—नम्रता। सज्जनता, शिष्टाचार, मधुर−भाषण, भलमनसाहत यही तो वह विशेषताऐं हैं जिनसे आकर्षित होकर लोग अपने ऊपर अनुकम्पा अनुभव करते हैं। पराये को अपना बनाने का गुण केवल मात्र सज्जनता के व्यवहार में ही सन्निहित है। अनुदार, रूखे, कर्कश, अशिष्ट, कटुभाषी व्यक्ति अपनों को भी पराया बना देते हैं और मित्रों से शत्रुता उत्पन्न कर लेते हैं। उसके विपरीत जिनकी वाणी में प्रेम घुला रहता है, आदर के साथ बोलते हैं और नम्रता और सज्जनता का परिचय देते हैं उनके शत्रु भी देर तक शत्रु नहीं रह सकते, उन्हें प्रतिकूलता छोड़कर अनुकूल बनने के लिए विवश होना पड़ता है।

परिवार के विद्यालय में सज्जनता एवं मधुरता का अभ्यास छोटी आयु से ही बालकों को कराया जाना चाहिए। बड़े−छोटों के साथ आप या तुम कहते हुए सम्मान सूचक शब्दों में ही बात करें। प्रताड़ना एवं भर्त्सना भरी बात भी कोई गलती करने पर कही जा सकती है पर वह होनी नम्र और शिष्ट शब्दों में ही चाहिए। गाली−गलौज भरे मर्मभेदी, व्यंगात्मक, तिरस्कारपूर्ण कटु शब्द हर किसी को बुरे लगते हैं। छोटों पर भी उसका बुरा प्रभाव पड़ता है। जिह्वा पर इतना काबू होना चाहिए कि वह आवेश भरे दुष्ट शब्दों को बोलने न पाये। दुष्ट शब्दों की प्रतिक्रिया दुष्टतापूर्ण ही होती है उससे केवल द्वेष बढ़ता है। कभी इनकार का अवसर आवे तो उसमें भी अपनी असमर्थता नम्र शब्दों में प्रकट करनी चाहिए। कटु शब्दों में इनकार करने से सामने वाले पर दुहरा प्रहार होता है और वह भी तिलमिलाकर दुहरी दुष्टता धारण कर लेता है। विवाद, इनकार एवं प्रतिद्वन्दिता में भी शिष्ट भाषा और सामने वाले के सम्मान का ध्यान रखा जाना चाहिए।

चरण स्पर्श पूर्वक अभिवंदन

घर का प्रत्येक व्यक्ति अपने बड़ों का विशेषतया माता−पिता एवं वयोवृद्धों का नित्य चरणस्पर्श के साथ अभिवादन किया करे। यह परम्परा हमारे हर घर में आरम्भ की जानी चाहिए। इसका प्रभाव परिवार के स्नेह सम्बन्धों पर बहुत समाधान नित्य ही होता रहता है। कोई कटुता उत्पन्न होती है तो इस प्रक्रिया के द्वारा उसका बहुत कुछ समाधान नित्य ही होता रहता है। छोटे बच्चे अपने बड़े भाई को प्रणाम किया करें। बड़े अपने बड़ों को प्रणाम करें और चरण प्रतीक का अभिवन्दन किया करें। स्वर्गीय पूर्वजों के चित्र अथवा चरण प्रतीक हर घर में रहने चाहिए और उनके अभिवन्दन की धर्म प्रक्रिया परिवार के प्रत्येक सदस्य को नित्य कर्म की तरह पूर्ण करनी चाहिए। बहुएँ अपने पति के, सास-ससुर के, बड़ी ननद के, जेठ-जिठानी के तथा घर में जो और वयोवृद्ध हों उनका चरण स्पर्श पूर्वक अभिवन्दन किया करें। सज्जनता, नम्रता और धार्मिकता की यह पुनीत परिपाटी जिन घरों में चल पड़ेगी वहाँ पारिवारिक कलह का एक बहुत बड़ा भाग स्वयमेव समाप्त हो जायेगा। आरम्भ में संकोचवश, इस नई प्रथा को अपनाने में घर के सदस्य आना-कानी कर सकते हैं पर यदि साहसपूर्वक एक दो व्यक्ति भी इसे अपना लें तो कुछ दिन में और सब लोग भी इस श्रेष्ठ परम्परा को अवश्य अपना लेंगे।

वाणी से भी और क्रिया से भी

परिवार के सत् शिक्षण के लिए यह अत्यन्त सरल कार्यक्रम है पर इसकी महत्ता अत्यधिक है (1) श्रमशीलता (2) उदारता (3) सफाई (4) समय का सदुपयोग (5) शिष्टाचार के पाँच नियम जिस परिवार में जड़ जमा लेंगे वहाँ स्वर्ग के लक्षण कुछ ही दिन में प्रत्यक्ष दिखाई देने लगेंगे। यह पाँचों गुण छोटों की सिखाने से पूर्व बड़ों को पहले अपने में उत्पन्न करने चाहिएं और वाणी से ही नहीं क्रिया से भी छोटों को इनकी शिक्षा देनी चाहिए। यों सद्गुण अनेक हैं पर इन पाँच की महत्ता सर्वोपरि है। गृहपति का तथा परिवार के प्रत्येक उत्तरदायी व्यक्ति का कर्तव्य है कि इन्हें अपने स्वभाव का अंग बनावें। यह गुण जितने-जितने अंशों में बढ़ेंगे परिवार में पारस्परिक सम्बन्ध मधुर होने के साथ−साथ आर्थिक तथा अन्य प्रकार की प्रगति के साधन जुटने लगेंगे। जिन्हें अपना परिवार देव परिवार के रूप में देखने की इच्छा हो वे इन पाँच गुणों का प्रवेश परिजनों में कराते रहने के लिए कटिबद्ध हों और देखें कि उनका बृहत् शरीर परिवार कितना स्वस्थ, समर्थ एवं सुविकसित बनता चला जाता है।


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