परिजनों के सुधार की पूर्ण प्रक्रिया

June 1962

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आमतौर से लोग दूसरों को अपने अनुकूल बनाने के लिए उपदेश देने की प्रणाली को अपनाते हैं। सोचा यह जाता है कि लच्छेदार भाषा में लम्बा-चौड़ा उपदेश करने से दूसरे प्रभावित हो सकते हैं और अपना स्वभाव एवं दृष्टिकोण बदलकर हमारे अनुयायी या अनुकूल बन सकते हैं। इसी मान्यता के आधार पर आज चारों ओर प्रवचनों, भाषणों और लेखों की घुड़दौड़ मची हुई है। यह मान्यता पूर्णतया निरर्थक है ऐसा तो नहीं कह सकते क्योंकि कभी-कभी इनका कुछ प्रभाव भी होता देखा गया है, पर यदि वक्ता के व्यक्तित्व से सुनने वाला प्रभावित हो तभी वह प्रभाव पड़ता है। सभा, सोसाइटियों में भाषण करते समय लोग प्रस्तुत वक्ता की बढ़ा-चढ़ाकर प्रशंसा करते हैं। यदि सुनने वालों ने उस पर विश्वास कर लिया और वक्ता ने उस पर विश्वास कर लिया और वक्ता के व्यक्तित्व से प्रभावित हो गये तब तो वे उसकी बात ध्यानपूर्वक सुनेंगे एवं उसका प्रभाव भी ग्रहण करेंगे अन्यथा उसकी भाषण शैली की आलोचना को अपने मनोरंजन का विषय बनाकर खिसक जावेंगे।

वाचालता की निरर्थकता

आज वक्ता बहुत बढ़ गये हैं और साथ ही वाचालता भी, पर देखा यह गया है कि अपने स्वार्थ की कोई बात भले ही मान लें पर ऐसी काई भी बात उनकी न सुनी मानी जायगी जिसमें सुनने वाले को कोई कष्ट या नुकसान दीखता हो। राजनैतिक व्याख्यानदाता असंतोष उभार कर कोई बढ़ी−चढ़ी माँगे करने, हड़ताल कराने, लड़ाने के लिए श्रोताओं को तत्पर कर सकते है पर जुआ, नशा, सिनेमा, आलस्य, असंयम, स्वार्थ, कुविचार, दुर्भाव, दुःस्वभाव आदि छोड़ने के लिए प्रस्तुत नहीं कर पाते क्योंकि मनुष्य स्वार्थ, संकीर्णता एवं बुराई को बड़ी कठिनाई से ही छोड़ता है। उसे छुड़ाने के लिए उच्चकोटि के श्रेष्ठ संस्कार वाले व्यक्ति ही सफल होते हैं क्योंकि वे वाणी से नहीं अपने आचरण एवं व्यक्तित्व से दूसरों को प्रभावित करते हैं। इस प्रकार के ठोस प्रभाव से प्रभावित व्यक्ति ही अपने में सुधार या त्याग कर सकने की प्रेरणा प्राप्त करते हैं।

वाणी की चतुरता से प्रभावित करने की कला अब जनता द्वारा एक प्रकार से वेश्या-नृत्य की तरह तिरस्कृत एवं बहिष्कृत ही की जा रही है। लोग उससे कुछ मनोरंजन भले ही कर लें, अपने में कोई ठोस परिवर्तन तब तक नहीं करेंगे जब तक वक्ता के व्यक्तित्व से अत्याधिक प्रभावित न हों। यह तथ्य जितना सामाजिक क्षेत्र में लागू होता है उतना ही पारिवारिक क्षेत्र में भी। हम चाहते है कि हमारे परिजन, स्त्री, बच्चे हमारा कहना मानें, अनुकूल आचरण करें और उस रास्ते पर चलें जिस पर हम चलाना चाहते हैं तो उनके सामने अपना आचरण भी प्रस्तुत करना पड़ेगा। ठीक है समझाना-बुझाना भी उचित और आवश्यक है यदि तर्क, प्रमाण और उदाहरणों से कोई बिना लाग-लपेट की बात सीधे ढंग से समझाई जाय तो उसका कुछ न कुछ प्रभाव भी पड़ता है और परिणाम भी निकलता है पर हृदय, स्वभाव, विचार और भाव परिवर्तन जैसी कोई बड़ी बात किसी से कराने के लिए सबसे कारगर उपाय यही है कि हम अपने आपको बदलें, सुधारें और अपने उत्कृष्ट व्यक्तित्व की छाप अपने अनुयायियों पर छोड़ें। जलते हुए दीपक से दूसरे दीपक जलाये जाते हैं। जो स्वयं ही बुझा पड़ा है वह दूसरों में प्रकाश कैसे उत्पन्न करेगा?

वातावरण का प्रभाव

परिवार में शान्ति और व्यवस्था तभी रह सकती है जब घर के लिए सज्जनता, स्नेह एवं सदाचरण से परिपूर्ण गतिविधियाँ अपनावें। आज हमारे चारों ओर जो दूषित वातावरण फैला हुआ है उसका प्रभाव दुर्बल मस्तिष्क के लोग आसानी से ग्रहण कर लेते है अच्छाई की अपेक्षा बुराई अधिक आसानी से सीखी जा सकती है। वातावरण के सम्पर्क में हमारे घर वाले भी आते ही हैं, चारों ओर जो हो रहा है उसे वे भी देखते-सुनते ही हैं अतएव वे भी उन बुराइयों को सीख लेते हैं जो छोटी होते हुए भी हमारी पारिवारिक जैसी सिद्ध हो सकती है। दुर्गुणों और दुर्भावों का सबसे बुरा प्रभाव परिवार पर पड़ता है क्योंकि अधिक समय तक, अधिक घनिष्ठतापूर्वक परिवार के लोग ही साथ−साथ रहते हैं और अपने गुण-दोषों से एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। समाज में मनुष्य एक दूसरे से बहुत थोड़े समय तक मिलते हैं, वहाँ बनावट भी बरती जाती है इसलिए किसी प्रकार दुर्गुणी व्यक्ति भी अपना काम चला लेते हैं। पर परिवार में तो हर आदमी की आदतें नंगे रूप में प्रकट हो जाती हैं क्योंकि उसी क्षेत्र में तो उसे अपना वास्तविक स्वरूप प्रकट करने के लिए विवश होना पड़ता है। किसी व्यक्ति का वास्तविक स्वरूप उसके परिवार में रह कर ही देखा जा सकता है। क्योंकि ढोंग बाहर तो चल जाता है पर घर में तो उसे अपना नग्न स्वरूप ही प्रकट करना होता है।

परिजनों को दुर्गुणी न बनने दें

दुर्गुणी परिजन, उतना ही दुख देते हैं जितना शरीर में घुसा हुआ कोई निरन्तर पीड़ा देने वाला कष्ट साध्य रोग। दुर्गुणी स्वजनों को सद्गुणी बनाना उतना ही आवश्यक है जितना बीमार शरीर को निरोग बनाना। शरीर में घुसे हुए रोगों की उपेक्षा करने और उसे पनपने देने में एक दिन मृत्यु संकट ही उपस्थित हो जाता है। उसी प्रकार परिजनों में घुसे हुए दुर्गुण उस छोटे से घर को नष्ट−भ्रष्ट और नारकीय अग्नि और कुण्ड जैसा दुखदायक बना सकते हैं। इसलिए समय रहते उस स्थिति में परिवर्तन कर लेना चाहिए। आग छोटे रूप में जब लगी होती है तब प्रारम्भिक दशा में उसे आसानी से बुझाया जा सकता है पर जब वह दावानल का प्रचण्ड रूप धारण कर ले तब उसे बुझा पाना संभव नहीं रहता। दुर्गुणों के समाधान के लिए प्रयत्न आरम्भिक स्थिति में सफल हो सकते हैं उनमें परिपक्वता आ जाने पर सुधार की गुँजाइश बहुत ही कम रह जाती है।

कोई व्यक्ति यदि सुखी रहने की आकाँक्षा करता हो तो उसे अपने शरीर की तरह परिवार को भी निर्मल बनाना पड़ेगा और उसके लिए उसे पूरा ध्यान देना, प्रयत्न करना अपेक्षित होगा। यह कैसे हो? यह सोचते समय हमें यह ध्यान रखना होगा कि उपदेश देने की प्रक्रिया एक बहुत छोटी सीमा तक ही कारगर होती है। इतने मात्र से यदि काम चल गया होता तो हर घर में कोई-कोई समझाने−बुझाने वाला रहता ही है और वह अपने बलबूते कुछ न कुछ साँव-पटाँव समझाता ही रहता है। तब फिर सुधार क्यों न हो गया होता? फिर कोई घर क्यों अशान्ति का केन्द्र रहा होता?

परिवार संस्था को नष्ट न करें

पाश्चात्य देशों में परिवार संस्था को ही नष्ट कर डालने का प्रयत्न चल रहा है। वे रोग के साथ रोगी को भी समाप्त कर रहे हैं। वहाँ वयस्क होते ही लड़कों को माता-पिता का आश्रय छोड़कर स्वावलम्बी बनना पड़ता है और अपना अलग घर बसाना पड़ता है। इस प्रकार स्त्री और उसके छोटे बच्चे ही परिवार रह जाता है। माँ-बाप बुड्ढे होने पर अपनी संचित कमाई पर गुजारा करते हैं या सरकार से वृद्धावस्था की सहायता लेकर ‘वृद्ध गृहों’ में रह जिन्दगी के दिन पूरे कर लेते हैं। फिर भी उनकी समस्या सुलझ नहीं पा रही है। दुर्गुणी पति-पत्नी एक दूसरे को दुख देते ही हैं और उन्हें पुराने को छोड़ने तथा नया साथी ढूँढ़ने की मृगतृष्णा में निरन्तर भटकना पड़ता है। किशोर बालक वहाँ भी माता-पिता के लिए सिर दर्द बने रहते हैं। वयस्क होकर स्वावलम्बी हो जाने से पूर्व के दिन, जब तक कि बच्चे किशोर रहते हैं माता−पिता को बुरी तरह कुढ़ाते रहते हैं। इस गुत्थी को योरोप वाले भी नहीं सुलझा पा रहे हैं फिर भारत में तो वह सुलझेगी भी कैसे? जहाँ माता-पिता, छोटे बहिन-भाई, विधवाऐं, विधुर आर्थिक तथा अन्य कारणों से विवश होकर एक ही नाव में बैठ कर जिन्दगी पार करते हैं। हमारी धार्मिक मान्यताऐं बच्चों का भविष्य, आर्थिक परिस्थितियाँ एवं उपार्जन की कठिनाई को देखते हुए परिवार को उस प्रकार तोड़−फोड़ डालना संभव नहीं हो सकता। ऐसी दशा में योरोप की अपेक्षा हमारे लिए यह और भी अधिक आवश्यक है कि परिवार की परिस्थितियाँ सुधारने का प्रयत्न किया जाय और यह कार्य आर्थिक सुधार से नहीं मानसिक स्तरों के स्वस्थ निर्माण से ही संभव है। घर के लोग सद्गुणी बनें तभी समस्या सुलझ सकती है।

परिवार की सुख−समृद्धि

प्रत्येक सद्गृहस्थ की यह आकांक्षा रहती है कि उसका परिवार खुशहाल और प्रेमपूर्ण वातावरण में निर्वाह करे पर वह इसके लिए उन्हें सद्गुणी बनाने की आवश्यकता की ओर ध्यान नहीं देता। ऐसी दशा में वह आकाँक्षा अतृप्त ही रह जाती है और निर्धन व्यक्ति जिस प्रकार मन-मसोसते और अपने दुर्भाग्य को कोसते रहते हैं उसी तरह दुर्गुणी परिवार के संचालक को भी अपनी व्यथा को हर घड़ी सहन करते रहना पड़ता है। पर इतने से भी कुछ काम चलने वाला नहीं है। बढ़ती हुई बुराई जब विस्फोट की स्थिति में पहुँचती है तो सहन शक्ति का भी अन्त हो जाता है और जीवित नरक के प्रत्यक्ष दर्शन करने को विवश होना पड़ता है।

परिवार को सुधारने की इच्छा रखने वाले हर व्यक्ति को सबसे पहले अपने आप को सुधारना पड़ेगा। क्योंकि असली प्रवचन वही है। माता और पिता पर बच्चों को जन्म देने का ही नहीं, उन्हें सुसंस्कारी बनाने और दीक्षा देने का उत्तरदायित्व भी है। पढ़ाई ठीक न होने का दोष शिक्षकों को दिया जा सकता है पर आदतें ठीक न होने का दोष विशुद्ध रूप से अभिभावकों को ही दिया जाएगा जिनने ढील छोड़कर बच्चों पर बहुत खर्च किया है, बच्चा पैसे के मूल्य को समझ नहीं पाता और वह फिजूलखर्ची की आदत सीख जाता है अन्ततः वही आदत बढ़ी−चढ़ी स्थिति में पहुँचकर बच्चे को ‘उडाऊ’ बना देती है। माता−पिता यदि आरम्भ से ही मितव्ययी रहें और धन को सदुपयोग से बरतें, सादगी अपनावें तो बच्चा भी धन की उपयोगिता एवं आवश्यकता को समझेगा और अपव्ययी न बन सकेगा। माता−पिता में परस्पर जो कलह-संघर्ष और मनोमालिन्य रहता है उसका प्रभाव बच्चों के कोमल हृदय पर पड़े बिना रह नहीं सकता। वे भी द्वेष, घृणा, कटुता और दुराव की भावनाऐं हृदयंगम कर लेते हैं और आगे चलकर यही दुर्गुण क्लेश एवं द्वेष का विकराल रूप धारण करके सामने आते हैं। जिस माता के हृदय में अपने पति के प्रति, ईश्वर के प्रति, धर्म के प्रति श्रद्धा होगी उसके बालक भी अपने माता−पिता के प्रति, बड़े−बूढ़ों के प्रति श्रद्धावान एवं भावनाशील रहेंगे।

शिक्षा का सामयिक प्रारंभ

एक माता किसी सुयोग्य मनोवैज्ञानिक के पास गई और पूछा कि वह अपने चार वर्ष बच्चे की शिक्षा कब से आरम्भ करावें? मनोवैज्ञानिक ने उत्तर दिया आप पाँच वर्ष लेट हो गई। बालक के गर्भ में आते ही उसका शिक्षण अपने आप में आवश्यक हेर−फेर कर आरम्भ कर लेना चाहिए। पाँच वर्ष की आयु तक तो बालक अपनी आधी पढ़ाई समाप्त कर लेता है। सूक्ष्म रूप से घर के सारे प्रभाव परमाणु बच्चे के अन्तःकरण में प्रवेश कर जाते हैं, स्वभाव ढल जाता है। पाँच वर्ष के बाद तो उसे स्वभाव जन्य नहीं अक्षर ज्ञान की शिक्षा प्राप्त करनी ही शेष रह जाती है।

रज वीर्य के संयोग से बालक का शरीर ही नहीं बनता वरन् दोनों के मन की मानसिक स्थिति के आधार पर बालक का मन भी बनता है। जो माता−पिता स्वयं दुर्गुणों एवं कुसंस्कारों से भरे पड़े हैं वे अपने बच्चों में क्योंकर सत्प्रवृत्तियाँ पनपती देख पायेंगे? काम वासना में अन्धे होकर जिन्होंने बिना पूर्व तैयारी के बिना अपने गुण, कर्म, स्वभाव में आवश्यक सुधार किये संतानोत्पादन किया है वस्तुतः उनने विष बीज ही बोया है आमतौर से पहली संतान मूर्ख और अन्तिम संतान बुद्धिमान होती देखी जाती है उसका कारण माता-पिता का नव-यौवन की स्थिति में अपरिपक्व मस्तिष्क एवं ढलती उम्र में बुद्धिमान होना ही एकमात्र कारण है, उस पर वातावरण का प्रभाव जन्म लेने के बाद पड़ता है पर वास्तविक जन्म तो गर्भ के आने के दिन से आरम्भ हो जाती है।

माता-पिता का दायित्व

अभिमन्यु को चक्रव्यूह वेधन की शिक्षा अर्जुन ने तब दी थी जब वह अपनी माता द्रौपदी के गर्भ में था। हर एक बालक अभिमन्यु की परिस्थिति में ही होता है, उसे जो कुछ सिखाया जाता है हम अर्जुन की तरह अपनी वाणी या क्रिया द्वारा उसे सिखा सकते हैं। रानी मदालसा ने अपने बच्चों को गर्भ में ही ब्रह्मज्ञान की शिक्षा देकर ब्रह्मज्ञानी उत्पन्न किया था। जब उसके पति ने एक बालक राजकाज के उपयुक्त बनाने का अनुरोध किया तो मदालसा ने उन्हीं गुणों का एक तेजस्वी बालक उत्पन्न कर दिया। हर माता की स्थिति मदालसा की सी होती है यदि वह अपने गुण, कर्म, स्वभाव में आवश्यक सुधार कर ले तो वैसे ही गुणवान् बालक को जन्म दे सकती है जैसा कि वह चाहे। ऊसर खेत और सड़े बीज के संयोग से जैसे बेतुके अविकसित पौधे पैदा हो सकते है वैसे ही बच्चे हमारे घरों में जन्मते हैं। गुलाब के फूल बढ़िया खेत में अच्छे माली के पुरुषार्थ से उगाये जाते हैं पर कटीली झाड़ियाँ चाहे जब उपज पड़ती हैं। अच्छी संतान सुसंस्कारी माता−पिता ही प्रयत्नपूर्वक उत्पन्न कर सकते हैं। किन्तु कुसंस्कारी बालक हर कोई फूहड़ स्त्री-पुरुष उगलते रह सकते हैं। अच्छी सद्गुणी संतान की आकाँक्षा गुलाब की फसल उगाने की तरह है जिसके लिए माँ-बाप को काफी तत्पर होना पड़ता है। यदि यह कार्य हमें कठिन लगता हो तो संस्कारवान सन्तान की आकाँक्षा भी छोड़ देनी चाहिए और जैसे भी उद्दंड, दुर्गुणी, कुसंस्कारी, दुर्गति बच्चे जन्मे उन्हें अपनी करनी का फल मानकर सन्तोष कर लेना चाहिए।

पहले अपना सुधार

एक महात्मा इसलिए प्रसिद्ध था कि उसकी शिक्षाओं का दूसरों पर बड़ा असर पड़ता है जिससे जो कुछ कह देते थे वह वैसा ही करने लगता था। इस प्रशंसा को सुनकर एक माता अपने बालक को लेकर यह उपदेश दिलाने महात्मा के पास पहुँची कि बच्चा अधिक शक्कर न खाया करे। डाक्टर मिठाई के लिए मना करते थे पर बालक मानता न था। महात्मा पहले तो कुछ गंभीर हुए पर पीछे महिला को दस दिन बाद आकर उपदेश दिलाने के लिए कह कर उसे विदा कर दिया। महिला दस दिन बाद फिर आई। महात्मा ने शक्कर न खाने का उपदेश दिया और बालक ने उसी दिन से उसे मानना शुरू कर दिया। पास बैठने वाले लोगों ने पूछा इतनी छोटी बात के लिए आपने दस दिन बाद आने के लिए उस महिला को क्यों कहा? महात्मा जी ने बताया कि तब वह स्वयं शक्कर बड़ी रुचिपूर्वक खाते थे इसलिए इन दिनों दिये गये उपदेश का कोई प्रभाव बालक पर नहीं पड़ सकता था। इन दस दिनों में मैनें स्वयं शक्कर त्यागी और उसके प्रति घृणा बुद्धि भी पैदा की। इतना सुधार अपने में कर लेने के बाद ही मेरे लिए यह सम्भव हो सका कि बच्चे को शक्कर छोड़ने का प्रभावशाली उपदेश दे सकूँ।

बच्चों को आमतौर से उनके अभिभावक बहुत अच्छे उपदेश देते रहते हैं और उन्हें राम, भरत एवं श्रवण कुमार देखना चाहते हैं। पर कभी यह नहीं सोचते कि क्या हमने अपनी वाणी एवं आकाँक्षा को अपने में आवश्यक सुधार करके इस योग्य बना लिया है कि उसका प्रभाव बच्चों पर पड़ सके?


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